'मैं कविता लिखती नहीं, वो मुझे मिलती है, डिक्टेशन की तरह'
एक कविता रोज में पढ़िए राज कुमारी की कविताएं.
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फोटो - thelallantop
किसी की कविताएं पढ़ाने के पहले हम आपको उनका छोटा सा परिचय पढ़ाते हैं. लेकिन इस बार हमारी कवि ने अपना परिचय खुद लिख भेजा है. एक कविता रोज में पढ़िए राज कुमारी की कविताएं.अपना परिचय लिखने या बोलने की बात अब बड़ी अटपटी सी लगती है. क्या मैं जानती भी हूं? मुझे नहीं पता. हां, मेरे द्वारा लिखी कविताओं का परिचय मुझे बेहतर पता है, क्योंकि मुझे ये पता है कि वो मैं नहीं लिखती, मुझे दी जाती हैं. और मैं पूरी ईमानदारी से डिक्टेशन लेने की कोशिश करती हूं. लिखते वक्त जो लाइन लिख रही हूं, उसके बाद क्या आने वाला है, मुझे नहीं पता होता. और पूरी कविता की थीम क्या बनने वाली है, मुझे कोई खबर नहीं होती. और जब ये खबर लेने की कोशिश में मेरा दंभ कभी घुस जाता है, तो कविता नहीं होती. ये अलगाव इतना साफ़ और सरल होता है पहचानने में. इसलिए मैं अपने अनुभव के तौर पे, मेरी लिखी कविताओं का ये परिचय दे सकती हूं. और ज़ाहिर सी बात है, जो पूरा मेरा नहीं, वो सबका हो सकता है. वो किसका है, किसको पता? जिसको अपना सा लगे, उसका है.
रही मेरी बात, तो कुछ पड़ाव जो पार हुए हैं और परिचय कह कर बताये जाते हैं, मैं भी उनको बता सकती हूं बस. मेरी पढ़ाई पहले इंजीनियरिंग की रही है. फिर उकता मैंने प्रोडक्ट डिज़ाइन को अपनाया. नौकरी भी की कुछ साल. फिर उकता कर अब कुछ नहीं करके देखना शुरू किया. तब से मेरा सेल्फ हीलिंग का सफ़र चल रहा. जो भी तरीके मुझ तक आते गए, मुझको खींचते गए, मैं अपनाती गई. और सबने दोस्ती निभायी है अपनी हद तक, ईमानदारी से, अब ये बात भी समझ आती है. समय के बीतने का ये फायदा तो होता ही है. और ये भी समझ आता है कि सफ़र में हूं. जो गुज़रा है या गुजरने वाला है, वो कविता की शक्ल में दिया जाता है मुझे. इसलिए बहुत बार मुझे मेरे ही लिखी लाइनें, महीनों-सालों बाद समझ आती हैं क्योंकि उनके घटने का समय बाद में आया होता है. तो किस मुंह से कहूं कि मैंने लिखी है? मेरे पास ये कहने की रत्ती भर भी जगह नहीं. उम्मीद है आप समझेंगे.
- राज

फोटो: मियां मिहिर
1. कविता के होने पे
हाथों पे आ बैठती है तितली की तरहरंग कुछ पंख के झड़ जाते हैं कागज़ पे मेरे
गुमां में नाम मैं अपना नीचे लिख देता हूं
2.उम्र हुए जूतों की आज़ादी
मैं उम्र के पड़ाव में आखरी दाव में पड़ा जूता हूं तुम्हारे पावों की नाप वाला पर थोड़ा खुला सारी तकलीफों की झुर्रियों को सहेजता चला जा रहा हूंतुम बदल दोगे मुझे ये पता है मैं भी आराम चाहता हूं पर तुम्हारी विरासत मेरे पास अटकी है चिपकी है मुझसे जो तुम्हें लेनी ज़रूरी है इसलिए हर बार तुम्हें बहला कर मैं मोची के पास ले जाता हूं
तुम्हें लगता है तुम मुझे सिलवा रहे हो मुझे पता है मैं तुम्हारी विरासत बचा रहा हूं जो लेनी, तुम्हें ज़रूरी है
अपनी लाइब्रेरी में रखने के लिए नहीं बल्कि कभी आराम से बैठ कर उसे पलटने के लिए सिलाइयों के बीच झुर्रियों की दबी सांसें सुनने के लिए बहुत कुछ है उनके पास तुम्हें कहने को सुनो तो! बहुत जानती हैं वो तुम्हें!
उन झुर्रियों के मुड़े चुड़े सपहे पढ़ना कभी तो आज से कल और कल, कल करते उस नदी तक पहुंचोगे तो बह रही है निरंतर तुम्हारे भीतर
बस वहीं पहुंचना है तुम्हें सारे रास्ते, सारी झुर्रियां और सारे जूते इसलिए बनाये थे तुमने
ज़रा सुनो तो ज़रा देखो तो झुर्रियां कुछ कहना चाहती हैं जो तुम्हारे लिए जानना निहायत ज़रूरी है
***
3. बहना
ये क्या है जो बह रहा है मेरे अंदर से मेरा है भी या बस यूं ही चला आया इस रस्तेये 'मेरा' क्या है? बहने में! कोई मायने हैं क्या इसके? नदी के बहने में नदी का क्या है? बहने के अलावा
कुछ अपना होने का अस्तित्व बहने में हो ही नहीं सकता बहने में बस, बहना हो सकता है निरंतर, निर्बाध, निडर... सब एक ही तो है! सब बहना ही तो है!
पर आदमी नदी नहीं आदमी तो किनारा है जिसे बहने देना है हर हाल में चाहे आए या न आए चाहे खुद कट कर सीखना पड़े जो भी बहना शुरू हुआ है उसे बस, बहने देना है
पत्थर रखने और पत्थर हटाने के खेल खेलना चाहे तो बेशक खेल सकता है थकने तक थक कर चूर होने तक पर उस थकान के चरम पर भी नदी पत्थर के बीच से रास्ता निकाल, गुज़र जाती है हौले से बस ये कहते हुए कि 'बहने दो'
और अचानक थक कर चूर होना सुकून में बदल जाता है वरदान में बदल जाता है
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4. ठहरना
ठहर पाती तो रुक जातीरुक जाती तो झुक जाती
झुक जाती तो दिख जाते
अपने ही कदम उस राह पे जाते जहाँ पे तुमको टोका था
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5. आश्चर्य
डर छोड़ने का रस्ता डर की गली से गुज़रासुना नहीं था ऐसा पढ़ा नहीं था ऐसा देखा तो था शायद समझा नहीं था ऐसा
छोड़ने का रस्ता आलिंगन बन गया
उम्मीद न थी ऐसी मैं मानती भी कैसे?
अब मान जो लिया है तो सोच में पड़ी हूँ कैसे अलग किया था?
पानी से बहने को जीने से मरने को होने से करने को