क्या बीजेपी आलाकमान ने प्रेम कुमार धूमल को सेट कर दिया है?
हिमाचल प्रदेश चुनाव: हमीरपुर की सुजानपुर सीट से ग्राउंड रिपोर्ट.

कांगड़ा के राजा रहे संसारचंद का एक ठिया था सुजानपुर. यहां का चौगान मैदान वो जगह है, जहां राजा प्रजा के साथ होली खेलने आता था. मैदान आज भी है. एक हिस्सा सैनिक स्कूल के पास. बाकी जनता के पास. जनता खूब जुटती है यहां. हर वक्त. क्योंकि किनारे ही बस स्टैंड भी है और भरा-पूरा बाज़ार भी. इसी बाज़ार में हम सुजानपुर कस्बे के लोगों से मुखातिब हुए. ढलती शाम के वक्त. ज्यादातर एक स्वर में कह रहे थे कि धूमल जी बड़े नेता हैं. मुख्यमंत्री रहे, मगर सुजानपुर ने उनके ज्यादा दर्शन नहीं किए. ऐसा क्यों कहा जा रहा है. क्योंकि सुजानपुर नई बनी विधानसभा है. साल 2012 में अस्तित्व में आई. और तब यहां से बीजेपी के टिकट पर प्रेम कुमार धूमल नहीं, उर्मिल ठाकुर चुनाव लड़ी थीं.

बीजेपी ते पूर्व सीएम प्रेम कुमार धूमल
उर्मिल ठाकुर धूमल के राजनीतिक गुरु रहे हमीरपुर के कद्दावर नेता जगदेव चंद की बहू हैं. वो बुरी तरह हारीं. तीसरे नंबर पर रहीं. दूसरे पर रहीं कांग्रेस की अनीता वर्मा और अव्वल नंबर पाया कभी धूमल के बेहद करीबी रहे राजिंदर राणा ने. हालांकि दो साल में तस्वीर बदल गई. लोकसभा चुनाव से पहले राजिंदर राणा ने विधायकी छोड़ दी. सांसदी के वास्ते. ऐसे में लोकसभा के साथ विधानसभा के चुनाव हुए. लोकसभा में राणा कांग्रेस के टिकट पर धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर के खिलाफ उतरे. 80 हजार से ज्यादा वोटों से हारे. उधर विधानसभा उपचुनाव में उनकी पत्नी अनीता राणा पंजा निशान पर उतरीं. मगर वो भी करीबी मुकाबले में जगदेव चंद के बेटे नरिंदर ठाकुर से हार गईं.

बीजेपी से पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार (बाएं ऊपर), केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा (बाएं नीचे) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (दाएं)
तो धूमल कहां से चुनाव लड़े थे पिछली बार. हमीरपुर सदर की सीट से. लेकिन इस बार पार्टी आलाकमान ने अदला-बदली करवा दी. हमीरपुर से नरिंदर ठाकुर को टिकट दिया और सुजानपुर से धूमल को. क्यों? इसकी कई थ्योरीज इलाकों में घूम रही हैं. एक के मुताबिक प्रेम कुमार धूमल को लेकर आलाकमान स्पष्ट नहीं है. होता तो उन्हें सीएम का फेस घोषित करता. जैसा पिछले तीन चुनावों में किया था. मगर धूमल की हर जिले में अपनी टीम है. पकड़ है. ऐसे में उन्हें सिरे से किनारे भी नहीं किया जा सकता था. इसलिए पार्टी पोस्टरों में मोदी और शाह के बाद पहला चेहरा उनका ही है. उसके बाद पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार और मोदी सरकार के मौजूदा कैबिनेट मंत्री जगत प्रकाश नड्डा का चेहरा आता है.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा
दूसरी थ्योरी ये है कि अगर धूमल को सुजानपुर से न लड़ाते, तो ये सीट पक्का निकल जाती हाथ से. राजिंदर राणा निर्दलीय लड़कर बड़े अंतर से जीते थे. ऐसे में उन्हें रोकने के लिए कोई हैवीवेट चाहिए था. नरिंदर ठाकुर ने, जो सुजानपुर के सिटिंग विधायक हैं और अब हमीरपुर से मैदान में हैं, खुद प्रकारांतर से ये बात स्वीकार की. एक टीवी चैनल की डिबेट में वो बोले, 'हमीरपुर तो आसान दिख रहा है, सुजानपुर में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती.'
एक थ्योरी ये भी है कि अगर धूमल विधायक ही नहीं बन पाएंगे, तो सीएम की दावेदारी कैसे करेंगे. क्या ये मुमकिन है? सियासत है. कुछ भी हो सकता है. पहले भी मुख्यमंत्री चुनाव हारे हैं. खुद भाजपा के शांता कुमार 1993 में एक निर्दलीय से हारे थे. शीला दीक्षित और बीसी खंडूरी का उदाहरण भी सामने है.
शांता का जिक्र तो चौगान मैदान में मिले एक बुजुर्ग सुभाष भी करते हैं. उनके मुताबिक जब हिमाचली अपने पर आता है, तो कद नहीं देखता. थ्योरीज का आखिरी लत्ता भी थाम लीजिए. इसके मुताबिक राजिंदर राणा धूमल के सारथी रहे. उन्हीं के आशीर्वाद से इतना पढ़े. 2012 में उसी दम पर निर्दलीय होकर भी जीते. आलाकमान को लगा कि धूमल खेमा इस बार फिर राणा को वॉकओवर दे देगा, तो इसकी काट क्या हो. गुरु को ही चेले के सामने खड़ा कर दो.

चुनाव प्रचार के दौरान राजिंदर राणा
मगर प्रेम कुमार धूमल को हराना इतना आसान है क्या? जवाब है 'नहीं'. एक दौर था, जब धूमल चुनाव जीतते भी थे और हारते भी. इसकी शुरुआत हुई थी 1984 में. जालंधर से पढ़ाई-लिखाई, कॉलेज की लेक्चररी और LIC एजेंट का काम करने के बाद धूमल भाजपा संगठन की राजनीति करने लगे थे. शुरुआत कांगड़ा के नेता और शांता खेमे से जुड़े राजन सुशांत के साथ जुड़कर की. फिर हमीरपुर के दिग्गज जगदेव चंद की शरण में आ गए. धूमल का गांव समीरपुर भी इसी जिले में लगता है. जगदेव के आशीर्वाद से ही लोकसभा का टिकट पाए.
पार्टी हमीरपुर के सिटिंग विधायक जगदेव चंद को लड़वाना चाहती थी, मगर उन्होंने इस नए लड़के का नाम आगे बढ़ाया. धूमल इंदिरा लहर में हार गए, मगर नेता बन गए. फिर 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली मर्तबा जीते. 1991 भी जीते, मगर 1996 में फिर इस सीट से हार गए. लेकिन तब तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बन गए थे और इसके बाद उन्होंने व्यक्तिगत हार को बाय-बाय कह दिया.
पहले नरेंद्र मोदी के आशीर्वाद से शांता कुमार को पछाड़ सीएम बने, फिर लगातार मुख्यमंत्री या नेता प्रतिपक्ष रहे. इसके लिए विधायकी जरूरी थी, जो उन्हें हासिल होती थी हमीरपुर की ही बमसन सीट से. बीच में एक अंतराल आया, जब 2007 में वो लोकसभा के लिए हुए उपचुनाव में खड़े हुए और जीते. मगर फिर कुछ ही महीनों बाद वापस विधानसभा आ गए दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने. और अपनी खाली की सीट पर बेटे अनुराग ठाकुर की राजनीतिक बोहनी करवा दी.

अनुराग ठाकुर, जिनका सियासत से क्रिकेट की पिच तक बराबर नाता है
लेकिन 2012 में हुआ परिसीमन और बमसन सीट खत्म हो गई. नई सीट बनी सुजानपुर. बमसन के 92 में से 47 बूथ सुजानपुर के हिस्से आए, 35 भोरंज में गए, बाकी हमीरपुर. और धूमल भी हमीरपुर चले गए. जगदेव चंद के बेटे नरिंदर ठाकुर कांग्रेस से उनके खिलाफ ताल ठोंक रहे थे. उन्हें 9 हजार से ज्यादा वोटों से हराया. फिर ठाकुर को वापस भाजपा में ले आए और सुजानपुर से लड़वाया. अब जब धूमल खुद लड़ रहे हैं यहां से, तो उन्हें सबसे ज्यादा भरोसा बमसन से सुजानपुर में आए बूथों का है.
वो खुद तो चुनिंदा जगह ही प्रचार कर रहे हैं. पार्टी आलाकमान ने एक चॉपर दे रखा है, जो उन्हें रोज उनके पैतृक गांव समीरपुर से उठाता है. प्रदेश भर में रैलियां करते हैं. शाम तक वापस आ जाते हैं. उनका कैंपन संभाल रहे हैं छोटे बेटे अरुण ठाकुर. प्रकट तौर पर राजनीति से दूर हैं. बिजनेसमैन हैं. राजनीति के वारिस वाला टिक अनुराग ठाकुर के नाम के आगे लगा है. वो हमीरपुर से सांसद हैं. भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं और उन दिनों की बनी टीम यहां खूब सक्रिय है. हमें टेरा गांव के आसपास ऐसी ही एक टीम मिली. दिल्ली से आई हुई. युवा मोर्चा वालों ने बताया कि 10 वॉर्ड बांटकर सभी को जिम्मेदारी दी गई है.
सुजानपुर में अगर आप धूमल के पोस्टर देखें, तो चुनाव का सीएम एंगल और साफ होता है. जैसे बिलासपुर में पूरा चुनाव नड्डा के इर्द-गिर्द लड़ा जा रहा है, वैसे ही हमीरपुर में धूमल केंद्र में हैं. पोस्टर में धूमल का चेहरा है और ऊपर लिखा है, अबकी बार-भाजपा सरकार. संदेश ये कि जो सरकार बनेगी, तो धूमल ही होंगे उसके सरकार. मगर उसके लिए विधायकी चुनाव की बाधा दौड़ अभी बाकी है.
राजिंदर राणा धूमल से क्यों अलग हुए. इस सवाल के जवाब में वादियों की धुंध में लिपटी अस्पष्ट तस्वीर सामने आती है. राणा का गांव पटलांदर हमीरपुर से सुजानपुर के रास्ते में आता है. मगर उन्होंने कारोबार जमाया चंडीगढ़ में. पहले एक प्रिटिंग प्रेस थी. धूमल के साथ आए, तो तरक्की की. प्रॉपर्टी डीलिंग में खूब सक्रिय हुए. धूमल की पिछली सरकार में उन्हें लाल बत्ती मिली. मीडिया सलाहकार का ओहदा. लेकिन 2010 में शिमला के एक होटल में पड़ी रेड ने सब बदल दिया. किसी ने सेक्स स्कैंडल कहा, किसी ने पॉलिटिकल सैटलमेंट. किसी ने कहा कि राणा को बलि का बकरा बनाया गया. पर आखिरी में हुआ ये कि राणा की धूमल खेमे से विदाई हो गई. प्रकट तौर पर.

राजिंदर राणा (बाएं) और कांग्रेस नेता सतपाल सिंह रायजादा (दाएं)
राणा ने इसके बाद भी सियासत जारी रखी. एक NGO बनाया. सर्वकल्याणकारी संस्था के नाम से. और इसी के बैनर तले सुजानपुर में अपना पैरलल संगठन खड़ा कर लिया. इसका असर पिछले विधानसभा में दिखा. लेकिन इस दौरान कभी भी राणा और धूमल ने एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमले नहीं किए. अब ये मंज़र बदलता दिख रहा है. एक स्थानीय पत्रकार के मुताबिक राणा अभी तक सब्र किए हैं. धूमल ने एक रैली में अपनी सीट की लड़ाई को शेर और चूहे की लड़ाई कहा, मगर राणा अब भी पुरानी भाजपा का अदब कर रहा है. भाजपा दफ्तर के सामने से भी निकलता है, तो रामजुहारी करते हुए.
ये राम-राम राणा की ताकत है. धूमल बड़े नेता हैं, पूरा प्रदेश देखना है. अनुराग ठाकुर के सामने तो शिमला के साथ-साथ दिल्ली की पॉलिटिक्स भी है. और वो क्रिकेट प्रशासन में भी व्यस्त रहे. मगर राणा विधानसभा में लगातार सक्रिय रहे और उपस्थित रहे. इसकी तस्दीक गांव के लोगों ने भी की और कस्बे के भी.
और इसी बिना पर सुजानपुर का मुकाबला दिलचस्प है. इलाकाई राजनीतिक पंडितों की मानें, तो आखिर में धूमल आखिरी चुनाव जैसे किसी नारे का वास्ता देकर आराम से पार निकल जाएंगे. मगर राजिंदर राणा अपने गुरु को दक्षिणा में यूं ही जीत नहीं दे देंगे.
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