कविताओं से जुड़ा हमारा कार्यक्रम ‘एक कविता रोज़’. आज के शो में बात खाली जगहों की. जब से हम पैदा होते हैं तभी से खाली जगहों को भरने की हमारी कोशिश जारी रही है. नवजात थे तो सूना घर किलकारियों से भरते थे, थोड़े बड़े हुए तो मां की शांत दोपहरें शैतानियों से भर दीं. समय गुज़रा, बड़े हुए तो पिता के जूतों को अपने पांव से भर दिया. ये सिलसिला चलता रहा मगर ऐसा कभी भी नहीं हुआ खाली जगहें नहीं बचीं. कुछ न कुछ छूटता ही रहा. एक जगह भरने के बाद दूसरी जगह रिक्त उत्पन्न होता ही रहा. देखिए वीडियो.