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अविवाहित महिलाओं को अबॉर्शन के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट ने अब क्या कहा?

कोर्ट ने पूछा- इसमें क्या लॉजिक है कि शादीशुदा महिला को अबॉर्शन का अधिकार मिले और गैरशादीशुदा को नहीं.

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सरकार का पक्ष था कि सवाल विवाहित या अविवाहित का है ही नहीं
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8 अगस्त 2022 (Updated: 8 अगस्त 2022, 15:27 IST)
Updated: 8 अगस्त 2022 15:27 IST
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बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक अविवाहित महिला को प्रेग्नेंसी के 25 हफ्ते बाद गर्भपात की इजाज़त दी थी. अब कोर्ट मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP Act) के दायरे को बढ़ाने के संबंध में सुनवाई कर रहा है. 21 जुलाई को मणिपुर की महिला को अबॉर्शन की अनुमति देने के बाद कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस देकर जवाब मांगा था. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पार्दीवाला की बेंच ने कहा कि ये बिल्कुल तार्किक नहीं है कि MTP ऐक्ट के तहत एक विवाहित महिला को अबॉर्शन करने की अनुमति दी जाए और अविवाहित महिला को इनकार कर दिया जाए. जब दोनों के लिए जोख़िम एक बराबर ही है.

बवाल हो क्यों रहा है?

दरअसल, ये सुनवाई एक पुराने मामले से जुड़ी हुई है. MTP ऐक्ट केवल विशेष परिस्थितियों में ही महिलाओं को 24 हफ़्ते के बाद अबॉर्शन की अनुमति देता है. मणिपुर की एक महिला ने दिल्ली हाई कोर्ट में अपील डाली थी कि उन्हें अबॉर्शन करवाना है. हाई कोर्ट की बेंच ने महिला को ये कहते हुए मना कर दिया कि उन्हें अपनी प्रेग्नेंसी पूरी करनी चाहिए और बच्चे के जन्म के बाद उसे गोद लेने के लिए दे देना चाहिए. इसके बाद महिला सुप्रीम कोर्ट चली गई. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एएस बोपन्ना की बेंच ने 21 जुलाई को इस मामले में फ़ैसला सुनाया. कहा,

"एक अविवाहित महिला को सुरक्षित अबॉर्शन के अधिकार से वंचित करना, उसकी व्यक्तिगत स्वायत्तता और आज़ादी का उल्लंघन है."

कोर्ट ने कहा कि 2021 में MTP ऐक्ट में हुए संशोधन के बाद, ऐक्ट की धारा-3 के में 'पति' के बजाय 'पार्टनर' शब्द डाला गया. और, इसी संशोधन के आधार पर कोर्ट ने कहा कि केवल इसलिए कि एक महिला अविवाहित है, उसे अबॉर्शन के हक़ से वंचित नहीं किया जाना चाहिए. इसके साथ ही कोर्ट ने केंद्र सरकार को भी नोटिस जारी किया था. इसके जवाब में ऐडिशनल सॉलिसिटर जनरल (ASG) ऐश्वर्या भाटी ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार का पक्ष रखा.

अब कोर्ट और सरकार का पक्ष क्या है?

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जेबी पारदीवाला की बेंच ने हाइलाइट किया कि क़ानून को सीमित करने के बजाय, प्रोग्रेसिव अप्रोच अपनाते हुए उसके दायरे को बढ़ाया जाना चाहिेए. मैरिटल स्टेटस के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए. बेंच ने कहा,

"अगर एक शादीशुदा महिला को मानसिक पीड़ा और ऐसे और कारणों के आधार पर 24 हफ़्तों के अंदर गर्भपात करवाने का अधिकार है, तो एक ग़ैर-शादीशुदा महिला को क्यों नहीं? दोनों को बराबर ख़तरा हो सकता है. ये कोई तार्किक बात नहीं है."

MTP Act का नियम 3-बी कुछ  महिलाओं को गर्भपात की अनुमति देता है. जैसे तलाक़शुदा, विधवा, नाबालिग, विकलांग, मानसिक रूप से बीमार महिलाएं या यौन उत्पीड़न से पीड़िता महिलाएं. लेकिन इस लिस्ट में अविवाहित महिलाएं शामिल नहीं हैं. बेंच ने कहा,

"मानसिक स्वास्थ्य बहुत ज़रूरी है. अगर हम ऐक्ट के प्रासंगिक नियम से कुछ शब्दों को हटाते हैं, तो मानसिक पीड़ा के आधार पर अबॉर्शन का हक़ अविवाहित महिलाओं को भी दिया जा सकता है. तब नियम रिस्ट्रिक्टिव नहीं होंगे. इससे बचने का यही एक तरीक़ा है. हमें आगे बढ़ने वाली अप्रोच रखनी होगी."

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से आए ऐडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने कहा कि सवाल विवाहित या अविवाहित का नहीं, बल्कि महिला के स्वास्थ्य के बारे में है. ASG भाटी ने कहा,

"विशेषज्ञों की राय है कि 24 हफ़्ते या उससे ज़्यादा में अबॉर्शन कराना बहुत जोख़िमभरा होता है. महिलाओं के जीवन को भी ख़तरा हो सकता है."

अदालत ने ASG भाटी से इस मसले से निपटने के तरीके़ के बारे में सुझाव देने के लिए कहा है.

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