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यूपी खंगालने वाली गंगा-जमुना टीम ने बताया कि हवा कैसी है, कौन जीत रहा है

जब किन्नर बिंदिया से चुनावों के बारे में पूछा तो बोलीं- जैसे हम बीच के, वैसे हमारा बटन बीच का.

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फोटो - thelallantop
बनारस लोकसभा सीट में अस्सी चौराहा से पचास मीटर दूर एक गली के भीतर जाकर एक कमरे का घर है. इस घर में अंदाज़ गुरु रहती थी. अंदाज़ गुरु मतलब किन्नरों की उस्ताद. चुनाव यात्रा के मद्देनज़र हम बात करने पहुंचे तो पता चला बूढ़ी हो चुकी अंदाज़ गुरु को गुज़रे तीन महीने हो चुके हैं. अब घर बिंदिया किन्नर देख रही है. बिंदिया किन्नर दिन में शराब पीकर छाती उघाड़कर और पेटीकोट को सीने तक चढ़ाकर सो रही थी. बात करने का प्रस्ताव दिया तो बिंदिया किन्नर ने कहा,
“मोदी जिंदाबाद. जाओ! नहीं करनी बात.”
पूछा क्यों? तो शराब के नशे में धुत बिंदिया किन्नर करवट मारकर बोली,
“क्या फरक पड़ता है. कोई भी लड़े. हमको क्या? जैसे हम बीच के, वैसे हमारा बटन बीच का.”
बीच का बटन मतलब नोटा. बनारस के चुनाव में नोटा को लेकर बहुत सारी बहसें हो रही हैं. कहा जा रहा है कि इस चुनाव में बहुत सारे लोगों ने नोटा दबाया है. यह भी चर्चा है कि संघ की लोकल यूनिट ने नोटा के लिए भितरघात भी किया है. तो क्या शराब में धुत बिंदिया किन्नर संघ की सलाह पर काम कर रही हैं? उन्होंने जवाब नहीं दिया. और न ही नतीजे आये कि पता चले कि कितने नोटा पड़े. आज देश में डेढ़ महीने तक चले लोकसभा चुनाव की वोटिंग ख़त्म हो गई है. तमाम एक्जिट पोल के नतीजे आने लगे हैं. और असल नतीजे तब आएंगे जब कैलेंडर में तारीख लगेगी 23 मई की. लेकिन किसी भी नतीजे पर पहुंचने के पहले यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि जब साल २०१४ में देश में लोकसभा चुनाव हुए थे, तो क्या हुआ था? कितनी सीटें आई थीं? क्या-क्या फैक्टर ज़रूरी थे? और सबसे ज़रूरी क्या वे सभी   फैक्टर इस लोकसभा चुनाव में हावी हैं? कुछ नए फैक्टर हैं? तो वे क्या हैं? यूपी के संदर्भ में बात करें तो अस्सी लोकसभा सीटों के जब परिणाम 2014 में आए तो यह कहा जाने लगा कि सभी दलों को 2019 के बजाय 2024 के लोकसभा चुनाव की चुनाव की तैयारी करनी चाहिए. भाजपा ने अस्सी में से 73 सीटों पर कब्ज़ा किया था, जिसमें से दो सीटों पर अपना दल ने जीत दर्ज की थी. चुनाव में इस नतीजे के हावी रहने के पीछे की कहानी जाती है साल 2011 में. सफ़ेद धोती-कुर्ता और गांधी टोपी पहने महाराष्ट्र से आए एक सामाजिक कार्यकर्ता ने दिल्ली के रामलीला मैदान में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ आन्दोलन खड़ा कर दिया था. कार्यकर्ता का नाम अन्ना हजारे था. इस आंदोलन में कई ऐसे लोग दिखे, जिन्होंने आगे चलकर या तो अपनी खुद की पार्टी बनाई, या तो आगे चलकर भाजपा में शामिल हो गए. इस आदोलन का नैरेटिव थीं कांग्रेस के शासनकाल में आ रही तमाम किस्म के भ्रष्टाचार की खबरें. अन्ना आंदोलन और इसको मिले ध्यानाकर्षण से लोगों को लगने लगा कि कांग्रेस की सरकार ही भ्रष्ट है. ये हंगामा थोड़ा थमा ही था कि दो सालों बाद दिल्ली में बलात्कार की घटना ने जन्म लिया. पीड़िता को नाम दिया गया “निर्भया”. निर्भया केस के प्रकाश में आते ही दिल्ली की सड़कों पर फिर से आंदोलन हुए और तत्कालीन कांग्रेस सरकार – केंद्र और दिल्ली दोनों – महिला सुरक्षा के नाम पर घिरती दिखीं   2014 का चुनाव नज़दीक आते ही भाजपा ने महिला सुरक्षा और भ्रष्टाचार को अपना मुद्दा बनाया. इसके साथ एक और नैरेटिव आया विकास का. और बतौर प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी का नाम आते ही इन वादों को “मोदी लहर” का नाम दिया गया. लेकिन 2014 से 2019 के बीच में बड़े अंतर हैं. तभी भाजपा के खिलाफ़ लड़ती सभी पार्टियां अलग-अलग थीं. लेकिन 2018 से भाजपा के खिलाफ एक विपक्ष बनता दिखाई दिया. एक नए किस्म की अंडरस्टैंडिंग दिखाई दी. ये अंडरस्टैंडिंग दिखी 2018 के लोकसभा उपचुनाव में. योगी आदित्यनाथ के प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से गोरखपुर सीट खाली हुई. केशव प्रसाद मौर्य के उपमुख्यमंत्री बनने से फूलपुर लोकसभा सीट खाली हुई और हुकुम सिंह की मौत के बाद खाली हुई कैराना लोकसभा सीट. इस समय एक फार्मूले की टेस्टिंग हुई. बसपा, सपा, रालोद, पीस पार्टी और निषाद पार्टी एक हो गयीं. इस समय “महागठबंधन” की नींव पड़ी और भाजपा के खिलाफ एक संगठित प्रत्याशी उतारा गया. और नतीजा ये हुआ कि इन तीनों सीटों पर भाजपा हार गई. किन सीटों पर कौन-से फैक्टर? इस फार्मूला क्लिक कर गया और मौजूदा लोकसभा चुनाव के लिए इसे और पकाया गया. अब चुनाव हो चुके हैं. रुझान बहुत ही फैले हुए हैं. ऐसे में कुछ किस्सों से समझा जा सकता है कि यूपी का ये चुनाव किस दिशा में जा सकता है. यूपी के जाटलैंड से शुरुआत करें तो बागपत और मुज़फ्फ़रनगर में जयंत चौधरी और उनके पिता अजीत सिंह चुनाव लड़ रहे हैं. पहले मुज़फ्फ़रनगर की बात करें. गन्ना किसान हर दूसरी बात में चीनी मिलों से भुगतान और पर्ची मिलने में होने वाली देरी का ज़िक्र करते हैं.
  1. हम बालियान खाप का मूड जानने के लिए मुज़फ्फ़रनगर के पूर बालियान गांव में गए. माइक-कैमरे पर गन्ने का हिसाब समझ ही रहे थे तो रालोद की रैली से लौटता किसानों से भरा हुआ एक ट्रैक्टर आकर रुका. ट्रैक्टर पर से करीब अस्सी की उम्र का एक बूढ़ा जाट उतरा और उसने लगभग गला पकड़ते हुए कहा, “हमें अपनी कोठी वापिस लेनी है. दिल्ली की कोठी वापिस लेनी है हमें.” कौन-सी कोठी? वही कोठी जो चौधरी चरण सिंह को मिली थी, अजित सिंह रहे थे और आगे चलकर उसी कोठी में अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी पैदा हुए थे. इस कोठी में पश्चिम यूपी के किसान आते थे और अजित सिंह से मिला करते थे. ये फैक्टर आज भी मौजूद है. अजित सिंह पर आरोप लगता है कि वे मौक़ापरस्त हैं और मंत्री बनने के लिए कुछ भी कर सकते हैं. पार्टी भी बदल सकते हैं. उन पर मुज़फ्फ़रनगर में यह आरोप लग रहा है कि वे जीतने के बाद दिल्ली चले जायेंगे और पश्चिम यूपी की मिट्टी में फिर से नहीं दिखेंगे. इसका जवाब मुज़फ्फ़रनगर के जाट ही देते हैं, “हमने देख्या है दिल्ली का रास्ता, पहुंच जावेंगे दिल्ली.” जाटों के बीच अजित सिंह ने एक सहानुभूति का कार्ड खेला है और मुज़फ्फ़रनगर शहर के बाहर निकलते हुए गांवों में वे लोकप्रिय भी हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि उनका रास्ता आसन है. उनके प्रतिद्वंदी संजीव बालियान अभी भी बहुत मजबूत हैं और मुज़फ्फ़रनगर दंगों के बाद भी अपने कैम्पेन में वे “बदला” लेने की बात कह रहे हैं. बालियान खाप के बड़े नेताओं में से एक हैं. और मुज़फ्फ़रनगर दंगों को फिर भी भुना ही रहे हैं.
  1. बागपत की एक घटना फिर भी जाटों की राजनीति को थोड़ा खोल देती है. एक गांव में जयंत चौधरी की सभा होने वाली थी और सभा के पहले हम कुछ लोगों से बात कर रहे थे. तकरीबन 23 वर्ष का एक जाट आया और उसने हमसे बातचीत में रालोद प्रत्याशी जयंत चौधरी की प्रशंसा में कसीदे गढ़ दिए. आसपास मौजूद हुक्का गुडगुडाते बूढ़े जाटों ने लड़के की पीठ थपथपा दी. लेकिन निकलते वक़्त वो हमारे पास आया और कहा कि वो भाजपा का समर्थक है. फंसा महसूस कर रहा. बूढ़े जाटों के बीच अगर भाजपा की बात करता तो सर पर लाठी खाता, और रालोद-जयंत के समर्थन की खबर चल जाए तो भाजपा को समर्थन देने वाले खाप उसको मारने लगेंगे. इस बेल्ट के कुछ लोग बताते हैं कि बूढ़े जाटों में रालोद का दबदबा अभी भी है, लेकिन नौजवान अब भाजपा के साथ जा रहे हैं. ऐसे में समीकरण देखते हुए लगता है कि अपनी सीट पर रालोद मुखिया अजित सिंह तो मजबूत हैं, लेकिन उम्र के समीकरण पर बात करें तो जयंत शायद उतने मजबूत नहीं हैं. सत्यपाल सिंह ने अपने क्षेत्र में काम कराया है और उन कामों के आधार पर प्रचलित भी हैं. उनके काम सीधे-सीधे गिनाए जा रहे हैं और जयंत के पास केवल समीकरण हैं.
  1. मुरादाबाद और रामपुर जैसी सीटों पर आएं तो खेल रोचक है. रामपुर में भाजपा ने प्रत्याशी बदल दिया है और जयाप्रदा सीधे-सीधे आज़म खान पर अटैक करके सहानुभूति पा रही हैं. उनके पास महिलाओं का समर्थन है. आज़म खान के बोल बिगड़े हुए हैं. और लगातार बिगड़ते जा रहे हैं. चुनाव आयोग का डंडा चलने से जयाप्रदा को और ताकत मिली है. आज़म के पुराने सहयोगी अब कांग्रेस प्रत्याशी संजय कपूर के साथ हैं, और आज़म के ही वोट कट रहे हैं. ऐसे में सीट को घर मानकर बैठे आज़म की पुरानी दुश्मनियां और बिगड़े बोल उनका खेल खराब करते हैं. मुरादाबाद को देखें तो मुस्लिम वोटों का बंटवारा एक बड़ी बात है. कांग्रेस का गठबंधन में न शामिल होना कई सीटों पर भाजपा के मदद में खेल लेकर जा रहा है. इमरान प्रतापगढ़ी और एसटी हसन मुस्लिम मतदाताओं में लोकप्रिय तो हैं, लेकिन एक दूसरे को नुकसान पहुंचा रहे हैं.
  1. आप जब गांवों में जाते हैं तो पता चलता है कि मोदी की योजनाओं ने कैसा तरीके से वोटों पर अपनी पकड़ बनाई है. लम्बे समय तक भाजपा शहरी पार्टी मानी जाती थी, जबकि गांवों में सपा-बसपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत रहती आई हैं. लेकिन किसान सम्मान निधि के साथ-साथ उज्ज्वला, शौचालय, और प्रधानमंत्री आवास योजना कुछ ऐसे फैक्टर हैं, जो बहुत हद तक भाजपा के शहरी चरित्र को साफ़ करते हैं. संतोष गंगवार की बरेली सीट इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. कई सालों से सांसद गंगवार एंटी-इनकम्बेंसी का सामना तो कर रहे हैं, लेकिन मोदी की योजनाओं की वजह से गांवों में भाजपा के समर्थक मौजूद हैं.
  1. मुरादाबाद की रैली में मोदी ने कहा था कि आपका वोट सीधा मुझे आएगा. ऐसे में लोग सीधे मोदी को वोट कर रहे, ऐसा सोचते हैं. स्थानीय मुद्दे नदारद हैं. लोग मानने लगे हैं कि स्थानीय मुद्दे नहीं बल्कि पाकिस्तान से युद्ध, बालाकोट स्ट्राइक, और पुलवामा हमला सबसे बड़े मुद्दे हैं. लोग कहते हैं कि देश ही सुरक्षित नहीं रहेगा तो आप क्या ख़ाक अपनी संसदीय सीट बचाएंगे? अधिकतर सीटों पर सांसद नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री चुनने का चुनाव हो रहा है. गोरखपुर में मिले लोग तो यहां तक कह दे रहे कि देश में अब अमरीका जैसा “टू-पार्टी” सिस्टम लागू हो रहा है. एक भाजपा और एक विपक्ष.
  1. जाति का बड़ा फैक्टर कैसे चुनाव को प्रभावित कर रहा है. जैसे संत कबीरनगर में निषाद, और गोरखपुर में ब्राह्मण. बड़ा फैक्टर है कबीरनगर के सांसद शरद त्रिपाठी का राकेश सिंह बघेल को जूते से पीट देना. जिसको ठाकुर अपने अपमान की तरह देख रहे हैं और ऐसे में ब्राहमण वोट को बनाए रखने के लिए भाजपा की मेहनत देखने लायक है. शरद त्रिपाठी का टिकट कट गया है और उनके पिता रमापति राम त्रिपाठी को देवरिया से टिकट दिया गया है, और प्रचार के दौरान ठाकुर वोट को बिफरने से बचाने के लिए कार के भीतर ही बैठे रहते हैं.
  1. यूपी में सबसे बड़ा फैक्टर है सपा, बसपा और रालोद का महागठबंधन. पर ये कितना सफल होगा इस पर बड़ा प्रश्नचिह्न है. गठबंधन को लोग DMY यानी दलित, मुस्लिम औऱ यादव के गठजोड़ की वजह से मजबूत बता रहे हैं. मगर कागज पर मजबूत दिखने वाले ये आंकड़ें जमीन पर कितना उतरेंगे, ये कहना मुश्किल है. वजह है सपा-बसपा का आपसी इतिहास. 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद दोनों अलग हुए तो किसी ने साथ आने की कल्पना नहीं की थी. सपा सरकार आई तो बसपा कार्यकर्ताओं पर डंडे चले. मायावती आयीं तो सपा वालों पर मुकदमे दर्ज हुए. ऐसे में ग्राउंड पर कार्यकर्ता कितना एकजुट होकर लड़े होंगे. इस पर बड़ा संशय है.
  1. मोदी को लेकर अंडरकरंट दिखा. जाति बंधनों से ऊपर. फिरोजाबाद के ही एक यादवबहुल गांव में कुछ नौजवान यादव लड़के मोदी को पीएम लेकिन यूपी में अखिलेश की बात कर रहे थे. गांव-गांव तक मोदी के शौचालय, आवास, सिलिंडर की चर्चा है. अब इसमें एक फैक्टर ये था कि जिनको नहीं मिला वो नाराज होंगे, पर ऐसा नहीं है. वो उम्मीद लगाए बैठे हैं.
  1. कांग्रेस का अलग लड़ना ज्यादातर सीटों पर सपा-बसपा का नुकसान करता दिख रहा है. प्रियंका की लॉन्चिंग से भीड़ तो बढ़ी है मगर वो वोट लाती नहीं दिखती. प्रियंका ने तो खुद ही वोट काटने वाली बात कह दी. ऐसे में पार्टी का तर्क यह रहता है कि प्रियंका को इस लोकसभा चुनाव के लिए नहीं, बल्कि 2022 के प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए लाया गया है.
  1. युवाओं के बीच नौकरियों को लेकर नाराजगी भी एक बड़ा फैक्टर है. एक तरफ युवा जहां मोदी की ओर देशभक्त दृष्टि से देख रहे हैं, वहीँ एक हिस्सा ऐसे लोगों का भी है जो नौकरियां न होने के लिए सरकार को आड़े हाथों ले रहे हैं. कह रहे कि दो करोड़ रोज़गार कहां गए? आंकड़े आने बंद हो गए तो यह भी एक बड़ा मुद्दा है, गाहे-बगाहे ये मुद्दे उठ ही जाते हैं.
  1. बीते साल तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा को पता चला कि किसान के मुद्दे बड़े हैं. और ऐसा है भी. गन्ना किसानों की दिक्कतें तो हैं ही. छुट्टा जानवरों की भी दिक्कतें हैं. किसान तो यहां तक कह देते हैं कि आवारा जानवरों की खरीद-फ़रोख्त पर लगी रोक ख़त्म होनी चाहिए, ताकि इन्हें बेचा जा सके और आवारा जानवरों की समस्या में कमी आए.
  क्या हैं पिछले नतीजे? 2004 लोकसभा  बीजेपी- 10 कांग्रेस – 9 सपा – 35 बसपा – 19 अन्य - 7 2009 लोकसभा  बीजेपी- 10 कांग्रेस – 21 बसपा- 20 सपा – 23 आरएलडी- 5 अन्य- 1 2014 लोकसभा  बीजेपी- 71 और 2 गठबंधन की कांग्रेस – 2 बसपा- 0 सपा – 5 आरएलडी- 0 अन्य- 0   2014 में देश का रिजल्ट - बीजेपी- 282 एनडीए - 336 सीट कांग्रेस – 44 यूपीए- 62   निष्कर्ष 2014 में भाजपा गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में 73 सीटें जीती थीं. इस बार भी सपा-बसपा गठबंधन के बावजूद भाजपा बढ़त में दिख रही है. सच कहें तो भाजपा नहीं, बल्कि मोदी और उनका नाम आगे दिख रहा है. मगर लड़ाई तगड़ी है. वोटों का अंतर पिछली बार की तरह लाखों में नहीं दिखेगा. मगर ‘एज’ बीजेपी के पास ही है. लोग सांसद के बजाए प्रधानमंत्री चुनने पर जोर दे रहे थे. ऐसे में फौरी तौर पर भाजपा बहुमत पा तो रही है, लेकिन मशीनों के अन्दर की भाषा कुछ और ही है, जो कई बारे कयास से दूर जाती है और कई बारे कयासों के साथ. और वो भाषा सुनाई देगी 23 मई को.

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