अच्छी फोटो के लिए आपके स्मार्टफोन के कैमरे में क्या-कुछ होना चाहिए...
सिर्फ मेगापिक्सल ही अच्छी फोटो की गारंटी नहीं.
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स्मार्टफोन खरीदने में कैमरे का अहम रोल होता है (Image:makeameme)
हमारे एक दोस्त हैं जिनके पास भारी भरकम मेगापिक्सल वाला स्मार्टफोन है और दूसरे दोस्त के पास एक मध्यम श्रेणी मेगापिक्सल का स्मार्टफोन. आमतौर पर मानकर चला जाता है कि ज्यादा मेगापिक्सल वाले फोन से शानदार फोटो आएगी, लेकिन असल कहानी कुछ और ही है. जिस दोस्त के पास एक नॉर्मल मेगापिक्सल का फोन है उनके हैंडसेट के कैमरे से ली गईं फोटो ज्यादा क्रिस्प और शार्प आती हैं. ऐसा आपके साथ या आपके जान-पहचान वालों के साथ भी हुआ होगा. क्या आपने कभी सोचा कि ऐसा क्यों होता है? क्या है मेगापिक्सल का गणित? कौन से फैक्टर जरूरी हैं एक बढ़िया कैमरा स्मार्टफोन के लिए? आज हम यही जानने की कोशिश करेंगे.आज भी स्मार्टफोन मार्केट में सबसे अच्छी फोटो जिन स्मार्टफोन से मिलते हैं उनमें कैमरे का मेगापिक्सल बहुत कम है. मतलब साफ है कि मेगापिक्सल एक मात्र कारक नहीं है अच्छी फोटो के लिए. बल्कि फोन के सॉफ्टवेयर से लेकर हार्डवेयर तक काफी कुछ ऐसा है जो एक शानदार फोटो के लिए जरूरी है. कौन सा लेंस? आजकल बजट और मिडरेंज स्मार्टफोन भी ट्रिपल कैमरा सेटअप के साथ आते है. सेटअप कंपनी तय करती है. विकल्प के लिए अल्ट्रावाइड लेंस, मैक्रो लेंस, टेलीफोटो लेंस वगैरह हैं. वैसे स्मार्टफोन अब चार और पांच कैमरे के साथ भी आते हैं, लेकिन ट्रिपल कैमरा सेटअप सबसे आम है.
अल्ट्रावाइड मतलब जैसा नाम वैसा काम. ये लेंस नॉर्मल लेंस से ज्यादा गोल होता है जिससे एंगल ज्यादा मिलता है. वाइड या अल्ट्रा वाइड कैमरा का "फील्ड ऑफ व्यू" (FoV) नॉर्मल कैमरे से अधिक होता है, जैसे कि 80 डिग्री या 120 डिग्री. यदि नॉर्मल फ्रेम से ज्यादा एरिया कवर करना है अल्ट्रावाइड लेंस सबसे सही होता है, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि इमेज के किनारे की लाइंस सीधी की जगह थोड़ी घूमती हुई नजर आने लगती है या फिर फ्रेम में खड़े सब्जेक्ट का शेप थोड़ा सा अटपटा लगता है. इससे बचने के लिए कंपनियां सॉफ्टवेयर का सहारा लेती हैं जिसके सहारे इमेज को थोड़ा क्रॉप करके किनारे ठीक किए जाते हैं. कई कंपनियां कैमरे का एंगल कम करके भी इस समस्या से बच जाती है. अल्ट्रावाइड कैमरे का ऑटो फोकस जितना अच्छा होगा इमेज उतने ही बेहतर आएंगे. शुरुआत में ऑटोफोकस अल्ट्रावाइड कैमरे में बहुत कम होता था लेकिन आजकल फ्लैगशिप कैमरे में तो पक्का होता है.

लेंस
ऑटोफोकस मैक्रो शॉट्स लेने में भी मदद करता है. इसकी मदद से आप नॉर्मल मैक्रो कैमरे से भी अच्छे क्लोज़-अप शॉट्स ले सकते हैं. मैक्रो मतलब बहुत पास से फोटो लेना. आसान भाषा में समझें तो ये एक किस्म का छोटा सा मैग्ननिफायर लेंस है जो बहुत नजदीक से फोटो लेता है. लैब में यूज होने वाले मैक्रो लेंस की तरह. इस कैमरे का मेगापिक्सल साधारण सा होता है लेकिन ये अपना काम बखूबी करता है. ये लेंस एकदम नजदीक से फोटो ले सकते हैं जैसे कि किसी फूल के पराग की. आमतौर पर स्मार्टफोन का कैमरा ऐप ये खुद तय कर लेता है कि कौन सा फोटो नॉर्मल रखना है और कौन सा मैक्रो शॉट. आप खुद भी कैमरा सेटिंग में जाकर ऐसा कर सकते हैं. EIS और OIS कैमरे से अच्छी फोटो के लिए ये दो फीचर बहुत जिम्मेदार हैं. OIS मतलब ऑप्टिकल इमेज स्टेबलाइजेशन. जो एक हार्डवेयर पर आधारित फीचर है और EIS मतलब इलेक्ट्रॉनिक इमेज स्टेबलाइजेशन जो सॉफ्टवेयर पर आधारित है. आप और हम कोई एक्सपर्ट तो हैं नहीं कि फोटो लेते समय हाथ का संतुलन बनाए रख सकें, मतलब थोड़ा बहुत हिलना हो ही जाता है. इधर हमारा हाथ हिला नहीं, उधर फोटो खराब. OIS फीचर ऐसे में सबसे ज्यादा काम आता है. आपके हाथ के मूव करने के साथ फोन का कैमरा भी थोड़ा सा मूव करता है और फोटो खराब होने से बच जाती है. ये मूवमेंट इतनी बारीक होती है कि इसे आंखों से देखना असंभव है.
अब बात EIS की. यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की मदद से फोटो या वीडियो को स्थिर करता है. स्मार्टफोन में ये दोनों फीचर एक साथ भी आते हैं और अलग-अलग भी. सिर्फ OIS होगा, या EIS, या फिर दोनों. ये सब स्मार्टफोन बनाने वाली कंपनी पर निर्भऱ है. Aperture अपर्चर शब्द से आप वाकिफ होंगे. लेकिन ये है क्या? स्मार्टफोन के कैमरा डिटेल्स में अपर्चर शब्द F से स्टार्ट होगा. कंपनियां अपने विज्ञापन में और रिटेल बॉक्स में भी इसका जिक्र करती हैं, जैसे कि इस मोबाइल कैमरे का अपर्चर f2.0 है या f1.8. दरअसल अपर्चर मतलब कैमरे का दरवाजा जो फोटो लेने के समय खुलता है और फिर तुरंत बंद हो जाता है. दरवाजा मतलब लेंस. अब जैसे दरवाजा बड़ा होगा तो रोशनी ज्यादा आएगी. ठीक उसी तरह अपर्चर बड़ा होगा तो फोटो से जुड़ी जानकारी या फ्रेम के डिटेल कैमरे तक ज्यादा पहुंच पाएंगे. अपर्चर की रेटिंग आंकड़ों से हिसाब से जितनी कम होगी, उतना बेहतर.

Aperture
Zoom ये शब्द या फीचर भी खूब सुनाई देता है स्मार्टफोन कैमरे के साथ. 3x जूम है, 10x जूम है वगैरह. जूम भी कोई एक प्रकार का नहीं होता. तीन किस्म के हैं- ऑप्टिकल जूम, हाइब्रिड और डिजिटल जूम. ऑप्टिकल जूम है तो हार्डवेयर पर ऑपरेट होगा. मतलब जब आप जूम करेंगे तो लेंस मूव होगा और ऑब्जेक्ट की क्वालिटी खराब नहीं होगी. डिजिटल तो नाम से ही साफ है यानी सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल होगा तो क्वालिटी के साथ समझौता होना तय है. असल मे डिजिटल जूम एडिटिंग में काम आने वाला फीचर है, लेकिन स्मार्टफोन कंपनियां भी कैमरे के साथ देती हैं. अब बचा हाइब्रिड, यह उस कार की तरह है जो इलेक्ट्रिक भी है और ईंधन पर भी चलती है. ऐसे जूम में थोड़ा ऑप्टिकल होगा और थोड़ा डिजिटल मतलब आपके मन की शांति के लिए एक फीचर.

Zoom
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) AI क्या-क्या कर सकता है? वो सभी को मालूम है. स्मार्टफोन कैमरे में भी इसका बेहतरीन इस्तेमाल हो सकता है जिसका उदाहरण हम Google Pixel में देख चुके हैं. कैमरे का AI या सॉफ्टवेयर ये समझ लेता है कि आपने जो फोटो ली है वो कैसी है. फोटो लेते समय लाइट कैसी थी, फोटो खाने की है या फिर कोई नेचुरल लैंडस्केप की. एक बार AI ये समझ लेता है तो अपना इनपुट डालकर आपके सामने नई फोटो पेश करता है. अब ये प्रोसेस इतनी जल्दी होती है कि आपको पता भी नहीं चलता, लेकिन कुछ हैंडसेट में ये लैग दिख जाता है. लेकिन अब प्रोसेस बहुत तेज हो गई है तो पता ही नहीं चलता. रेजोल्यूशन किसी भी फोटो का आधार यानी छोटे-छोटे रंगों के डॉटस जो वर्टिकल और हॉरिजॉन्टल लाइंस में किसी फोटो के अंदर होते हैं. रेड, ग्रीन और ब्लू रंगों के इन डॉटस को ही पिक्सल कहा जाता है और ये हमारी व आपकी कल्पना से भी छोटे होते हैं. बचपन में केमेस्ट्री में एटम्स के बारे में जरूर पढ़ा होगा जो किसी तत्व का सबसे छोटा भाग होता है. वैसे ही ये डॉटस एक इमेज का हिस्सा होते हैं. एक मेगापिक्सल मतलब एक मिलियन छोटे-छोटे रंगीन डॉटस. अब सोचिए यदि एक फोटो 10 मेगापिक्सल की है तो कितने रंगीन डॉटस उस फोटो के अंदर होंगे. यहां एक बात आपको जानना बहुत जरूरी है कि बहुत ज्यादा पिक्सल का मतलब अच्छी फोटो नहीं है. इसी स्टोरी में जब हम मेगापिक्सल का गणित बताएंगे तब आपको और समझ आएगा. एचडीआर हाई डायनमिक रेंज एक सॉफ्टवेयर बेस्ड फीचर है. आसान भाषा में समझें तो तेज धूप में यदि आप फोटो ले रहे तो मुमकिन है छांव वाला एरिया बेरंग या काला नजर आए और छांव पर फोकस किया तो धूप वाला एरिया सफेद व चमकदार नजर आने लगे. ऐसी परिस्थिति में एचडीआर मोड काम आता है. इस मोड में बहुत सारे इमेज से मिलाकर एक फाइनल इमेज तैयार की जाती है. आमतौर पर एचडीआर को नॉर्मल कंडीशन में इस्तेमाल करने की सलाह नहीं दी जाती. हां, रोशनी का बैलेंस बनाना है तो एचडीआर मोड बढ़िया है. पोर्ट्रेट मोड पोर्ट्रेट मोड या बोकेह मोड. बोकेह एक जापानी शब्द है जिसका मतलब है ब्लर या आउट ऑफ फोकस. स्मार्टफोन कैमरे में ये इफेक्ट सॉफ्टवेयर की मदद से बनाया जाता है. वहीं डीएसएलआर कैमरे में इसको मैनुअली सेट किया जा सकता है. इस मोड का काम है सब्जेक्ट को छोड़कर बाकी सब ऑब्जेक्ट को आउट ऑफ फोकस रखना. अब कैमरा इसको जितने अच्छे से निभा पाएगा, पोट्रेट इमेज उतनी बढ़िया आएगी.

पोर्ट्रेट मोड
नाइट मोड नाइट मोड एक सॉफ्टवेयर मतलब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) बेस्ड फीचर है. AI के साथ दरवाजा भी नाइट मोड में अच्छी फोटो के लिए जरूरी है. दरवाजा बोले तो अपर्चर. अब सेल्फ़ी कैमरे में अपर्चर कम है तो अच्छी फोटो आने की संभावना ज़्यादा है. मेगापिक्सल (Megapixel) अभी तक आप ये जान चुके हैं कि पिक्सल बहुत से रंगों का संयोजन है. जितने ज्यादा पिक्सल मतलब उतने ज्यादा रंग. मेगापिक्सल, मिलियन पिक्सल का शॉर्ट फॉर्म समझ लीजिए यानी एक मेगापिक्सल का कैमरा है तो फोटो में दस लाख पिक्सल या रंगों का संयोजन होगा. पिक्सल एक सेंसर है जो किसी भी कैमरा यूनिट में सबसे आखिर में लगा होता है और ये छोटे-छोटे डॉटस अपने आप में सक्षम हैं किसी भी जानकारी को कैद करने में. जब भी किसी कैमरे से फोटो ली जाती है तो ये पिक्सल सभी जानकारी जैसे लाइट, रंग या कॉन्ट्रास्ट को इकट्ठा करते हैं तब जाकर एक फोटो बनती है. यहां से तो एक बात समझ आती है कि जितने ज्यादा पिक्सल होंगे उतनी बढ़िया फोटो आएगी. दरअसल ऐसा होता नहीं है, क्योंकि अच्छी फोटो के लिए ज्यादा पिक्सल अकेले जिम्मेदार नहीं हैं. हां पिक्सल ज्यादा है तो जानकारी भी ज्यादा कैप्चर होगी. जब आप उस इमेज को जूम करके देखेगे तो सारे डिटेल बारिकी से नजर आएंगे.
स्मार्ट ओवन बनाने वाली कंपनी "जून" के सीटीओ निखिल भोगल इसके बारे में बताते हुए कहते हैं कि पिक्सल की क्वांटिटी से ज्यादा उनकी क्वालिटी जरूरी है एक बढ़िया फोटो के लिए. भोगल पहले Apple में कैमरा तकनीक पर काम करते थे. टाइम में छपे एक आर्टिकल में भोगल कहते हैं कि स्मार्टफोन में पिक्सल को ठूंस-ठूंस कर भरने से अच्छा है उनको बड़ा किया जाए. भोगल कहते हैं कि जैसे एक बाल्टी बारिश का पानी इकट्ठा करती है वैसे बड़े पिक्सल लाइट जैसी जानकारी को इकट्ठा करते हैं. अब बड़ी बाल्टी बड़ी बूंदों को इकट्ठा करती है. जाहिर सी बात है पिक्सल भी वैसे ही काम करते हैं. हाई क्वालिटी पिक्सल फोटो में कम पड़ने वाली लाइट की कमी को पूरा करते हैं जिसको कैमरे की भाषा में नॉयज़ कहा जाता है. आसान शब्दों में कहें तो कैमरे का सेंसर तो छोटा है लेकिन उसमें पिक्सल जबरदस्ती भरे जा रहे हैं तो परिणाम क्या ही निकलेगा. ठूंस-ठूंस कर भरे पिक्सल सही जानकारी इकट्ठा नहीं कर पाएंगे और नतीजतन फोटो अच्छी नहीं आएगी.
साफ बात है कि सिर्फ मेगापिक्सल एक अच्छी फोटो के लिए जरूरी नहीं, बल्कि कैमरे का सेंसर (अपर्चर), ऑप्टिकल जूम से लेकर OIS और अंत में एक बढ़िया सा सॉफ्टवेयर मिलकर एक अच्छी फोटो जनरेट करते हैं. इसलिए अगली बार मेगापिक्सल के फेर में मत पड़ें, बल्कि सभी फैक्टर्स देख कर अपने लिए फोन सेलेक्ट करें.