क्या सस्ता रूसी तेल आयात कर मोदी सरकार प्राइवेट कंपनियों को फायदा पहुंचा रही?
ढुलाई की लागत ज्यादा होने पर भी भारत रूस से कच्चा तेल क्यों आयात कर रहा है?

रूस से सस्ता तेल लेने के लिए मोदी सरकार की तारीफ भारत में ही नहीं, पाकिस्तान में भी हुई है. याद कीजिए इमरान खान के वो भाषण. जिनमें वो कहा करते थे कि देखिए कैसे PM मोदी अमेरिका को भी साध रहे हैं, और रूस से सस्ता तेल भी ले रहे हैं. ये बात अपनी जगह है कि बड़े दिनों से भारत में पेट्रोल-डीज़ल के दाम नहीं बढ़े, लेकिन जनता जानना तो चाहती ही है कि अगर वाकई हमें तेल सस्ता मिल रहा है, तो ग्राहक के लिए दाम कब कम होंगे. दूसरी बड़ी समस्या अंतरराष्ट्रीय मंचों की है. यूरोप की तरफ से भारत पर लगातार उंगली उठाई जा रही है. डॉ जयशंकर बार-बार इन उंगलियों को मरोड़ तो रहे हैं, लेकिन इस मौके का इस्तेमाल भारत की ऑइल इकॉनमी को समझने के लिए किया जा सकता है.
असल में यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद से भारत, रूस के कच्चे तेल का बड़ा ख़रीदार बन गया है. भारत के रिफ़ाइनर पहले भारी छूट पर कच्चा तेल ख़रीदते हैं. फिर यूरोप में रिफ़ाइन्ड ईंधन बेचते हैं. यानी मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा. है. तो मसला क्या है? मसला ये है कि ये यूरोपीय संघ या EU ने रूस के कच्चे तेल पर अब काफ़ी हद तक रोक लगा दी है. हालांकि, यूरोपीय संघ के प्रतिबंधों के बाद भी व्यापार करना क़ानूनी है. लेकिन इस व्यापार की आलोचना भी हो रही है. जो लोग रूस पर और कठोर प्रतिबंध देखना चाहते हैं, उनका तर्क है कि तेल की बिक्री रूस के रेवन्यू का बड़ा हिस्सा है और इस रेवन्यू से वो यूक्रेन में अपनी लड़ाई को फंड कर रहा है.
इसी संदर्भ में यूरोपीय संघ के उच्च प्रतिनिधि जोसेप बोरेल ने फ़ाइनेंशियल टाइम्स को बताया कि EU जानता है कि भारतीय रिफ़ाइनर्स भारी मात्रा में रूस से कच्चा तेल ख़रीद रहे है. उन्होंने कहा, "अगर यूरोप में आने वाले डीज़ल या गैसोलीन का उत्पादन रूसी तेल से किया जा रहा है, तो ये निश्चित रूप से प्रतिबंधों का उल्लंघन है और सदस्य देशों को इसके लिए कुछ करना होगा."
जोसेप बोरेल के जवाब में, विदेश मंत्री एस जयशंकर ने उन्हें यूरोपीय संघ परिषद के नियमों को देखने की सलाह दे डाली. ब्रसेल्स में trade technology talks में बोरेल ने जयशंकर से मुलाकात की, लेकिन वो उसके बाद वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद नहीं थे. उनकी जगह यूरोपीय संघ के कार्यकारी उपाध्यक्ष मार्गेट वेस्टेगर थे. और उनका लहजा फ़्रेंडली था. उनका कहना था कि प्रतिबंधों के क़ानूनी आधार के बारे में कोई संदेह नहीं है. EU और भारत, दोस्तों की तरह बात करेंगे, न कि उंगलियां दिखाकर.
इस बातचीत ने एक बार फिर भारत की ऑइल इकॉनमी पर चर्चा छेड़ दी है. कि हम कितना तेल खरीद रहे हैं, किस दाम पर खरीद रहे हैं और फिर उसका कर क्या रहे हैं? अगर वाकई कोई फायदा हो रहा है, तो वो जनता तक पहुंच रहा है या नहीं? आइए एक एक कर इन सवालों के जवाब खोजें -
अगर ये कहा जाए कि भारत की अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर है. तो गलत नहीं होगा. तेल के इस्तेमाल में हम तीसरे नंबर पर हैं -
पहला अमेरिका, दूसरा चीन और तीसरे हम.
हम रोज़ 50 लाख बैरल से ज्यादा तेल का उपभोग करते हैं. 1 बैरल में होते हैं 158 लीटर. आप पूछ सकते हैं कि भैया ये कैसा अजीब माप हुआ. लेकिन सिस्टम यही है, कि तेल की खरीद-बिक्री के वक्त बैरल में मात्रा बताई जाए. तो ये जो 50 लाख बैरल तेल आता है, उसका इस्तेमाल प्रमुख रूप से ट्रांसपोर्ट सेक्टर में होता है.
अब दिक्कत ये है कि हमारे पास तेल के भंडार ज्यादा नहीं हैं. इसीलिए हम आयात पर निर्भर हैं. तेल के भंडार उत्तर-दक्षिण अमेरिका, रूस और खाड़ी देशों में. हमारी फेवरेट दुकान है खाड़ी देशों में. क्योंकि हमारी रिफाइनरीज़ यहीं से आने वाले तेल के लिए कंफीगर की गई हैं. ऐसा नहीं है कि कहीं और का तेल हम नहीं खपा सकते. बिलकुल खपा सकते हैं. लेकिन खाड़ी का तेल मुफीद रहता है. एक और बात है, बीते दशकों में भारत ने भारी भरकम निवेश से बड़ी-बड़ी रिफाइनरीज़ बनाई हैं. ये सब मिलकर इतना तेल प्रॉसेस कर सकती हैं, कि हमारी ज़रूरत पूरी होने के बाद भी बहुत बड़ी मात्रा बच जाती है. और यहीं से स्कोप पैदा होता है निर्यात का.
आपको जानकर ये भी हैरानी होगी कि ऐसे बहुत से देश हैं जिनसे हम कच्चा तेल खरीदते हैं, रिफाइन करके पेट्रोल-डीज़ल वगैरह बनाते हैं और उन्हीं देशों को बेच देते हैं. इनमें कई खाड़ी देश भी शामिल हैं. थोड़ा बहुत निर्यात यूरोप को भी होता रहा है. जबसे रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया है, तबसे हमारा यूरोप को एक्सपोर्ट बेतहाशा बढ़ा है. क्यों?
क्योंकि रूसी हमले का पूरी दुनिया, विशेषकर पश्चिम ने भारी विरोध किया. अमेरिका और यूरोपियन यूनियन (EU) सीधे-सीधे यूक्रेन के साथ खड़े नज़र आए. उन्होंने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की शुरुआत की. इरादा ये कि इससे रूस की कमाई घटेगी और वो युद्ध से पीछे हट जाएगा. ये प्रतिबंध कई चरणों में लगाए जा गए. दिसंबर 2022 में EU ने रूस पर छठी बार नए प्रतिबंधों का ऐलान किया. इसमें रूस के कच्चे तेल पर पाबंदी लगाई गई, माने यूरोप के देश रूस से कच्चा तेल नहीं खरीद सकते थे. 5 फरवरी 2023 को EU एक कदम आगे बढ़ गया. इसमें रूस के रिफ़ाइन ऑइल और पेट्रोलियम उत्पादों पर भी बैन लगा दिया. अमेरिका और EU के प्रतिबंधों से रूस को झटका लगा. युद्ध से पहले तक रूस EU के देशों में सबसे ज़्यादा कच्चा तेल भेजता था. जनवरी 2022 में ये आंकड़ा 31 प्रतिशत था. दूसरे नंबर पर अमेरिका था. 13 प्रतिशत शेयर के साथ. युद्ध के बाद स्थिति बदल गई.
सब जानते थे, कि न रूस बिना तेल निर्यात किए रह सकता है. और न ही यूरोप बिना रूसी तेल के खुश रहेगा. इसीलिए एक बीच का रास्ता निकाला गया. रूस ने चीन और भारत को तेल बेचना शुरू किया. भारत के रूस से पुराने संबंध थे ही. फिर अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों ने नाक-भौं तो सिकोड़ी, लेकिन भारत पर आर्थिक प्रतिबंध टाइप कार्रवाई नहीं की.
रूस से भारत पहले भी तेल खरीदता था. लेकिन उतना ज्यादा नहीं. इसकी वजह थी रूस से तेल भारत लाने का खर्च. और समय. इसपर उर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा बताते हैं कि रूस से तेल भारत आने में 27 दिन का समय लगता था. उसमें खर्च ज्यादा होता है. यही वजह थी कि हम रूस से कुल आयात का 2 प्रतिशत तेल भी नहीं लेते थे. ये बढ़ा है, इसका कारण सिर्फ ये नहीं कि भारत, रूस का दोस्त है. सीन ये है कि जब दो देश तेल का व्यापार करते हैं तो उसमें उसकी शिपिंग कॉस्ट (माने ढुलाई की लागत), रास्ते में दुर्घटना होने पर उसका बीमा वगैरह किया जाता है. इसमें होने वाला खर्च दोनों पार्टियां मिलकर उठाती हैं. मगर रूस जो तेल भारत को भेज रहा है उसके बीमा और शिपिंग कॉस्ट में रूस हमें छूट दे रहा है.
लेकिन इसमें एक पेच है. 2022 के मध्य में, जयशंकर पश्चिम को बता रहे थे कि भारत रूसी तेल का केवल 1% आयात करता है, लेकिन साल के अंत तक, हम कुल रूसी तेल का 30% आयात करने लगे. इसका फायदा किसे मिला?
पब्लिक सेक्टर के तेल रिफ़ाइनर - मसलन भारत पेट्रोलियम या इंडियन ऑइल, कच्चे तेल से बने उत्पाद - माने पेट्रोल-डीज़ल निर्यात नहीं कर सकते. वहीं, निजी रिफाइनरीज़ पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है. उन्हें बस 65 हज़ार पेट्रोल पंप्स में से 10 हज़ार में तेल की सप्लाई देने की बाध्यता है. उसके बाद वो चाहे जहां तेल बेच सकती हैं. रूस-यूक्रेन जंग से पहले, रिलायंस और नायरा जैसी निजी रिफाइनरियों को इंटरनैशनल मार्केट से कच्चा तेल ख़रीदना पड़ता था, जो कि रूसी तेल की तुलना में काफी महंगा था. अब ये दोनों रिफाइनरियां रियायती दरों पर रूस से तेल आयात करती हैं. और विदेश में माल बेचकर भयानक मुनाफ़ा कमाती हैं.
नायरा गुजरात में स्थित है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से कंपनी का स्वामित्व, प्रमुख रूसी तेल कंपनी रॉसनेफ्ट के पास है. रॉसनेफ्ट ने 2017 में रुइया समूह से एस्सार रिफाइनरी को क़रीब 105 करोड़ रुपए में ख़रीद लिया था. विशेषज्ञ इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि रिलायंस का पहले से ही रूसी कंपनियों से अच्छा संपर्क है.
इसीलिए पूछा जा रहा है कि रूसी तेल वास्तव में किसके लिए सस्ता है? टीएमसी सांसद जवाहर सरकार ने एक लेख लिखकर सरकार को घेरने की कोशिश. लेकिन ये सारे विवाद आंतरिक हैं. माने हमारे देश के भीतर की बात है. हम निपट लेंगे. फिर इस पूरे खेल में EU कहां से टपक गया?
हुआ ये कि तमाम विरोधों के बावजूद भारत ने रूस से तेल खरीदना जारी रखा. सस्ता तेल भारत के लिए नेमत साबित हुआ. भारतीय रिफ़ाइनरियों ने रूस के कच्चे तेल को पेट्रोल-डीजल बनाकर बाहर भेजना शुरू किया. और मज़े की बात ये है, कि इसे खरीदने वालों में सबसे आगे यूरोप ही रहा. एनैलिस्ट फर्म कैप्लर की रिपोर्ट ते मुताबिक, भारत अप्रैल में यूरोप को रिफ़ाइंड ईंधन भेजने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है. इस रिपोर्ट के बाद यूरोप के साथ-साथ रूसी ऑइल रिफाइनरी कंपनियों के लिए मुश्किल पैदा हो गई है. क्योंकि रिफाइनिंग के गेम में भारत ने बढ़त बना ली है.
यूरोपीय देशों के लिए भारत मददगार बना. जिसका फायदा भारत को भी मिला. अब यूरोपीय देशों के बदलते सुरों ने तेल के बाज़ार को एक बार फिर गर्म कर दिया.
तो ये था भारत की हालिया ऑइल इकॉनमी का कच्चा चिट्ठा. कुल जमा बात ये है कि जियोपॉलिटिक्स ने एक मौका पैदा किया है, जिसका इस्तेमाल भारत अपने फायदे के लिये कर रहा है. भारत एक संप्रभु राष्ट्र है और उसे क्या व्यापार करना है, किसके साथ करना है, ये सलाह यूरोप या कहीं और से लेने की आवश्यकता नहीं है. रही बात अंदरूनी राजनीति की, तो उसपर हम भारतीय आपस में बैठकर चर्चा कर लेंगे, कि सस्ते तेल का फायदा किसे और कहां दिया जाना है.
वीडियो: दी लल्लनटॉप शो: रूस के कच्चे तेल का फ़ायदा किसे हो रहा? डॉ जयशंकर ने EU को क्या कह दिया?