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'जहां-जहां मौसमों ने मारे थे अपने पंजे, वहां-वहां मोम भर के रौग़न लगा रहा था'

गुलज़ार की पंद्रह पांच पचहत्तर किताब से पढ़िए 2 कविताएं.

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23 अगस्त 2016 (Updated: 23 अगस्त 2016, 01:34 PM IST) कॉमेंट्स
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गुलज़ार… वो जो किसी की कमर के बल पर नदी को मोड़ देता है. वो जो किसी की हंसी सुनवा के फ़सलों को पकवा देता है. वो जो गोरा रंग देकर काला हो जाना चाहता है. वो जिसका दिल अब भी बच्चा है. वो जिसके ख्वाब कमीने हैं. वो जो ठहरा रहता है और ज़मीन चलने लगती है. वो जो है तो सब कोरमा, नहीं हो तो सत्तू भी नहीं. वो जिसे अब कोई इंतज़ार नहीं. जन्मदिन का दिन गुजर गया, पर दिन अब भी गुलज़ार है. वाणी प्रकाशन को थैंक्यू, उन्ही से साभार हम आपको उनकी रचनाएं पढ़ा रहे हैं. gulzar bookगुलज़ार का कविता संग्रह है पंद्रह पांच पचहत्तर. 144 पेज की इस किताब को वाणी प्रकाशन ने छापा है. पेपरबैक की कीमत 295 रुपये और हार्डबाउंड की कीमत 400 रुपये है. सर्च करने में आसानी रहे इसलिए ISBN नंबर पर लिख लो- 978-93-5229-156-4. अब सीधा कविता की तरफ बढ़िए.
'पन्द्रह पांच पचहत्तर' से दो कविताएंख़याल को वुजूद देके, उसको ढूंढते रहे! ख़याल को वुजूद देके, उसको ढूंढते रहे वुजूद जो ख़याल था! दुआएं फूंकते रहे, धुएं में हम कि आग की लपट उठे तो थाम लें उसे तुम्हारा नाम दें पहाड़ों की गुफ़ाओं में... किसी ने जुस्तजू जलाके रक्खी थी और इन्तेज़ार के लिए, समय की इन्तेहा हटाके रक्खी थी इबादतें तराशें पत्थरों पे और घर बना लिए ख़याल के पनाह के लिए, बस एक उम्मीद के गुनाह के लिए. तमाम शब जली है शमा हिज्र की... उम्मीद भी बची है तो बस इतनी, जितनी एक बांझ कोख की उम्मीद हो!!

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पहाड़ के उस तरफ़ था दरिया… पहाड़ के उस तरफ़ था दरिया मैं इस तरफ़ अपनी कश्ती तैयार कर रहा था मैं बांधकर गठरियां दिनों की कनस्तरों में ज़रूरतें शब की भरके सब जम’आ कर रहा था अनाज भी था, चराग़ भी थे, लिबास भी, ओढ़ने-बिछाने के सारे सामां. खजूर के पात छील कर मैं चटाई की छाज डालकर छत बना रहा था सफ़र पे निकलूंगा जब, तो छांव ज़रूरी होगी! दरख़्तों से बांध-बांध कर कश्ती खैंचता था पहाड़ पे चढ़के... सोचता था मैं उस तरफ़ की ढलान पे डाल दूंगा कश्ती. जहां-जहां मौसमों ने मारे थे अपने पंजे वहां-वहां मोम भर के रौग़न लगा रहा था हवाओं के नाखूनों ने फाड़े थे बादबां, जो कभी खुले थे नई-नई टाकियां लगा के मैं सी रहा था. अजब हुआ एक रात लेकिन लगा कि वो दरिया चढ़ रहा है मैं दूर था अपनी कश्ती से और मेरे पतवार भी अभी पेड़ पर टंगे थे मैं डूबने वाला था कि दरिया ने आके मुझको उठा लिया और पहाड़ के पार ले गया वो बहाके मुझको! पहाड़ के उस तरफ़ था दरिया पहाड़ के उस तरफ़ मैं दरिया पे बह रहा हूं!!

कई किरदार अदा कर, मेरा अब 'मैं' कहां बाक़ी बचा है?

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