'जहां-जहां मौसमों ने मारे थे अपने पंजे, वहां-वहां मोम भर के रौग़न लगा रहा था'
गुलज़ार की पंद्रह पांच पचहत्तर किताब से पढ़िए 2 कविताएं.
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फोटो - thelallantop

'पन्द्रह पांच पचहत्तर' से दो कविताएंख़याल को वुजूद देके, उसको ढूंढते रहे! ख़याल को वुजूद देके, उसको ढूंढते रहे वुजूद जो ख़याल था! दुआएं फूंकते रहे, धुएं में हम कि आग की लपट उठे तो थाम लें उसे तुम्हारा नाम दें पहाड़ों की गुफ़ाओं में... किसी ने जुस्तजू जलाके रक्खी थी और इन्तेज़ार के लिए, समय की इन्तेहा हटाके रक्खी थी इबादतें तराशें पत्थरों पे और घर बना लिए ख़याल के पनाह के लिए, बस एक उम्मीद के गुनाह के लिए. तमाम शब जली है शमा हिज्र की... उम्मीद भी बची है तो बस इतनी, जितनी एक बांझ कोख की उम्मीद हो!!
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पहाड़ के उस तरफ़ था दरिया… पहाड़ के उस तरफ़ था दरिया मैं इस तरफ़ अपनी कश्ती तैयार कर रहा था मैं बांधकर गठरियां दिनों की कनस्तरों में ज़रूरतें शब की भरके सब जम’आ कर रहा था अनाज भी था, चराग़ भी थे, लिबास भी, ओढ़ने-बिछाने के सारे सामां. खजूर के पात छील कर मैं चटाई की छाज डालकर छत बना रहा था सफ़र पे निकलूंगा जब, तो छांव ज़रूरी होगी! दरख़्तों से बांध-बांध कर कश्ती खैंचता था पहाड़ पे चढ़के... सोचता था मैं उस तरफ़ की ढलान पे डाल दूंगा कश्ती. जहां-जहां मौसमों ने मारे थे अपने पंजे वहां-वहां मोम भर के रौग़न लगा रहा था हवाओं के नाखूनों ने फाड़े थे बादबां, जो कभी खुले थे नई-नई टाकियां लगा के मैं सी रहा था. अजब हुआ एक रात लेकिन लगा कि वो दरिया चढ़ रहा है मैं दूर था अपनी कश्ती से और मेरे पतवार भी अभी पेड़ पर टंगे थे मैं डूबने वाला था कि दरिया ने आके मुझको उठा लिया और पहाड़ के पार ले गया वो बहाके मुझको! पहाड़ के उस तरफ़ था दरिया पहाड़ के उस तरफ़ मैं दरिया पे बह रहा हूं!!