मायावती ने सिर्फ भाषण की वजह से आकाश आनंद से हाथ खींचे, या कुछ और बात भी है?
7 मई को ख़बर आ गई कि आकाश आनंद को ‘पदमुक्त’ कर दिया गया. मायावती का कहना है कि वो अभी अपरिपक्व हैं. वहीं जानकारों ने कहा कि आकाश आनंद अपने 'आपत्तिजनक' भाषणों की वजह से हटाए गए. मगर क्या यही इकलौती वजह है?
बीते साल, 9 दिसंबर को ख़बर आई थी कि बहुजन समाज पार्टी की मुखिया और उत्तर प्रदेश की पूर्व-मुख्यमंत्री मायावती ने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है. छोटे भाई आनंद कुमार के बेटे आकाश आनंद. जुमे-जुमे पांच महीने भी नहीं हुए कि मंगलवार, 7 मई को ख़बर आ गई कि आकाश आनंद को ‘पदमुक्त’ कर दिया गया. मायावती का कहना है कि वो अभी परिपक्व नहीं हैं. बूझने वालों ने ये अपरिपक्वता आकाश के हालिया भाषणों में टोही, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी सरकार की तुलना आतंकवादियों और तालिबान से कर दी थी. मगर क्या यही इकलौती वजह है कि मायावाती ने अपने घोषित उत्तराधिकारी से हाथ खींच लिए?
मायावती ने भतीजे को हटाया क्यों?मायावती ने अपने तीन ट्वीट की सीरीज़ में इसकी वजह दी:
"...पार्टी और आंदोलन के व्यापक हित में पूर्ण-परिपक्वता (maturity) आने तक अभी उन्हें (आकाश आनंद को) अहम ज़िम्मेदारियों से अलग किया जा रहा है."
लंदन से MBA के बाद नौकरी करने के बजाय आकाश ने अपनी बुआ की विरासत को आगे बढ़ाना चुना. राजनीति में उनकी एंट्री 2017 में हुई थी, जब वो सहारनपुर रैली में पहली बार मायावती के साथ मंच पर दिखे थे. गत सात सालों में पार्टी में सक्रियता बढ़ाई. पद नहीं था, काडर लेवल पर काम किया. 2019 के आम चुनाव में पार्टी के चुनाव प्रचार कैम्पेन मैनेजर बनाए गए. समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन तोड़ने के बाद 2019 में ही मायावती ने उन्हें बसपा का को-ऑर्डिनेटर बनाया. फिर 2022 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव आते-आते पार्टी के सोशल मीडिया का मोर्चा संभाला. पार्टी 403 विधानसभा सीटों में एक पा पाई.
इतनी बुरी हार खाने के बाद मायावती ने काडर से कहा कि वो पार्टी की स्थिति का मुआयना करने के लिए आकाश को अलग-अलग राज्यों में भेजेंगी. हुआ भी यही. आकाश की भूमिका बढ़ी. राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के लिए बसपा की तैयारी देखने लगे. हालांकि, विधानसभा चुनावों में बसपा का प्रदर्शन बहुत ख़राब रहा. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में तो खाता भी नहीं खुला. राजस्था में दो सीटें मिलीं, मगर वो भी पिछले चुनाव की तुलना में गिरावट थी.
जब पार्टी को-ऑर्डिनेटर बनाए गए, तो सोशल मीडिया पर उनकी प्रेज़ेंस बढ़ी. बयानों, भाषणों, जनसभाओं में दिखने लगे. ग्राउंड पर पहचाने जाने लगे. जानकार मानते हैं कि कुछ-कुछ खित्तों में आकाश स्वीकारे भी जाने लगे थे.
उनके उत्तराधिकारी चुने जाने पर दी लल्लनटॉप ने उनकी संभावनाओं की समीक्षा की थी. बसपा की राजनीति कवर करने वालों ने दी लल्लनटॉप को बताया था कि अभी पार्टी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, सीटें आ नहीं रहीं, भ्रष्टाचार के आरोप हैं. कांशीराम ने जिन लोगों को साथ जोड़ा था, वो सब अब पार्टी का साथ छोड़ते जा रहे हैं. मायावती जाटवों, अति पिछड़ों और ग़रीब मुसलमानों का वोट 2012 के बाद साथ नहीं रख सकी हैं. इसीलिए निष्कर्ष में निकला कि आकाश से ज़्यादा मायावती को अपना पॉलिटिकल रेलवेंस साबित करना है.
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मगर वहां तक तो बात पहुंची नहीं. कम से कम अभी के लिए टल ही गई है. अख़बारी कॉलमों और एनालिसिस में जो सबसे पहला कारण आया, वो ये कि आकाश के बयान 'बहुत रैडिकल' थे. बीती 28 अप्रैल को उन पर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का मामला दर्ज किया गया था. सीतापुर में एक चुनावी रैली के दौरान आपत्तिजनक भाषा इस्तेमाल करने के लिए. तो कहा गया कि मायावती पर राजनीतिक दबाव था, पार्टी इन बयानों, भाषणों के साथ खड़ी नहीं हो पातीं.
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने अपनी समीक्षा में कहा है कि आमतौर पर बसपा की लाइन इतनी तीखी रही नहीं है, जितने आकाश के भाषण सुनाई पड़ रहे थे. आकाश ने ख़ुद भी हल्के लहजे को ही डिफ़ेंड किया. इंडियन एक्सप्रेस के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि भाजपा पर उग्र हमले न करना बसपा की रणनीति है. कहा था,
“जब आप किसी पर हमला करते हैं, तो आपको प्रतिक्रिया का भी सोचना पड़ेगा. अगर हम केंद्र सरकार, मोदीजी या अमित शाहजी पर हमला करते रहेंगे, तो हम जानते हैं कि जवाबी कार्रवाई होगी... हमारे समुदाय के लोग ED, CBI या स्थानीय अफ़सरों से लड़ने में सक्षम नहीं हैं. क़ानूनी रास्ता लेना चाहिए. जब मौक़ा आए, तो अपने वोट से सरकार को जवाब दें... राजनीति शतरंज के खेल की तरह है. समझदारी से लड़ना बेहतर है.”
ये बात आकाश अपने भाषणों में भी कह चुके हैं, कि उनके समुदाय के लोग कोर्ट-कचहरी के चक्कर पाल नहीं सकते. वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया का कहना है कि ये डॉ. आम्बेडकर की नीति - पढ़ो-लिखो, संगठित हो, संघर्ष करो - से बिल्कुल उलट बात है. हालांकि, आते-आते तो आकाश का ये रवैया बदलता हुआ पाया गया.
पार्टी काडर पर क्या असर?पार्टी के अंदरूनी सूत्रों ने दी प्रिंट को बताया है कि ये फ़ैसला पार्टी काडर को हतोत्साहित कर सकता है. BSP के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि जब वो आए थे, तो सभी को उनके बारे में आशंकाएं थीं. मगर आकाश उम्मीदों से आगे निकले. लोग उनको सुनने के लिए जुटने लगे, अपने नेता की तरह देखने लगे.
वरिष्ठ पत्रकार और पॉलिटिकल एनालिस्ट अभय दुबे ने भी दी लल्लनटॉप को आकाश की साख के बारे में ऐसा ही कुछ कहा.
"आकाश आनंद की स्वीकार्यता एक युवा चेहरे के तौर पर दिख रही थी. उनके भाषणों को सुना जाए, तो उन्हें भाषण की कला-कौशल आती है. जिस तरीक़े का भाषण वो दे रहे थे - कुछ अमर्यादित शब्दों-वाक्यांशों को छोड़ दें - तो मोटे तौर पर अच्छे भाषण दे रहे थे. बसपा की एक नई साख बना रहे थे."
फिर बसपा ने आकाश को क्यों दरकिनार किया? इसकी एक और थियरी चली. एक पुरानी थियरी, कि बसपा असल में भाजपा की ‘बी टीम’ है. सपा और कांग्रेस ने पार्टी के टिकट बंटवारे से लेकर रणनीति तक यही आरोप लगाए हैं कि वो भाजपा को फ़ायदा पहुंचा रहे हैं. इस बात को अनिल चमड़िया और अभय दुबे, दोनों ने ही ख़ारिज किया.
अभय दुबे ने बताया कि ये एक सतही समीक्षा है. जौनपुर और बस्ती में हुए बदलाव लोग देखते हैं, लेकिन संतकबीर नगर को बहुत सहूलियत से छोड़ देते हैं. बोले,
"क़रीब बीस लाख वोटर वाली इस सीट में सवा छह लाख मुसलमान वोट हैं. साढ़े चार लाख दलित, दो लाख निषाद, तीन लाख ब्राह्मण, सवा लाख राजपूत, सवा लाख से कुछ ज़्यादा यादव, सवा लाख से ही कुछ कम कुर्मी और क़रीब 50 हजार भूमिहार वोटर हैं.
भाजपा ने संजय निषाद को उतारा है, जो भाजपा के साथ अपनी पार्टी के गठजोड़ के कारण प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं. पिछली बार उनके बेटे प्रवीण निषाद ही यहां से जीते थे. सपा ने पप्पू निषाद को टिकट दिया है, जो मंत्री रह चुके हैं. इन दोनों के मुक़ाबले बसपा ने एक मुसलमान उम्मीदवार को मैदान में उतारा है, सैयद नदीम अशरफ.
राजनीति के मैदान में वो नए हैं. पर अगर सिर्फ़ अंकगणित पर ग़ौर किया जाए, तो बसपा का उम्मीदवार मुसलमान और दलित वोटरों के एक साथ की संभावना के चलते आगे नज़र आता है. यहां बसपा किसी के वोट नहीं काट रही, बल्कि अपने वोटों और राजनीतिक प्रभाव की वापसी करती हुई लग रही है."
अनिल चमड़िया का भी यही कहना था कि संसदीय लोकतंत्र में पार्टियों के बीच एक समझ होती है. इसका मतलब ये नहीं होता कि समझ की वजह से समझौता किया जाए. कुछेक अंकगणित का खेल हो सकता है, लेकिन बसपा को भाजपा की बी टीम कहना सही नहीं है.
जिस वक़्त आकाश आनंद चर्चा का सबब हैं, राजनीतिक विश्लेषक एक और बात पर ध्यान दिलाते हैं. आकाश अभी गिनती से बाहर हैं. ये चुनाव और नतीजे 'मायावती वाली बसपा' के लिए क्रिटिकल हैं, क्योंकि उन्हें अपनी राजनीति इस चुनाव में पुनर्स्थापित करनी है. नहीं तो वो अपनी पैठ, पहुंच उत्तर प्रदेश से भी खो देंगी.
जहां तक आकाश का सवाल है, कुछ समय पहले दी लल्लनटॉप ने JNU के प्रोफ़ेसर विवेक कुमार से बसपा की फ्यूचर लीडरशिप पर बात की थी. तब उन्होंने कहा था कि कांशीराम ने पैन इंडिया लेवल से को-ऑर्डिनेटर तैयार किए थे. मगर मायावती के आने के बाद, बकौल प्रोफेसर विवेक, को-ऑर्डिनेटर UP से ही निकलने लगे हैं. बाक़ी राज्यों की भूमिका कम हुई है, और कांशीराम की तरह नेता तैयार करने का चलन कम हुआ है.
आकाश अब क्या करेंगे, इस पर स्थिति बहुत साफ़ नहीं है. फ़िलहाल के लिए उनकी जो जनसभाएं तय थीं, उन्हें कैंसिल कर दिया गया है.
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