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एक कविता रोज: प्रकाश की कविताएं

वो कवि, जो भद्रलोक-शासित साहित्य जगत में स्वीकृति नहीं पा सका. जनवरी 2016 में अपनी जान ले ली.

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10 जून 2016 (Updated: 10 जून 2016, 11:26 AM IST) कॉमेंट्स
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हिंदी कवि प्रकाश ( 11 नवम्बर 1976 - 24 जनवरी 2016 ) ने कलकत्ता के निकट अपने पैतृक गांव टीटागढ़ में आत्महत्या कर ली. दस सालों से वह आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान में बहुत ही कम वेतन पर एक अस्थायी नौकरी कर रहे थे. इन वर्षों में उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा पूरी करने के साथ-साथ पीएचडी भी हासिल कर ली थी. उनकी दो किताबें छपी थीं-‘होने की सुगंध’(कविता-संग्रह) और ‘कविता का अशोक पर्व’ (अशोक वाजपेयी की कविता पर शोध-ग्रंथ). प्रकाश को 2000 में हिंदी कविता के लिए नागार्जुन पुरस्कार, 2012 में भारतीय भाषा परिषद् का युवा पुरस्कार और उत्तर प्रदेश सरकार का अक्षय पुरस्कार मिला था. लेकिन भद्रलोक-शासित साहित्य जगत में स्वीकार किया जाना उनके लिए एक स्वप्न ही बना रहा. वह कोई रेडिकल नहीं थे - बल्कि अपनी जातिगत जड़ों को प्रदर्शित करने में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी और वह सिर्फ ‘प्रकाश’ नाम का इस्तेमाल करते थे. इस सबका कोई फायदा नहीं हुआ, उनके वास्ते कोई दरवाजे नहीं खुले. वह उसी जगह रहे जहां से उन्होंने शुरू किया था - हिंदी के एक संस्थान में एक बेठिकाना अस्तित्व. प्रकाश अपने पीछे युवा पत्नी और एक नन्ही बेटी छोड़ गए हैं. -असद ज़ैदी
प्रकाश की कविताएं

1.जल का जल

भीगकर जल जल होता जाता था जल उस पर धार-धार बरसता वह भीगकर घुलता जाता था वह जल में डूबता था जल का एक सरोवर उठता था जब सरोवर में केवल सरोवर रह जाता था जल सरोवर को उत्सुक देखता था उसे जल में कुछ विस्मय नजर आता था झिझकते हुए वह जल को छूता था सरोवर मुखौटा हटाकर जोर से ठहाके लगाता था लजाकर मुस्कुराता हुआ जल हथेलियों से मुंह छिपा लेता था!

2.नींद की नदी

किसी एक की नींद में बुदबुदाता हुआ मैं अपनी नींद में सपने में जागता था उस एक की नींद भरा कलश था जिससे उबल-उबलकर जल बहता था उबलना बुदबुदाना था कलश के पूर्ण आकाश में मैं तारों-सा झिलमिलाता था उसकी नींद में उबलता जल-सा बुदबुदाता बहकर मैं अपनी नींद में गिरता था नींद एक नदी थी अपनी नींद में बहता हुआ मैं सपने में एक सागर में जागता था!

3.हरा नृत्य

वृक्ष का हरा वृक्ष में नृत्य करता था नृत्य की थिरकन से कांपकर उस पर आया एक पक्षी मुड़कर वापस आकाश में उड़ जाता था हरे का रस उसकी पुतलियों में दिप कर उसे पास बुलाता था वह अपने पंखों और हवा के साथ नृत्य करता हुआ पुनः वृक्ष के हरे पर उतरता था हवा की बांह में वृक्ष और चिड़िया के हरे का युगल नृत्य एक समय में अहर्निश होता था नृत्य को मुस्कुराता हुआ ऊपर से आकाश निहारता था नीचे हिलता हुआ तरल जल चुपचाप बहता था!

4.जर्जर दरवाजा

उस एक में दूसरा छिपा हुआ था एक दरवाजा था दूसरा जर्जर मैं एक को देखता तो दूसरा नहीं दिखता था पहले को नहीं देखता तो दूसरा साफ दिखता था दोनों को साथ नहीं देख सकता था इसलिए दोनों होने न होने के मुमकिन के साथ होते थे दोनों एक दूसरे में भीतर-बाहर आगे-पीछे छिपे हुए थे मैं चारों ओर घूमकर भीतर-बाहर उनसे निकलना चाहता था वहां पहला खड़ा था दूसरे का चेहरा पहनकर दूसरा पहले का नहीं अपना ही चेहरा पहनकर पहले के आगे खड़ा था दोनों दूसरे थे और पहला कोई नहीं होता था पहला जहां खड़ा था वहां दूसरे की शक्ल खड़ी थी उस एक में दूसरा जाता हुआ दिखाई देता उस एक से पहला आता हुआ दिखाई देता था उनमें से कोई सचमुच बाहर नहीं आता-जाता था बाहर मैं खड़ा किसी तीसरे को पुकारना चाहता था मैं कुछ उचारता कि अचानक: वह ढहता हुआ मकां मुझे दिखाई देता था मैं जिस दृश्य से आविष्ट था वही दृश्य ढहकर मुझ पर गिर रहा होता था मैं एक टूटता हुआ दरवाजा और चरमराता हुआ जर्जर देखता था भागकर मैं एक के पीछे छिपे दूसरे की ओर दौड़ता था वहां दरवाजा टूटकर गिरा होता था जर्जर

5. ध्वनि-स्नान

शांत सुबह के दृश्य में आकर प्रशांत उच्चारता था : ‘अ!’ मैं ध्वनि में ‘अ!’ देखता था ‘अ!’ दृश्य में घिर जाता था दृश्य के बाहर सघन निविड़ में प्रशांत अनुच्चारता था : ‘अ!’ अनुच्चरित ‘अ’ नहीं दिखता था मैं ‘अ’ का स्मरण करता था! प्रशांत अनुच्चार के भी बाहर हो जाता था असहाय में ‘अ’ का स्मरण भूल जाता था अब ‘अ’ हर कहीं अनुपस्थित होता था मैं विस्मय से कांप उठता था विस्मय में प्रशांत आहिस्ते पांव धरता था एक कांपता ‘अ’ कंपाता मुझको मुझमें उतरने लगता था मैं ‘अ’ के होने को ‘अ’ होकर सुनने लगता था सुनते ही ‘अ’ मुझमें - ‘अ’ में गूंजने लगता था ‘अ’ मुझमें - ‘अ’ में - झिरने, उतरने लगता था डूबकर ‘अ’ मुझमें - ‘अ’ में - घुलने, पसरने लगता था प्रशांत पूछ लेता था: ‘कहां?’ मैं चुप ‘अ’ में स्नान करता था शंका से प्रशांत पूछता था: ‘कौन’? उच्चार उठता था: ‘अ’ (प्रकाश की ये अंतिम कविताएं साहित्यिक मासिक 'पाखी' से साभार)
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