कहानी तीन दिन के लिए बिहार के सीएम बने सतीश प्रसाद सिंह की
वो सीएम जिसने 'जोगी और जवानी' नाम की फिल्म बनाई.
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सतीश प्रसाद सिंह को नेता बनने का ऐसा जुनून था कि वो ज़मीन बेच-बेचकर चुनाव लड़ते थे. फाइल फोटो
बड़े जमींदार परिवार का एक लड़का. पढ़ने पटना गया तो प्यार कर बैठा. फिर आया कहानी में ट्विस्ट. लड़के ने लड़की से शादी की. मगर लड़की दूसरी जाति की थी. तो लड़के के घरवालों ने उसे जाति और जमीन बाहर कर दिया. अपने हिस्से की खेती ले लड़का बन गया थोड़ा किसान और पूरा नेता. विधायकी का चस्का था, सो जमीन बेच चुनाव लड़ा. हारा. फिर जमीन बेची. फिर चुनाव लड़ा फिर हारा. गांव-घर के सब लोग उसे कुलअंगार कहने लगे. इन सबके बीच एक बार फिर चुनाव आया. उसने फिर जमीन बेची, अबकी जीत गया. और कुछ ही महीनों में बन गया मुख्यमंत्री. आपने सही सुना. पहली बार का विधायक बन गया मुख्यमंत्री. मगर सिर्फ तीन रोज के लिए. उसे एक नेता को सांसद से विधायक बनाना था. फिर यही सांसद टर्न्ड विधायक मुख्यमंत्री बनता. हमारी कहानी का केंद्रीय किरदार तो मेकशिफ्ट अरेंजमेंट था. मुख्यमंत्री पद गया, फिर मंत्री पद हाथ आया. मगर चुनावी जीत. वो इकलौती ही रहनी हो जैसे. नेता फिर चुनाव हारने लगा. चुनाव हारने का सिलसिला फिर शुरू हो गया. वो कभी विधायक नहीं बन पाया. और तब खबरों में बने रहने के लिए उसने बनाई फिल्म, जोगी और जवानी.हम बात कर रहे हैं ओबीसी समाज से आने वाले बिहार के पहले मुख्यमंत्री, महज तीन दिन के मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह की.
अंक 1: कन्या किस कुल की है!
बात मुंगेर के डीजे कॉलेज की है. पचास के दशक की. तब के खगड़िया सब डिवीजन के कुरचक्का गांव का सतीश यहां का स्टूडेंट था. बीएससी की पढ़ाई कर रहा था. उसके पिता गांव के बडे़ काश्तकार थे. 400 बीघा जमीन. कॉलेज में सतीश की मुलाकात ज्ञानकला से हुई. दोनों में दोस्ती और फिर प्रेम हुआ. शादी की मंशा थी, मगर एक बात की जिच थी. लड़का कुशवाहा जाति का और लड़की वैश्य कलवार. तो बवाल कटना तय था. यही हुआ. समाजवादी छात्र राजनीति में दिलचस्पी लेने वाले सतीश जात-पात को बोगस मानने वाले थे. तो उन्होंने ऐलान कर दिया घर में. लेकिन घरवालों को गांव बिरादरी देखनी थी. तो जैसे ही सतीश ने शादी की, घरवालों ने उनकी खेती अलग कर दी. ऐलान कर दिया, इसने नाक कटा दी. फिर चर्चा शुरू हुई. शादी से ज्यादा सतीश के अगले सियासी कदम की.
1962 के विधानसभा चुनाव में सतीश प्रसाद सिंह ने स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर परबत्ता विधानसभा से पर्चा भर दिया. चुनाव लड़ने के लिए पैसे कम पड़े तो अपने हिस्से की कुछ जमीन बेच दी. आसपास इसकी खूब चर्चा हुई. फिर वोटिंग हुई तो सतीश कांग्रेस की लक्ष्मी देवी से हार गए. दो बरस बाद विधायक जी का निधन हुआ तो उपचुनाव की घंटी बजी. इस दफा सतीश को पार्टी टिकट नहीं मिला. उन्होंने फिर जमीन बेची और निर्दलीय मैदान में उतर गए. चुनाव अच्छा खिंचा, मगर आखिर में कांग्रेस कैंडिडेट एससी मिश्र के मुकाबले उन्हें लगभग 3 हजार कम वोट मिले. पहले जाति और फिर जमीन गंवाने वाले सतीश पर अब चौक चौराहों में चर्चा होने लगी. सब उन्हें कुल अंगार कह मजाक उड़ाने लगे. मगर सतीश की सनक अभी भी सधी हुई थी.
1967 के विधानसभा चुनाव में उन्हें डॉ. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का टिकट मिल गया. मगर चुनाव लड़ने के लिए उन्हें फिर से जमीन बेचनी पड़ी. इस बार उनकी राजनीतिक जमीन बच गई. सतीश आखिरकार चुनाव जीत गए. पहली बार का विधायक. लेकिन इस परिचय में अभी मुख्यमंत्री भी जुड़ना था.

अंक 2 : जब पहली बार विधायक और मुख्यमंत्री बने
1967 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी, मगर सबसे बड़ा दल अभी भी थी. बहुमत से कोसों दूर, लिहाजा कांग्रेस विधायक दल के नेता महेश प्रसाद सिन्हा ने दावेदारी नहीं की. लोहिया ने विपक्षी दलों को साथ लाकर संविद सरकार बनवाई. इस सरकार में संसोपा सबसे बड़ा दल थी. मगर राजनीतिक कीमियागीरी ऐसी कि 68 विधायकों के नेता कर्पूरी ठाकुर को डिप्टी सीएम बनना पड़ा. और सीएम बने जन क्रांति दल के 28 विधायकों के नेता महामाया प्रसाद सिन्हा. संसोपा विधायकों का एक गुट इस अरेंजमेंट से खुश नहीं था. उन्हें ये भी लगा कि पिछड़ों की एकता का नारा बुलंद कर हम सत्ता में आए, मगर कमान एक बार फिर एक अगड़े को मिल गई. इस गुट में सतीश भी थे. असंतोष को फूटने के लिए अब एक वजह का इंतजार था. ये वजह मिली एक प्रफेसर के अप्वाइंटमेंट को लेकर.
सतीश प्रसाद सिंह एक पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर की पैरवी कर रहे थे. डॉक्टर उनका करीबी था. उसे तमाम योग्यताओं के बावजूद पटना मेडिकल कॉलेज की प्रफेसरी नहीं मिल रही थी. सतीश इस मामले को लेकर अधिकारियों से मिले. सुनवाई नहीं हुई. मंत्री ने भी नहीं सुना. और तब लोहिया से झगड़ के चलते विधायक न बन पाए और इसी के चलते हेल्थ मिनिस्टरी छोड़ने को मजबूर हुए बीपी मंडल ने उन्हें मंतर दिया. सतीश को आगे कर 16 विधायक मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा के घर पहुंच गए. विधायक जी ने साफ पूछ लिया, क्या ये सरकार भी पिछड़ा विरोधी है.
विधायकों के इस गुट की कारगुजारियों की खबरें कांग्रेस खेमे में भी पहुंच रही थीं. हाल में सत्ता गंवाए केबी सहाय ने सतीश प्रसाद सिंह से मुलाकात की और सीधा ऑफर दिया.
"कांग्रेस के पास 128 विधायक हैं. आपका गुट 25-30 विधायकों का जुगाड़ कर ले तो मुख्यमंत्री बन सकता है.इसके बाद सतीश ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल के साथ सलाह-मशविरा किया. बीपी मंडल पहले से ही डॉक्टर राममनोहर लोहिया, महामाया प्रसाद सिन्हा और संसोपा के नेताओं से नाराज चल रहे थे. दरअसल लोहिया की पार्टी संसोपा के संविधान के मुताबिक कोई सांसद, प्रदेश अध्यक्ष और विधान परिषद सदस्य राज्य सरकार में पद नहीं ले सकता था. फिर भी मधेपुरा के सांसद बीपी मंडिल महामाया सरकार में स्वास्थ मंत्री बने. संसोपा प्रदेश अध्यक्ष भोला प्रसाद सिंह ने भी लाल बत्ती ले ली. लोहिया भड़क गए. उन्होंने सार्वजनिक रूप से इस कदम की आलोचना की और पार्टी को साफ कर दिया, सांसद जी के लिए विधायकी का रास्ता नहीं खोला जाएगा. इसके चलते 6 महीने बाद मंडल को संवैधानिक विवशता के चलते इस्तीफा देना पड़ा.
पिछड़ों को लगा कि लोहिया उनका नेतृत्व उभरने नहीं दे रहे. ऐसे में एक दिन सतीश प्रसाद सिंह डॉ लोहिया के पास पहुंचे और पूछ लिया, पार्टी संविधान के खिलाफ जाकर तो कई लोग मंत्री बने बैठे हैं लेकिन आप सिर्फ बीपी मंडल के खिलाफ ही क्यों बयान दे रहे हैं?
बीपी मंडल सिर्फ इस सवाल जवाब भर से संतुष्ट नहीं थे. मंडल और भोला सिंह लगातार सहाय से बातीचत कर रहे थे. फिर इसे आखिरी अंजाम तक पहुंचाने के लिए जनवरी 1968 में एक बैठक बुलाई. सतीश प्रसाद सिंह, बीपी मंडल और भोला प्रसाद सिंह. इसमें 25 विधायक आए. बागियों के इस जमघट की खबर केबी सहाय के अखबार नवराष्ट्र ने छाप दी, सब विधायकों के नाम समेत. पटना का तापमान बढ़ गया. कुछ ही दिन बाद इन विधायकों ने शोषित दल बना लिया. और अगले ही रोज कांग्रेस विधायक दल के नेता महेश प्रसाद सिन्हा ने महामाया सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दे दिया. जनवरी के अंतिम सप्ताह में विधानसभा के पटल पर अविश्वास प्रस्ताव रखा गया और महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार गिर गई.
अंक 3: त्रिवेणी फॉर्मूले के तहत 3 नए किलेदार
महामाया सरकार गिरने के बाद नई जोड़तोड़ शुरू हुई. अब शोषित दल को सरकार बनानी थी. मगर इस कठपुतली की डोर कांग्रेस के हाथ थी. उधर से फॉर्मूला आया कि बारी-बारी तीन पिछड़ी जातियों के नेता मुख्यमंत्री बन जाएं. ये जातियां थीं 1920 के दशक में त्रिवेणी संघ बनाने वाली. कुशवाहा-कोइरी, यादव और कुर्मी. तय हुआ कि कुशवाहा जाति का विधायक मुख्यमंत्री बने, फिर वो विधान परिषद में मनोनयन के जरिए भरी जानेवाली सीट से यादव नेता बीपी मंडल को मनोनीत करने की सिफारिश राज्यपाल को भेजे. फिर संख्या बल में सबसे ज्यादा यादव जाति के बीपी मंडल मुख्यमंत्री बनें और कुछ महीनों बाद कुर्मी जाति के भोला प्रसाद सिंह का सीएम के लिए नंबर आए.
कुशवाहा समाज से दो दावेदार सामने थे. जगदेव प्रसाद और सतीश प्रसाद सिंह. जगदेव प्रसाद सिर्फ विधायक नहीं थे. पिछड़ों की राजनीति के सिद्धांतकार भी थे. कांग्रेस उन्हें मजबूत नहीं करना चाहती थी. ऐसे में बाजी सतीश प्रसाद सिंह के हक में रही. इस प्रकरण पर खुद सतीश प्रसाद सिंह का बयान था,
"28 जनवरी, 1968 को मेरे आवास पर कांग्रेस विधायक दल के नेता महेश प्रसाद सिन्हा, रामलखन सिंह यादव के साथ आए. उन्होंने मुझे अपने साथ चलने के लिए कहा. दोनों ने यह भी नहीं बताया कि 'चलना कहां है.' इसके बाद वे दोनों मुझे लेकर सीधे राजभवन चले गए और मेरे नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. उसी शाम साढ़े सात बजे राज्यपाल नित्यानंद कानूनगो ने मुझे दो मंत्रियों (शत्रुमर्दन शाही और एन ई होरो) के साथ शपथ दिलाई".अब मंत्री जी का भी सुन लीजिए. शत्रुमर्दन शाही चंपारण के डुमरिया एस्टेट से आते थे. इनकी पोती सृजाम्या शाही की शादी मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के विधायक बेटे जयवर्धन सिंह के साथ हुई है. उधर एन ई होरो झारखंड इलाके से आनेवाले बड़े आदिवासी नेता थे.
अंक 4: मुख्यमंत्री इस्तीफा देने से पलट सकते हैं क्या!
28 जनवरी, 1968 को सतीश सिंह सरकार ने कामकाज संभाला. पहली कैबिनेट मीटिंग का पहला फैसला था, एक विधायक के इस्तीफे से खाली हुई मनोनयन कोटे की विधान परिषद सीट पर बीपी मंडल के नाम का प्रस्ताव. कैबिनेट ने प्रस्ताव राज्यपाल को भेजा. केंद्र में सरकार कांग्रेस की, पटना में इस नई सरकार को समर्थन कांग्रेस का. तो राज्यपाल को तुरत स्वीकृति देनी ही थी. मंडल विधायक बन गए. उनके मुख्यमंत्री बनने की तैयारी शुरू हो गई. मगर तभी पत्थर चल गया.
बात 30 जनवरी की है. महात्मा गांधी की पुण्यतिथि. गवर्नर कानूनगो पटना के गांधी घाट पर श्रद्धांजलि अर्पित करने गए. वहां से लौटे तो बी एन कॉलेज के आंदोलनरत छात्रों ने अपनी मांगों को लेकर गाड़ी घेर ली. पुलिस ने बल प्रयोग किया तो लड़कों ने पत्थर चला दिए. पटना में खबर फैली तो बीपी मंडल ने फौरन चीफ सेक्रेटरी को फोन कर आरोपी छात्रों को गिरफ्तार करने को कहा. बात मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह के संज्ञान में आई तो उन्होंने साफ कर दिया, स्टूडेंट अरेस्ट नहीं किए जाएंगे.
बीपी मंडल को इसका पता चला तो दिमाग चलने लगा. कहीं ऐसा तो नहीं कि सतीश प्रसाद सिंह इस्तीफा ही न दें. उन्होंने फौरन कांग्रेस नेता राम लखन सिंह यादव को फोन लगाया. अगला फोन कांग्रेस विधायक दल नेता महेश प्रसाद सिन्हा ने किया, मुख्यमंत्री को. सतीश प्रसाद सिंह ने मंडल की आशंकाओं को निराधार बताया और उसी शाम इस्तीफा दे दिया. बिहार के पहले पिछड़े मुख्यमंत्री, तीन दिन के मुख्यमंत्री का ये पटाक्षेप था. दिनों के लिहाज से 2000 में नीतीश कुमार भी 7 दिन मुख्यमंत्री रहे, मगर वो सत्ता में फिर लौटे. लेकिन सतीश सिंह, उनकी कहानी में अभी एक मोड़ और आना था.
अंक 5: जोगी और जवानी और फिर बुढ़ापा
जोड़ तोड़ की सरकारें बनती बिगड़ती रहीं और बिहार में हुए पहले मध्यावधि चुनाव. 1969 में. सतीश प्रसाद सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री नतीजे आए तो सुर्खियों में आए. क्योंकि वह एक बार फिर परबत्ता से चुनाव हार गए थे. अगला चुनाव हुआ 1972 में, मगर वह लड़े ही नहीं. परिवार जनों का दावा है कि सियासत से मन उचट गया था. दूसरे कामों में रम गए. क्या थे ये दूसरे काम. धनबाद में पाटलिपुत्र मेडिकल कॉलेज बनवाना. और वहां पेच फंसा तो फिल्म बनवाना.
इस प्रसंग पर खुद सतीश प्रसाद ने तहलका मैगजीन से बात करते हुए कहा था,
धनबाद में पाटलीपुत्र मेडिकल कॉलेज खुला था. मैं उसके संस्थापकों में था. उसी कॉलेज के ट्रस्ट के सचिव की मदद से मेरे खिलाफ केस दर्ज करा दिया गया. इसके पीछे जगजीवन राम का चेला हरिनाथ मिश्रा था. आर्यावर्त अखबार और इंडियन नेशन में इसकी खबर भी प्रकाशित कर दी गई. मुझे लगा कि अब तो लोग मुझे भ्रष्टाचारी समझेंगे, भूल जाएंगे. ऐसे में मैंने सोचा फिल्म बनाई जाए, सुर्खियां मिलेंगी. ‘जोगी और जवानी’ फिल्म बनानी शुरू की. मगर ये कभी रिलीज नहीं हुई.इलेक्शन की बात करें तो सतीश 1977 में चुनाव हार गए. फिर इंदिरा कांग्रेस में आ गए और उसी के टिकट पर 1980 में खगड़िया लोकसभा से सांसद बन गए. उस चुनाव को याद करते हुए द टेलीग्राफ को दिए एक इंटरव्यू में सतीश प्रसाद सिंह ने कहा था,
" 1978 में मैंने जनता सरकार द्वारा इन्दिरा गांधी को टॉर्चर किए जाने के खिलाफ मोर्चा निकाला था. इससे खुश होकर मैडम ने मुझे खगड़िया से लोकसभा का टिकट थमा दिया और मैं जीत गया."पटना से दिल्ली पहुंचे सतीश प्रसाद सिंह को मंत्री पद नहीं मिला. जबकि बिहार से लोकसभा पहुंचने वाले दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री केदार पांडे कैबिनेट मंत्री बने. फिर 1984 में राजीव गांधी का राज आया तो सतीश प्रसाद सिंह को टिकट ही नहीं मिला. नाराज सतीश निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से लोकसभा चुनाव लड़े और अपनी जमानत गंवा बैठे. 1989 में राजीव ने सिटिंग सांसद चंद्रशेखर वर्मा का टिकट काट फिर सतीश प्रसाद सिंह को थमा दिया. लेकिन पिछले चुनाव की सहानुभूति लहर अब बोफोर्स लहर में बदल चुकी थी. सतीश जनता दल के रामशरण यादव के मुकाबले उन्नीस साबित हुए. कुछ वक्त बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. जनता दल जॉर्ज में आ गए. 1995 में जॉर्ज और नीतीश कुमार की बनाई समता पार्टी से परबत्ता सीट पर लड़े और फिर हार गए.
ये सतीश प्रसाद सिंह का आखिरी चुनाव था. 2013 में उनके बारे में एक सिंगल कॉलम खबर आई. पूर्व मुख्यमंत्री बीजेपी में शामिल. मगर एक साल में उन्होंने ये पार्टी भी छोड़ दी और सियासत से दूर हो गए. लेकिन परिवार करीब रहा. उनके और सियासत, दोनों के. सतीश प्रसाद सिंह के शोषित दल सहयोगी जगदेव प्रसाद याद हैं आपको. दोनों बाद के दिनों में समधी बने. सतीश प्रसाद सिंह की बेटी सुचित्रा सिन्हा की शादी जगदेव प्रसाद के बेटे नागमणि से हुई. नागमणि बिहार की राजनीति का चर्चित नाम रहे. उनकी सबसे ज्यादा चर्चा हुई, बार बार पार्टी बदलने, बनाने और तोड़ने के लिए. 1999 में नागमणि लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी के टिकट पर झारखंड के चतरा से सांसद हुए. फिर उनका गुट एनडीए में आ गया और वह वाजपेयी सरकार में कुछ समय के लिए राज्यमंत्री रहे. उनकी पत्नी सुचित्रा नीतीश सरकार में 2005 से 2010 के बीच मंत्री भी रहीं. बाद के दिनों में नागमणि के सब दांव उलटे पड़े. उनके पिता पिछड़ा राजनीति के पुरोधा थे. और श्वसुर सतीश प्रसाद सिंह पिछड़ा समाज से आने वाले बिहार के पहले मुख्यमंत्री.
सतीश प्रसाद सिंह का कोरोना के कारण 3 नवंबर 2020 को दिल्ली में निधन हो गया.