भारतीय राजनीति में स्ट्रीट फाइटर के नाम से विख्यात ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने अपनी अगली लड़ाई का ऐलान कर दिया है. लड़ाई भी किससे? दोस्त से राजनीतिक दुश्मन बने सुवेंदु अधिकारी (Suvendu Adhikari) से. वो भी उन्हीं के गढ़ नंदीग्राम (Nandigram) में. नंदीग्राम एक ऐसी जगह है जिसे आप ममता बनर्जी और सुवेंदु अधिकारी दोनों का राजनीतिक तीर्थस्थल कह सकते हैं. तीर्थस्थल इसलिए क्योंकि यही वो स्थान है जहां से ममता बनर्जी ने सुवेंदु अधिकारी के साथ मिलकर साढ़े तीन दशक से पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज वाम मोर्चे और उसके लाल झंडे का सियासी मर्सिया पढ़ दिया था.
दीदी को सत्ता तक पहुंचाने वाला नंदीग्राम चुनाव से पहले क्यों आया सुर्खियों में
कैसे खड़ा हुआ था नंदीग्राम आंदोलन, किसने किया था विरोध और आज की क्या है स्थिति ?

इन सब की चर्चा हम आगे करेंगे, लेकिन इस पूरे वाक़ये को समझने के लिए बंगाल के राजनीतिक मिज़ाज को समझना लाजिमी हो जाता है. और इसकी शुरूआत हम कर रहे हैं 70 के दशक की शुरूआत से ताकि 'आज के बंगाल की सियासी तस्वीर के गढ़े जाने की बुनियाद को समझ सकें.'
सिद्धार्थ शंकर रे की इंडस्ट्री विरोधी छवि -

सिद्धार्थ शंकर रे की सरकार ने बंगाल से उद्योगों को भगाना शुरू किया था.
ज्योति बसु का दौर -
इसके बाद 1977 में जेपी आंदोलन से उपजी परिस्थितियों में जनता पार्टी केन्द्र की सत्ता में आ गई. आते ही जनता पार्टी ने सिद्धार्थ शंकर रे की सरकार को बर्खास्त कर दिया और विधान सभा के चुनाव कराए. इस चुनाव में जनता पार्टी और सीपीएम का गठबंधन हुआ. चुनाव प्रचार के दौरान बंगाल के बड़े कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु ने लोगों को आतंक राज से मुक्ति दिलाने की बात कही और उद्योगपतियों को यह भरोसा दिलाया कि 'हमारी सरकार आने पर उन्हें कोई तंग नहीं करेगा और वे पहले की तरह राज्य में अपने उद्योग और कारोबार को जारी रख सकेंगे.' उनके इस वादे पर जनता ने भरोसा किया और अकेले सीपीएम को पूर्ण बहुमत देकर जिता दिया. ज्योति बसु मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन उनकी सरकार का पूरा ध्यान लैंड सीलिंग और बर्गादारों (बटाइदारों) को जमीन का अधिकार देने पर रहा. औद्योगिकरण उनके एजेंडे में कभी प्रमुखता से नहीं आ पाया, लिहाजा उनके कार्यकाल में भी उद्योगों के पलायन का क्रम बदस्तूर जारी रहा और अगले एक दशक में बंगाल के अधिकांश उद्योग राज्य के बाहर शिफ्ट हो गए.

ज्योति बसु भी अपने लंबे कार्यकाल में बंगाल से उद्योगों का पलायन नहीं रोक सके.
लेकिन साढ़े 23 साल शासन करने के बाद नवंबर 2000 में ज्योति बसु ने स्वेच्छा से मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया और उनकी जगह बुद्धदेव भट्टाचार्य ने ले ली. बुद्धदेव की छवि आम बंगाली कम्यूनिस्टों से एकदम अलग थी. वे औद्योगिक विकास और नियोजित शहरीकरण के प्रबल पक्षधर माने जाते थे और उदारीकरण की आर्थिक नीतियों का पश्चिम बंगाल में जमकर फायदा उठाना चाहते थे. लेकिन उनकी इसी व्यावहारिक सोच से पश्चिम बंगाल में वामपंथ की जड़ें उखड़ने की शुरुआत हो गई. जो इलाका और जहां का जनमानस तीन दशकों से ज्यादा समय से जमीन के टुकड़े की लड़ाई-लड़ते हुए बड़े औद्योगिक घरानों के खिलाफ बोलने को अपने आचार-व्यवहार के ढर्रे में शामिल कर चुका था, उसे अचानक इंडस्ट्रियलाइजेशन की एंटीबायोटिक देने की बुद्धदेव भट्टाचार्य की रणनीति उल्टी पड़ गई.

बुद्धदेव भट्टाचार्य की औद्योगीकरण की चाहत की वजह से नंदीग्राम का बवाल खड़ा हुआ.
वैसे इस रणनीति पर 1992 में कांग्रेस के सुरजकुंड अधिवेशन में नरसिंह राव और मनमोहन सिंह को भी अपनी पार्टी की तीखी आलोचना झेलनी पड़ी थी. राव को तो यहां तक सुनना पड़ा था कि 'आपकी नीतियों से देश का चाहे जितना भला हो जाए लेकिन पार्टी का कबाड़ा निकल जाएगा क्योंकि अब हमलोग गरीबी और गरीबों की बात कहने का हक खो चुके हैं.
खैर, हम फिलहाल बंगाल पर ही फोकस करते हैं और नंदीग्राम पर आते हैं.
कैसे खड़ा हुआ नंदीग्राम का विवाद?
2006 में पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने बंगाल के चुनावी इतिहास की सबसे बड़ी जीत हासिल की. तब वाम मोर्चे ने 80 प्रतिशत से ज्यादा सीटों के साथ सत्ता में वापसी की थी. इस जीत के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य का राजनीतिक कद काफी बढ़ गया. शासन-सत्ता में उनकी इस नई हैसियत ने उन्हें वह सब सोचने पर मजबूर कर दिया जिसे वे अपनी पार्टी की स्थापित लाइन के उलट मानकर अपने मन में ही दबा कर बैठे थे. यानी देश के पश्चिमी राज्यों की तरह रैपिड इंडस्ट्रियलाइजेशन. इसी क्रम में उन्होंने राज्य के नंदीग्राम इलाके में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप को केमिकल हब बनाने के लिए 10 हजार एकड़ जमीन देने का एलान कर दिया. एक कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री का इस प्रकार का रिफाॅर्म फ्रेंडली एप्रोच सबके लिए एक अचरज भरा था. यहां तक की उनकी पार्टी, वाम मोर्चे के लोगों और विरोधियों के लिए भी यह हैरानी भरा फैसला था. लेकिन बुद्धदेव बाबू ने एकबार कमिटमेंट कर दी तो पीछे हटने का सवाल कहां था.

2007 के नंदीग्राम हिंसा की तस्वीर
लिहाजा सलीम ग्रुप के केमिकल हब के लिए भू-अधिग्रहण (land aquisition) का काम शुरू हो गया और यहीं से सारा बवाल पैदा हुआ. स्थानीय लोग अपनी जमीनें छोड़ने को तैयार नहीं थे और वे विरोध में सड़क पर उतर गए. विरोध करने वाले ज्यादातर लोग वाम मोर्चा के समर्थक माने जाते थे और ऐसे में उन्हें यह बहुत बुरा लग रहा था कि 'जिस पार्टी और गठबंधन को मजबूत बनाने में पीढ़ियां लगा दी, अब उसी पार्टी के लोग जमीनों से बेदखल करना चाहते हैं.' इनमें ज्यादातर जमीनें मुस्लिम समुदाय के लोगों की थी.
लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य अड़े रहे और अंततः बल प्रयोग से भू-अधिग्रहण करने का आदेश दे दिया. इसके बाद वहां स्थानीय नेता और पास की कांथी विधानसभा सीट के विधायक सुवेंदु अधिकारी के नेतृत्व में स्थानीय लोगों ने भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी’ का गठन किया और इसके बैनर तले आंदोलन शुरू कर दिया. इस आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस ने भी मोर्चा संभाल लिया और 14 मार्च 2007 को पुलिस और स्थानीय लोगों के बीच हिंसक झड़प हुई जिसमें दो दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए.
नंदीग्राम विवाद से सुवेंदु अधिकारी ममता बनर्जी के विश्वस्त बनकर उभरे थे.
नंदीग्राम की इस हिंसा की देशभर में तीखी प्रतिक्रिया हुई. 9 महीने पहले ही विधानसभा चुनाव में करारी पराजय झेल चुकी ममता बनर्जी खुद कई बैरिकेड को तोड़ते हुए नंदीग्राम पहुंच गईं और स्थानीय लोगों के आंदोलन में शामिल हो गईं. वहां उन्होंने मां, माटी और मानुष का नारा दे दिया और तब यह आंदोलन और तेज हो गया. उस वक्त केन्द्र में विपक्षी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक जार्ज फर्नांडीस भी ममता बनर्जी के आंदोलन को समर्थन देने नंदीग्राम पहुंच गए. संसद के बजट सत्र में नंदीग्राम के मुद्दे पर रोज-रोज हंगामा होने लगा. इस पूरे मामले में बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के समर्थक माने जाने वाले बुद्धिजीवी (जैसे इतिहासकार सुमित सरकार, साहित्यकार महाश्वेता देवी) भी सरकार के विरोध में उतर आए. यहां तक कि CPM और वाम मोर्चे के नेता भी सरकार और पुलिस के नंदीग्राम में किए जा रहे कार्यों के विरोध में उतर आए. वाम मोर्चे के घटक फाॅरवर्ड ब्लाॅक और RSP ने खुलकर अपनी सरकार के कृत्यों की आलोचना की जबकि CPM नेता हन्नान मुल्ला ने सरकार के कृत्य को पार्टी की जड़ें खोदने वाला बताया. दरअसल कम्युनिस्ट पार्टियों की नाराजगी का एक कारण यह भी था कि इंडोनेशिया में सलीम ग्रुप को वहां के राष्ट्रपति रहे जनरल सुहार्तो का करीबी माना जाता था और इस बारे में आम धारणा बनी हुई है कि इंडोनेशिया में कम्युनिस्ट विचारधारा को कुचलने में जनरल सुहार्तो ने सलीम ग्रुप के पैसों का जमकर इस्तेमाल किया था.
लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य टस से मस नहीं हो रहे थे. नतीजतन अगले 7-8 महीनों तक दोनों पक्षों (जनता और पुलिस) के बीच हिंसक झड़पें होती रही, लोग मारे जाते रहे और आंदोलन चलता रहा. और इस आंदोलन के बीच से ममता बनर्जी बंगाली मानुष की एक ऐसी नेता बनकर उभरीं जो जनता को वाम मोर्चे के शासन से मुक्ति दिला सकती थी.

ममता बनर्जी ने नंदीग्राम हिंसा के उपजी परिस्थितियों को अपने पक्ष में भुनाया.
कांग्रेस और CPM का विवाद
इस नंदीग्राम विवाद के बीच ही परमाणु करार के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और CPM नेता प्रकाश करात के बीच मतभेद बढ़ता गया और अंततः इस करार वर्सेज करात विवाद की चरम परिणति यूपीए सरकार से वाम मोर्चा की समर्थन वापसी के रूप में सामने आई. यूपीए से वाम मोर्चे के अलगाव का असर पश्चिम बंगाल की CPM की राजनीति पर भी देखने को मिला जब लोकसभा अध्यक्ष और CPM नेता सोमनाथ चटर्जी ने पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर लोकसभा अध्यक्ष बने रहने का फैसला किया जिसके कारण उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया. इसके बाद सोमनाथ चटर्जी भी नंदीग्राम की हिंसा की खुली आलोचना करने लगे. हालांकि पहले भी उन्होंने इस मुद्दे पर अपनी सरकार की आलोचना की थी लेकिन दबी जुबान से. सोमनाथ चटर्जी के निष्कासन ने पश्चिम बंगाल CPM की दरार को सतह पर ला दिया. उसके बाद नंदीग्राम से उपजे आक्रोश और CPM की अंदरूनी कलह से उपजे माहौल ने ऐसा वातावरण तैयार कर जिससे CPM के लिए अपनी जमीन बचाए रखना मुश्किल हो गया. उधर वाम मोर्चे की समर्थन वापसी से नाराज कांग्रेस ने भी मौका ताड़ा और 2009 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी से गठबंधन कर लिया. इस गठबंधन ने लोकसभा चुनावों में वाम मोर्चे को कड़ी टक्कर दी. अकेले ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने 19 सीटें जीती और ममता बनर्जी केन्द्र में रेल मंत्री बन बैठीं. अपने साथ-साथ उन्होंने अपनी पार्टी के नंदीग्राम इलाके की कांथी सीट के सांसद और सुवेंदु अधिकारी के पिता शिशिर अधिकारी को भी राज्य मंत्री बनवाया. रेल मंत्री बनते ही ममता बनर्जी ने अपने बंगाल प्रेम में कई स्थापित परंपराओं को लांघ दिया. यहां तक कि उन्होंने रेल मंत्रालय का कार्यभार भी रेल भवन की बजाए पूर्व रेलवे के कोलकाता स्थित हेडक्वार्टर में जाकर ग्रहण किया. उनके रेल बजट की अक्सर बंगाल का रेल बजट कहकर खिल्ली उड़ाई जाती.
लेकिन इन सब ने बंगाल में ममता की स्थिति को काफी मजबूत कर दिया और जब 2011 का विधानसभा चुनाव हुआ तो ममता की यह नई छवि और नंदीग्राम से वाम मोर्चा के खिलाफ पैदा हुए माहौल ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि लाल झंडे के साथ जीने-मरने की कसमें खाने वाले लोग भी ममता बनर्जी के मां, माटी और मानुष के नारे के साथ खड़े हो गए. और इन सब में उनके बगलगीर बनकर खड़े रहे नंदीग्राम में स्थानीय लोगों की लड़ाई लड़ने वाले सुवेंदु अधिकारी और उनका पूरा परिवार. नतीजतन 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने साढ़े तीन दशकों के लाल झंडे और लाल सलाम के नारे के साथ सत्ता में बैठी वाम मोर्चा का किला ध्वस्त कर दिया. खुद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य अपनी जादवपुर सीट भी हार गए.

सुवेंदु अधिकारी अब भाजपा में शामिल हो गए हैं.
वाम मोर्चे के दौर में अलीमुद्दीन स्ट्रीट (CPM का दफ्तर) से चलने वाला रायटर्स बिल्डिंग अब कालीघाट (ममता बनर्जी का घर) से चलने लगा. अब भी शासन सत्ता कालीघाट से ही चल रही है लेकिन पिछले कुछ बरस से भारतीय जनता पार्टी से मिल रही चुनौती ने ममता बनर्जी को हलकान कर रखा है और वे अप्रैल-मई में भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ने की तैयारी में जुट भी चुकी हैं. जाने-माने चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी उनके साथ लगे हुए हैं. लेकिन इन्हीं प्रशांत किशोर के बढ़ते कद ने ममता बनर्जी को उनके सबसे करीबी माने जाने वाले नंदीग्राम के विधायक और मंत्री सुवेंदु अधिकारी से दूर कर दिया. प्रशांत के तृणमूल कांग्रेस में बढ़ते दखल से सुवेंदु अधिकारी को पार्टी में अपनी अहमियत घटती नजर आने लगी और अंततः वे भाजपा में शामिल हो गए. सुवेंदु के इस निर्णय से परेशान ममता ने अब नंदीग्राम से ही चुनाव लड़ने का फैसला किया है. लेकिन सुवेंदु अधिकारी ने भी घोषणा कर दी है कि वे ममता बनर्जी को कम से कम 50 हजार वोटों के अंतर से हराएंगे.
अब कौन किसको हराएगा - ये तो समय बताएगा. लेकिन इस हाईप्रोफ़ाइल मुकाबले में लोगों की दिलचस्पी जरूर रहेगी.
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