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ना सीएम चेहरा, ना हिंदुत्व का शोर... फिर 27 साल बाद दिल्ली के दिल में कैसे बसी BJP?

Delhi Elections Results: इस दिल्ली चुनाव में BJP बिना सीेएम चेहरे के उतरी थी. आम आदमी पार्टी ने इसे अपना एक बड़ा हथियार बनाया था. पार्टी ने अपेक्षाकृत पहले ही अपने उम्मीदवारों का एलान कर कैंपेन शुरू कर दिया था. पार्टी कह रही थी कि अगर BJP की सरकार बनी तो AAP की कल्याणकारी योजनाएं बंद कर दी जाएंगी. इस बीच BJP अपने हिसाब से AAP की दलीलों की काट निकाल रही थी.

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Delhi Assembly Elections 2025 के बाद जश्न मनाते BJP समर्थक. (फोटो: BJP)

दिल्ली में आजकल सुबह-शाम ठंडी हवाएं चल रही हैं. दोपहर में गुनगुनी सी धूप रहती है. वायु गुणवत्ता अपेक्षाकृत (हवा जो चल रही) ठीक है. फरवरी महीने के पहले पखवाड़े में प्रेम का त्योहार मनाया जा रहा है. माहौल खुशनुमा है. लेकिन सबके लिए नहीं. आम आदमी पार्टी (AAP) और उसके समर्थक उदास हैं. पिछले दो चुनाव में प्रचंड बहुमत लाने वाली पार्टी, इस बार पिछड़ गई. जन आंदोलन से निकली पार्टी को आखिरकार जनता की अदालत में ही दोषी ठहराया जा चुका है.

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जब मैं ये सब लिख रहा हूं तब तक चुनाव आयोग के डेटा के मुताबिक, 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में बीजेपी 48 सीटें जीत चुकी है और आम आदमी पार्टी के खाते में 22 सीटें गई हैं. अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) और मनीष सिसोदिया (Manish Sisodia) सहित पार्टी के कई बड़े चेहरे हार चुके हैं. इधर, कांग्रेस के खाते में पिछले दो चुनाव में शून्य था और इस बार भी आंकड़ा गुणा करने के बाद शून्य ही रहा है.

बीजेपी ने पूरे 27 साल बाद राजधानी का रण जीत लिया है. यह जीत तब हुई है, जब हाल फिलहाल में ही पार्टी ने हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीतें हासिल की हैं. इन जीतों के जरिए बीजेपी ने पिछले लोकसभा चुनाव के अपने कड़वे अनुभवों को पीछे छोड़ दिया है. बहरहाल, हम अपने मूल सवाल पर आते हैं. आखिर BJP ने दिल्ली जीती कैसे?

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काउंटर का काउंटर

दिल्ली चुनाव में अगर आम आदमी पार्टी के कैंपेन पर नजर डालें तो बार-बार यही कहा जा रहा था कि अगर पार्टी की सत्ता गई तो लोगों को मिल रहा फ्री पानी और बिजली बंद हो जाएगा. महिलाओं को फिर से डीटीसी बसों में टिकटें खरीदनी होंगी. बीजेपी ने इसकी काट निकाली. इन योजनाओं को 'रेवड़ी पॉलिटिक्स' बताने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार अपनी रैलियों में कहा कि मौजूदा सरकार की कल्याणकारी योजनाएं जारी रहेंगी. बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में भी सबसे ऊपर यही बात लिखी. लोगों को भरोसा दिलाया गया कि डबल इंजन सरकार से दिल्ली में सुशासन और विकास की बहार आएगी.

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दिल्ली बीजेपी का चुनावी घोषणापत्र.
बैटल फॉर मिडिल क्लास

राष्ट्रीय राजधानी में एक बहुत बड़ा मिडिल क्लास रहता है. पीपल्स रिसर्च ऑन इंडियाज कनज्यूमर इकॉनमी (PRICE) की साल 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली की आबादी में मिडिल क्लास का हिस्सा 67.16 परसेंट था. लोकनीति-सीएसडीएस के डेटा के मुताबिक, साल 2015 और 2020 के चुनावों में मिडिल क्लास आम आदमी पार्टी के पाले में था. पार्टी को 2015 में मिडिल क्लास के 55 परसेंट और 2020 में 53 परसेंट वोट मिले थे.

इस बीच बीजेपी ने दिल्ली की मिडिल क्लास में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी. डेटा के मुताबिक, जहां 2015 में बीजेपी को मिडिल क्लास के 35 परसेंट वोट मिले थे, वहीं 2020 में यह हिस्सा बढ़कर 39 परसेंट हो गया था.

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आम आदमी पार्टी को मिडिल क्लास की निराशा से निकली हुई पार्टी कहा जाता है. वो निराशा जो तमाम भ्रष्टाचारों और पॉलिटिकल सिस्टम की निष्क्रियता से उपजी थी. मिडिल क्लास ने साफ-सुथरी पॉलिटिक्स और मूलभूत सुविधाओं के लिए आम आदमी पार्टी को बढ़-चढ़कर समर्थन दिया था. लेकिन समय के साथ इस वर्ग का भी आम आदमी पार्टी से मोहभंग होता गया.

मोहभंग इसलिए क्योंकि इस मध्य वर्ग को लगा कि AAP केवल और केवल गरीबों के लिए काम कर रही है. फ्री बिजली, पानी और बस यात्रा की कवायद को इसी तरह से देखा गया. ऐसा नहीं है कि पार्टी के नेताओं को इस मोहभंग की खबर नहीं थी. चुनाव प्रचार के दौरान केजरीवाल ने कई बार मिडिल क्लास की बात की. कहा कि मोदी सरकार को इनकम टैक्स में छूट देनी चाहिए. लेकिन ये सब बातें करते-करते देर हो गई.

और इस बीच बीजेपी ने मिडिल क्लास को अपने पाले में कर लिया. आम बजट में एक बहुत बड़ी घोषणा की. 12 लाख तक की सालाना आय पर इनकम टैक्स फ्री. साथ ही साथ सरकारी कर्मचारियों को खुश करने के लिए 8वें वेतन आयोग का एलान किया. दिल्ली में एक बहुत बड़ा सरकारी अमला रहता है. ऐसा कहा जा रहा है कि इस अमले का एकमुश्त वोट बीजेपी को गया है.

आम आदमी पार्टी के चोटी के नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों ने भी मिडिल क्लास को उससे दूर किया. कथित शराब घोटाले और ‘शीशमहल’ जैसे मुद्दों पर बीजेपी के आक्रामक चुनाव प्रचार ने अरविंद केजरीवाल और उनके करीबी नेताओं की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया.

AAP का ओवर कॉन्फिडेंस

हाल-फिलहाल के चुनावों पर अगर नजर डालें तो महिला वोटरों की भूमिका निर्णायक रही है. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर स्कीम्स के जरिए महिलाओं को सीधे पैसा पहुंचाने की कवायद ने बीजेपी और कुछ विपक्षी पार्टियों को चुनावी सफलता दिलाई है. खुद आम आदमी पार्टी ने फ्री बस सेवा के जरिए महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा अपने साथ जोड़ा था. इस बार के चुनाव से पहले भी पार्टी ने महिलाओं को हर महीने 2100 रुपये देने का वादा किया. सब्सिडाइज्ड LPG सिलेंडर और दूसरी महिला केंद्रित योजनाओं का भी एलान किया.

लेकिन बीजेपी और कांग्रेस ने भी इसी तरह के वादे कर दिए. इन दोनों पार्टियों ने तो महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये देने का वादा कर दिया. आम आदमी पार्टी इस ओवर कॉन्फिडेंस में बनी रही कि महिलाएं उसका साथ छोड़कर नहीं जाएंगी. हालांकि, चुनाव परिणाम यही बता रहे हैं कि सिर्फ महिलाओं वाले दाव से बात नहीं बनी. 

ये किचकिच सही नहीं जाती!

आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली चुनाव जिंदगी या मौत का सवाल था. ये ऐतिहासिक शहर ही पार्टी के लिए वो 'दिल्ली मॉडल' था, जिसके जरिए उसने देश के अन्य राज्यों में पैर पसारने की कोशिश की. पंजाब में तो सत्ता भी हासिल कर ली. इसी 'मॉडल' के दम पर अरविंद केजरीवाल ने घोर मोदी लहर के बीच भी दिल्ली का किला नहीं ढहने दिया था.

इस दिल्ली मॉडल के मूल में था अच्छी नागरिक सेवाओं का वादा. गड्ढामुक्त सड़कें, साफ पानी की आपूर्ति, साफ-सफाई, कचरे का सही प्रबंधन और साफ हवा. लेकिन हाल फिलहाल में दिल्ली में इन सबकी हालत बिगड़ी ही है. आम आदमी पार्टी के नेता भी ये स्वीकार चुके हैं. पॉश इलाकों तक में बजबजाते हुए सीवर दिल्ली में आम दृश्य हो गए. बारिश में दिल्ली की सड़कों पर पानी ऐसे भरा कि तंज कसने वाले इसे वेनिस कहने लगे. जीवन की गुणवत्ता घटी. यमुना गंदी थी, और गंदी ही रही. दिल्ली को देखकर यह लगना बंद हो गया कि यह दुनिया में सबसे तेज आर्थिक गति से आगे बढ़ रहे देश की राजधानी है और यहां दुनिया को मुट्ठी में कर लेने की चाहत रखने वाले लोग रहते हैं.

AAP ने यह कहकर इन मुद्दों से पीछा छुड़ाने की कोशिश की दिल्ली के LG कुछ करने ही नहीं देते. लेकिन BJP ने इसका जवाब दिया. कहा कि MCD पर तो AAP का ही कब्जा है, रोजमर्रा की इन नागरिक सुविधाओं को दुरुस्त करना तो नगर निगम वालों की ही जिम्मेदारी है.

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दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना और सरकार में ठनी रही. (फाइल फोटो)

विश्लेषक कहते हैं कि दिल्ली जीतने के लिए बीजेपी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. और इसके लिए केंद्र की भी पूरी ताकत लगा दी. उपराज्यपाल के तौर पर वीके सक्सेना की नियुक्ति के बाद केजरीवाल सरकार हर दिन ही उनके साथ लड़ती-झगड़ती नजर आई. आप के मंत्रियों ने शिकायतें कीं. कहा कि विभागों के सचिव सीधे उपराज्यपाल को रिपोर्ट कर रहे हैं. और यह सब तब हो रहा था, जब आम आदमी पार्टी के बड़े नेता जेल में थे और भ्रष्टाचार के आरोपों के खिलाफ कानूनी लड़ाइयां लड़ रहे थे.

दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच यह झगड़ा कोई आज का नहीं है. आरोपों और प्रत्यारोपों का लंबा दौर चला है. और शायद इस बार दिल्ली की जनता ने यह निर्णय ले लिया कि उसे इस किचकिच में नहीं फंसना है. उसने यह तय किया कि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होनी चाहिए. ऐसे में दिल्ली की नई सरकार के पास यह बहाना भी नहीं रह जाएगा कि केंद्र सरकार काम नहीं करने दे रही.

बिना दूल्हे की बारात में दूल्हों की एंट्री

दिल्ली चुनाव प्रचार में आम आदमी पार्टी का मुख्य हथियार यह भी था कि बीजेपी ने किसी सीएम चेहरे का एलान नहीं किया था. AAP के नेता बार-बार यही कह रहे थे कि बीजेपी वाले तो बिना दूल्हे की बारात लेकर चल रहे हैं. इसी कैंपेन को धार देने के लिए आम आदमी पार्टी ने बाकियों से काफी पहले अपने उम्मीदवारों का एलान किया और डोर टू डोर कैंपेन भी शुरू कर दिया.

इधर, बीजेपी ने इंतजार किया. हर सीट पर लंबे विचार-विमर्श के बाद उम्मीदवार तय किए. पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को पता था कि आम आदमी पार्टी के सामने दिल्ली बीजेपी का नेतृत्व कमजोर है. ऐसे में उसने बड़े चेहरों को चुनाव प्रचार में झोंक दिया. पीएम मोदी के चेहरे को हथियार बनाया. इसके अलावा दिल्ली में रहने वालों की विविधता को देखते हुए अपने कैंपेन को कई हिस्सों में बांटा. बड़ी रैलियां बड़े नेताओं के हवाले की गईं, वहीं स्थानीय नेताओं को छोटी-छोटी सभाओं और बैठकों पर फोकस करने के लिए कहा गया. एक-एक नेता ने ऐसी सैकड़ों छोटी-छोटी सभाएं कीं.

पर्दे के पीछे क्या है?

चुनाव प्रचार में BJP की एक बड़ी रणनीति यह रही कि उसने कांग्रेस के खिलाफ कोई आक्रामक कैंपेन नहीं चलाया. इधर, कांग्रेस वालों का फोकस भी आम आदमी पार्टी पर ही बना रहा. नतीजा ये हुआ कि कई सीटों पर कांग्रेस ने AAP का खेल बिगाड़ दिया. आम आदमी पार्टी के संयोजक और संस्थापक नई दिल्ली में परवेश सिंह वर्मा से हार गए. इस सीट पर कांग्रेस की तरफ से चुनाव लड़ रहे पूर्व सांसद और सूबे की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित ने लगभग उतने ही वोट हासिल किए, जितने में जीत-हार तय हो गई.

इसी तरह दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को भी जंगपुरा से मात्र 675 वोट से हार का सामना करना पड़ा. यहां कांग्रेस उम्मीदवार 7350 वोट लेकर आए. ठीक यही ट्रेंड ग्रेटर कैलाश, मालवीय नगर, राजेंद्र नगर, मादीपुर, संगम विहार, महरौली, छतरपुर, नांगलोई जाट, तिमारपुर, बादली और त्रिलोकपुरी जैसी कुल 13 सीटों पर देखने को मिला.

दिल्ली कांग्रेस के नेता आम आदमी पार्टी को ही अपना प्रतिद्वंदी मानते रहे हैं. उनका कहना है कि 1998 से लेकर 2020 तक के विधानसभा चुनावों में बीजेपी का वोट प्रतिशत 32 से 38 प्रतिशत तक रहा है और पार्टी कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध नहीं लगा पाई. इनका मानना है कि सिर्फ और सिर्फ आम आदमी पार्टी ने ही कांग्रेस का वोट बैंक उससे छीना है. इसी दलील को आधार बनाकर दिल्ली कांग्रेस के नेताओं ने AAP के साथ गठबंधन का विरोध किया था. कहा कि AAP सरकार को लेकर जनता में नाराजगी है और इसका फायदा उठाकर पार्टी को अपना पुराना वोट बैंक वापस खींचना चाहिए. ऐसे में कई सीटों पर विपक्षी वोट बंटा और बीजेपी को सीधा फायदा हुआ.

ऐसी भी बातें सामने आईं कि बीजेपी और कांग्रेस ने पर्दे के पीछे मिलकर यह चुनाव लड़ा. अरविंद केजरीवाल अपनी रैलियों में बात बार-बार दोहराते रहे. मतगणना की सुबह आए दिल्ली कांग्रेस के नेताओं के बयानों ने भी इस चर्चा को हवा दी. मसलन, कांग्रेस की तेज तर्रार नेता अलका लांबा कालकाजी से बुरी तरह से पिछड़ रही थीं, लेकिन अपने पिछड़ने से ज्यादा उन्हें आप की दुर्दशा पर खुशी थी. अलका लांबा ने मीडिया से कहा कि हमने उनको नुकसान पहुंचाया है, जो दिल्ली को नुकसान पहुंचा रहे थे.

सॉफ्ट हिंदुत्व की सॉफ्टनेस 

इस चुनाव में सत्ता-विरोधी लहर भी एक बड़ा फैक्टर रहा. आम आदमी पार्टी 2012 में बनी थी. अगले साल सत्ता में आई. फिर दो साल बाद रिकॉर्ड तोड़ बहुमत के साथ वापसी की और अगले 10 साल तक सत्ता में ही बनी रही. ऐसे में उसके खिलाफ एक बड़ी सत्ता-विरोधी लहर थी. ऐसा नहीं था कि आम आदमी पार्टी को इसका अंदाजा नहीं था. उम्मीदवार बदलने की प्रक्रिया को इसी सत्ता-विरोधी लहर से निपटने के हथकंडे के तौर पर देखा गया. लेकिन आखिर-आखिर में लोकप्रियता खो चुके विधायकों का टिकट काटने का फायदा आम आदमी पार्टी को नहीं मिला.

पार्टी को फायदा तो सॉफ्ट हिंदुत्व पिच का भी नहीं मिला. पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने चुनाव प्रचार को अच्छी खासी सांप्रदायिक टोन दी थी. उस समय दिल्ली में जगह-जगह CAA-NRC विरोधी आंदोलन हो रहे थे. बीजेपी हिंदू ध्रुवीकरण करना चाह रही थी. बदले में आम आदमी पार्टी वाले जय हनुमान के नारे लगा रहे थे. बीजेपी को लगा था कि इस किस्म के कैंपेन से उसे फायदा होगा, लेकिन पार्टी की सीटों में सिर्फ 5 अंकों का इजाफा हुआ.

ऐसे में इस बार बीजेपी ने हिंदुत्व वाले कैंपेन से किनारा कर लिया. पार्टी को पता था कि जवाब में आम आदमी पार्टी पिछली बार की ही तरफ सॉफ्ट हिंदुत्व वाला कैंपेन चला देगी. AAP की सरकार ने तो वैसे भी अपने इस कार्यकाल में दिल्ली में जगह-जगह तिरंगे लगवाए, लोगों को तीर्थ यात्राओं पर भेजने का वादा किया. आखिर-आखिर में पुजारियों और ग्रंथियों को हर महीने पैसे देने का भी वादा कर दिया. और ये सब काम तब किए, जब वो बार-बार कह रही थी कि LG काम नहीं करने दे रहे हैं.

ऐसे में बीजेपी का फोकस स्थानीय मुद्दों पर ही बना रहा और इसी से उसे सफलता मिली.

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