मेरे प्यारे देशवासियो, मेडल वही लड़कियां ला पाती हैं जो किसी के कहे पर कान नहीं धरतीं!
तुम्हारी हिपोक्रेसी की कोई सीमा है?
साल 2006-07. 9वीं में पढ़ने वाली एक लड़की अपनी साथियों के साथ स्कूल के ग्राउंड में खड़ी है. सामने मैदान में लड़कों के दो झुंड आपस में इस प्रतिस्पर्धा में जुटे हैं कि कौन फुटबॉल को हवा में ज्यादा उछाल सकता है. गोल की तरफ नहीं, ऊपर हवा में. जब फुटबॉल ऊंचाई माप रही है, लड़के जोरों से चीख रहे हैं. जैसे अभी फुटबॉल ऊपर से गुज़रते किसी प्लेन के डैने पर जा बैठेगी और किसी दूर जगह उतर जाएगी. उनका बस चले तो इसमें अपने-अपने प्रेमपत्र चिपकाकर उड़ा दें. क्या पता बॉल रास्ते में कहीं उनकी माशूका के घर सुस्ता ले. या सीधे चांद पर पहुंचकर दम ले, जिसके गड्ढों में उन्हें अपनी सद्यः यौवना प्रेमिका के चेहरे पर पड़े डिम्पल दिखाई दे जाया करते हैं. हमें न पता. हमसे पूछकर श्रृंगार रस के कवियों ने कुछ लिखा ही कहां.
तभी साइंस टीचर हुड़क कर कहती हैं,
“जाओ खेलो तुम लोग भी. ऐ सुनो लोग, इनको दो फुटबॉल. ये लोग खेलेंगी".
एक सुगबुगाहट सी उठती है लड़कों के बीच. ये खीज टीमों के बीच खिंची लकीर की परवाह नहीं करती. वो लकीर जन्मजात खींच दी गई लकीर के साथ चलती है. लड़कियां और फुटबॉल? हैंजी ऐसे कैसे?
पर मैडम की रेप्यूटेशन ऐसी कि कोई उनकी बात नकार नहीं सकता. तो लड़के फुटबॉल छोड़ देते हैं. और उत्सुकता में परे खड़े हो जाते हैं. देखें तो. कैसी लगती हैं लड़कियां ऐसे “मर्दाने खेल” खेलते हुए.
एक अनकहा सा नियम था. लड़के खेल के पीरियड में खेलने जाते, लड़कियां सीधे म्यूजिक रूम में. (सांकेतिक तस्वीर: Pexels)
लेकिन शायद मन ही मन उन्हें भी मालूम है. लड़कियों ने शायद फुटबॉल पहली बार पकड़ी हो, दुपट्टा वो तब से संभालती आई हैं, जब से पहली बार उनके घर में उन्होंने अपना शरीर बदलते हुए देखा था. बिंदी-लिपस्टिक लगाने से पहले उनके हाथों ने दुपट्टे में तह लगाना और पिन डालना सीखा था. ये भी कि धोने से पहले पिन उतार देना ज़रूरी है, ताकि कहीं सफ़ेद कपड़े पर मोरचे का रंग न लग जाए. ये भी कि बाहर निकलो, तो भले ही तुम्हारे “उरोज” “पुष्पित-पल्लवित” न हुए हों, उन्हें चार तहों में ढककर ही निकलना चाहिए. भले ही उन्हें उरोज का मतलब तब तक पता न हो, श्रृंगार रस लेखकों की बला से.
यूं ही दुपट्टा संभालती लड़कियां थोड़ी देर फुटबॉल के पीछे भागती हैं. उसके बाद थककर मैदान छोड़ देती हैं. म्यूजिक वाली मैडम का कमरा उनके लिए एक घर सरीखा महसूस होता है. जहां मैदान जैसी सख्ती नहीं. उम्मीदें हैं, पर कुछ और. वो चुपचाप अपने क्लासरूम्स में लौट जाती हैं. वो 9वीं क्लास की लड़की भी उनके साथ ही लौट आती है. अपने दुपट्टे पर नज़र फिराती हुई. जिसके तले ऐसा कुछ नहीं था जिसे छुपाने की सलाह उसे बरसों से दी जाती रही थी. लेकिन ये एक बात सीखने में अभी उसे बरसों लगने वाले थे.
उन्मत्त होकर खेल सकना, दौड़ सकना, भाग सकना, ये सभी कई लड़कियों के लिए लग्जरी थे. और ये किसी पुरातन समय की बात नहीं है. (सांकेतिक तस्वीर : Pexels)
ये एक छोटे से शहर के एक छोटे से स्कूल का नज़ारा है. ऐसा स्कूल, जो अपने नाम के अलावा लगभग हर शहर में बसता था. अब भी बसता है. और उसमें बसती हैं लाखों ऐसी लड़कियां, जिनको उनके शरीर के लिए तय कर दिए गए खांचों में बांध दिया गया. खांचे ऐसे भी, जिनमें उनकी किस्मत में नज़ाकत और बच्चे पैदा करने की उम्मीद बो दी गई. वो उम्मीद, जिसके परे उन खांचों के अस्तित्व को नकार दिया गया.
9वीं में पढ़ने वाली वो लड़की कॉलेज पहुंची. कॉलेज में रक्तदान करने का कैंप लगा था. लड़की भी हुचक के पहुंची. वहां एक टेबल के परली तरफ मौजूद व्यक्ति ने वज़न इत्यादि नापने के बाद कहा, हाथ आगे बढ़ाओ हीमोग्लोबिन चेक करना है. एक बार जांच करने के बाद वो आदमी झिझका. कहा, दूसरी उंगली दीजिए दुबारा चेक करना है. रीडिंग में 14 पढ़ने के बाद उसने आश्चर्य में सिर हिलाया. और वेरी गुड कहते हुए फॉर्म बढ़ा दिया. आश्चर्य के पीछे की वजह उस लड़की को कुछ देर बाद ही पता चलनी थी. लड़की ने रक्तदान किया. लेकिन उसके साथ की कई लड़कियां लौट गईं. या तो वज़न का क्राइटेरिया पूरा न करने की वजह से. या फिर हीमोग्लोबिन 12.5 से कम होने की वजह से. ये उस लड़की को नहीं पता था कि खून में ललाई लाने वाला हीमोग्लोबिन नाम का ये प्रोटीन उसके साथ पढ़ने वाली कई लड़कियों की रगों से महरूम है.
9वीं में पढ़ने वाली ये लड़की कोई भी हो सकती है. मैं. आप. एक पीढ़ी पहले आपकी मां. पड़ोस वाले राहुल भैय्या की पत्नी. कोई भी. चांस इस बात का ज्यादा है कि उस लड़की के आस-पास मौजूद हर दूसरी लड़की में खून की कमी होगी. इस मामले में 9वीं में पढ़ने वाली लड़की मैं हूं. और मैं ये दावे के साथ कह सकती हूं कि मेरी जानकारी में आने वाली तकरीबन 60 फीसद लड़कियां एनेमिक हैं. पढ़ी-लिखी, बेहतरीन नौकरियां करने वाली. कथित ‘अच्छे घरों’, ‘खाते-पीते घरों’ से आने वाली. ये भी तब जब उनमें से कुछ ने ही जांच करवाई है. या उनके एम्प्लॉयर्स ने उनका मेडिकल करवाया है. तब जाकर ये बात सामने आई.
रक्तदान से पहले आपके ब्लड का एक छोटा सैम्पल लिया जाता है. जिसका टेस्ट करके पता लगाया जाता है कि आपके भीतर हीमोग्लोबिन कितना है. (सांकेतिक तस्वीर: Pexels)
हमारे यहां अधिकतर औरतों का हीमोग्लोबिन 7 से 9 के बीच पाया जाता है. ये साधारण स्तर से काफी नीचे है. लेकिन अगर इसे एक सामान्य बात समझा जाता रहेगा तो दिक्कत ही होगी. यह एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या है, इसकी वजह से लाखों महिलाएं बीमारी में जीवन काटने को मजबूर होती हैं. एक सर्वे के अनुसार, ग्लोबल न्यूट्रीशन इंडेक्स में भारत को सबसे निचले पायदान पर रखा गया है, क्योंकि यहां पर आधे से ज्यादा औरतें एनीमिक हैं. इनमें से अधिकतर औरतें वो हैं जो बच्चे पैदा करने की उम्र में हैं. एनीमिया को साइलेंट किलर यानी 'चुप्पा हत्यारा' भी कहा जाता है. यानी ऐसी बीमारी जो बिना कोई ख़ास लक्षण दिखाए जान ले ले. और ऐसा नहीं है कि सिर्फ ग्रामीण इलाकों या छोटे शहरों की औरतें ही खान-पान पर ध्यान नहीं रखतीं और एनीमिक हो जाती हैं. बड़े-बड़े शहरों में भी ये दिक्कत है. डॉक्टरों से बातचीत करने पर यह भी पता चला कि अधिकतर औरतों को अपनी प्रेग्नेंसी ढंग से चलाने के लिए आयरन की गोलियां लेनी पड़ती हैं.
आज क्यों लिख रही हूं मैं ये?
पिछले कुछ दिनों में मीराबाई चानू के मेडल पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है. बहस भी हो चुकी है. बेटियों के माद्दे पर. ओलंपिक पर. लड़कियों के संघर्ष पर. भारत में खेल-कूद के कल्चर पर. मीराबाई चानू को फुर्ती से वजन उठाते हुए देखकर मुझे कर्णम मल्लेश्वरी की वो तस्वीर याद आ गई, जो ओलंपिक में उनके मेडल जीतने के बाद ‘नंदन’ नाम की पत्रिका में छपी थी. बीच में दो पन्नों का स्प्रेड था. और बीचोंबीच वजन उठाए हुए कर्णम. उनकी देखा-देखी मैंने भी कई बार वजन उठाने की कोशिश की. एक बार मां को गोद में उठा लिया. डांट पड़ी. इस बात के लिए नहीं कि मैंने बिना सोचे-समझे या किसी ट्रेनिंग के इतना वजन उठाकर बेवकूफी की थी. बल्कि इस बात के लिए कि-
“लड़कियां वजन नहीं उठाती”.सालों बाद जिम में भी एक ट्रेनर ने कहा, लड़कियां ज्यादा वेट नहीं उठातीं. उनके मसल्स आ जाते हैं. मैंने पूछा, बुराई क्या है? कहते,
“लड़कियां भारी काम नहीं करतीं”,
“बच्चे पैदा करने हैं, नाड़ी उखड़ जाएगी ये सब न करो”.
“लड़कों जैसी बॉडी बिल्डिंग थोड़े ही करनी है उनको. वो तो वेटलॉस के लिए आती हैं”.मीराबाई के सिल्वर मेडल जीतने के बाद वेटलिफ्टिंग एक बार फिर से चर्चा में है. (तस्वीर: PTI)
न जाने कितनी ऐसी लड़कियां देखीं, जो “फेमिनिनिटी” या स्त्रैण गुणों के खांचे में फिट नहीं बैठती थीं. वर्कआउट करती थीं. मसल्स बनाती थीं. उनके लिए लुकछुप कर फुसफुसाते लोग भी देखे. जो कहते थे, “कैसी मर्द लगती है. इसमें ज़रूर टेस्टोस्टेरोन ज्यादा होगा”. इंटरनेट के आ जाने और नेट पैक के सस्ते हो जाने के बाद ऐसी ही कमेंट्स अफ़रात में यूट्यूब और सोशल मीडिया पर भी देखे. बिपाशा बसु के वर्कआउट वीडियोज़ के बारे में लोगों को लिखते हुए देखा, इसके पति को कोई बताओ कि उसने एक “मर्द” से शादी की है. लोगों के मन में “फेमिनिन” शरीर को लेकर जो एक इमेज बना दी गई थी, उसमें न बानी जे फिट हुईं, न सिमोन बाइल्स, न कर्णम मल्लेश्वरी, न मिशेल ओबामा. अच्छी बात ये कि इन लोगों को ऐसे खांचों से कोई फर्क नहीं पड़ा. लेकिन हर लड़की को उस जगह पहुंच सकने की आज़ादी हासिल हो पाए, ऐसा अभी हमारा देश हुआ कहां है?
हमारे बड़े होते हुए लड़कियों की “नज़ाकत” और “कोमलता” पर इतने आख्यान ठूंसे गए थे भीतर, कि इससे बाहर आना बेहद मुश्किल लगता था. थोड़ी-सी भी हट्टी-कट्टी लड़की हो, तो लोग बातें करना शुरू कर देते थे.
“खेली-खाई हुई लड़की है. उमर हो गई है. मां-बाप न जाने क्यों ध्यान नहीं देते. इकहरे बदन की न रही तो शादी में कितनी दिक्कत आएगी”.
भले उस इकहरे बदन के नाम पर लड़की का खून क्यों न जला दिया जाए. हड्डियां क्यों न खोखली छोड़ दी जाएं. वही लड़कियां जो एक समय “नाज़ुक कली” कही जाती थीं, आज ऑस्टियोपोरोसिस और एनीमिया जैसी न जाने कितनी बीमारियां झेल रही हैं. क्योंकि सींक जैसे पतले-दुबले होने को “फिटनेस” का पैमाना मान लिया गया. थोड़ी-सी भी हरी-भरी या गदराये बदन वाली लड़की को “हेल्दी” जैसे यूफेमिज्म्स का इस्तेमाल कर शेम किया जाता रहा.
मीराबाई की जीत के बाद उन्हें पूरा देश अपनी बेटी बताने दौड़ पड़ा. लेकिन घरों में जो बेटियां बैठी हैं, उनको न ढंग का खाना नसीब हो रहा है. न सही समय पर चेकअप. वेट लिफ्टर या रेसलर बनने जाएं तो “मर्दाना” कह दी जाएंगी. जिम्नास्टिक्स और स्विमिंग में “टाइट कपड़े पहनने होते, बदन दिखता है”, इसलिए रोक दी जाएंगी. साइकल चलाने और उछल-कूद करने से “झिल्ली फट जाती है”, तो उन्हें वो न करने दी जाएगी. खुदा न खास्ता अगर किसी खेल में रो-झींक कर भाग लेने भी दिया, तो इंटरस्टेट कम्पटीशन में न भेजी जाएंगी ये कहकर कि “कुंवारी लड़कियां ऐसे अकेले छुट्टी गाय की तरह कैसे चली जाएं कहीं बाहर. न जाने वहां क्या-क्या ही होता हो”.
कुछ अपवाद हो सकते हैं. होंगे भी. लेकिन अधिकतर जगहों की सच्चाई यही है. आंकड़े झूठ नहीं बोलते. बेटियां भार उठाने के काबिल हैं. बस उनके कंधे कभी इस लायक नहीं समझे जाते.