बड़े पैकेट की तुलना में कुछ चुनिंदा प्रॉडक्ट के छोटे पैकेट सस्ते क्यों होते हैं?
बाबा आदम के जमाने से इसे लेकर सवाल पूछा जा रहा है.
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एक ही दुकान पर एक ही कंपनी के पाउच वले प्रॉडक्ट और बड़े पैकेट में उपलब्ध प्रॉडक्ट के दाम में अंतर देखने को मिल जाएगा. पाउच जहां सस्ता पड़ता है वहीं बड़े प्रॉडक्ट महंगे. (सांकेतिक फोटो-पीटीआई)
दिल्ली में रहने वाले अनुराग जब सब्जी खरीदने गए, तो उन्होंने भिन्डी का दाम पूछा. सब्जी बेचने वाले ने बताया कि 15 की पाव, 25 की आधा किलो. आधा किलो पर पांच रुपए की बचत हो रही थी, तो अनुराग ने आधा किलो भिंडी खरीद ली. उसी तरह फल के साथ हुआ. फल वाले ने बताया कि आधा किलो सेव 60 रुपए का है, जबकि एक किलो लेने पर 100 रुपए का पड़ेगा.सब्जी और फल लेने के बाद अनुराग राशन लेने के लिए दुकान पर पहुंचे. उन्होंने चावल का दाम पूछा. दुकानदार ने बताया कि ये वाला चावल 80 रुपए किलो है. लेकिन अगर आप पांच किलो का पैकेट लेंगे, तो 370 का पड़ेगा. अनुराग को 30 रुपए की बचत दिखी, तो उन्होंने पांच किलो चावल ले लिया.
अक्सर ऐसा होता है कि ज्यादातर चीजें ज्यादा मात्रा में लेने पर सस्ती पड़ती हैं. आम धारणा भी है कि बड़ा पैकेट सस्ता पड़ता है. लेकिन क्या हर प्रॉडक्ट के साथ ऐसा होता है?

जवाब है- नहीं. कई मामलों में ठीक इसका उल्टा होता है. उदाहरण के लिए विम जेल की बात करते हैं. अनुराग ने 500 एमएल का विम जेल 99 रुपए में खरीदा. लेकिन अगर वो 20-20 रुपए वाले पांच विम जेल लेते, तो 100 रुपए में उन्हें 775 एमएल विम जेल मिलता. इसी तरह से चायपत्ती, शैंपू, बिस्कुट और अन्य कई प्रोडक्ट से साथ होता है. उसके छोटे पैकेट सस्ते पड़ते हैं और बड़े पैकेट महंगे. कुछ और उदाहरण देखिए.
टाटा टी प्रीमियम का 100 ग्राम का पाउच 30 रुपये में मिलता है, जबकि 500 ग्राम का पैकेट 250 रुपये का है. इसी तरह अपनी बच्ची के लिए डायपर लेने गए हमारे एक दोस्त ने बताया कि आठ पीस वाला डायपर सस्ता पड़ा, जबकि बड़ा पैकेट महंगा पड़ रहा था. आप गौर करेंगे, तो ऐसे कई प्रॉडक्ट मिल जाएंगे. आपने भी अनुभव किया होगा.
सवाल बहुत पुराना है कि ऐसा होता क्यों है? मैंने कुछ लोगों को फेसबुक पर छोटे पैकेट सस्ते होने और बड़े पैकेट महंगे होने पर चर्चा करते देखा. फिर सोचा कि क्यों न इसका जवाब तलाशा जाए.
हमने बात की शुभोजीत से. कई कंपनियों में मार्केटिंग हेड रह चुके हैं. अब खुद की मार्केटिंग कंसल्टेंसी चलाते हैं. उन्होंने बताया-
अगर आप कॉस्ट के हिसाब से देखेंगे, तो छोटे पैकेट ग्राम टू ग्राम ज्यादा महंगे होंगे. उदाहरण के लिए आप शैंपू को ही ले लीजिए. अगर 10 एमएल शैंपू आप सैशे (पाउच) में डाल रहे हैं, तो पैकेजिंग कॉस्ट, ट्रांसपोर्ट का कॉस्ट और अन्य कॉस्ट 10 एमएल पर ज्यादा होगा, बजाय 500 एमएल के. 500 एमएल के बोतल पर हर 10 एमएल का पैकेजिंग कॉस्ट कम हो जाएगा. कंपनी के लिए छोटे पैकेज में कॉस्ट हमेशा ज्यादा होता है. लेकिन कुछ कंपनियां ऐसी स्टैटजी बनाती हैं कि प्राइस कम रखा जाए. मेरे हिसाब से ये सही स्ट्रैटजी नहीं है.उन्होंने आगे बताया,
लेकिन सभी लोगों के पास इतने पैसे नहीं होते कि वो शैंपू का बड़ा बोतल खरीद सकें. ऐसे में पूरी तरह से कस्टमर को खोने की बजाय अगर कुछ कस्टमर 5-10 या एक रुपए देकर पाउच खरीदें, तो कंपनी का एक्स्ट्रा बिजनेस हो जाता है, जो फायदेमंद होता है. हालांकि कंपनी का परसेंटेज प्रॉफिट कम हो जाएगा, लेकिन ओवरऑल प्रॉफिट ज्यादा हो जाएगा. इसलिए इस तरह की कंपनियां ये तरीका अपनाती हैं.शुभोजीत ने आगे बताया,
मान लीजिए कि 10 रुपए के पैकेट पर एक रुपए का प्रॉफिट हुआ, तो उसका 10 पर्सेंट प्रॉफिट बनता है. लेकिन परसेंटेज प्रोबेबिलिटी बड़े पैक में हमेशा ज्यादा होगी. लेकिन कंपनियां कुछ ऐसे फैसले लेती हैं कि छोटे पैकेट को कम दाम में बेचें, ताकि ज्यादा कस्टमर्स तक पहुंच पाएं. मान लीजिए कि किसी शहर में 1000 लोग हैं. उनमें से सिर्फ 50 लोग 100 रुपए की शैंपू की बोतल खरीदने की क्षमता रखते हैं. लेकिन 500 लोगों की क्षमता एक रुपए का पैकेट खरीदने की है. ऐसे में परसेंटेज प्रॉफिट कम हो गया, लेकिन कंपनी का ओवरऑल बिजनेस ज्यादा हो गया. बिजनेस की रीच बढ़ गई.उनका कहना है कि कॉस्ट बेनिफिट एनालसिस काफी लोग करते हैं. कि शॉर्ट टर्म में मैं अपना परसेंटेज प्रॉफिट कम रखूंगा, लेकिन मेरा बिजनेस बढ़ जाएगा.
तो क्या छोटे पैकेज में कंपनियां क्वालिटी से समझौता करती हैं?
इस बारे में शुभोजीत का कहना है कि ये बाहर से बोलना मुश्किल है. हालांकि मार्केट में इस तरह के रूमर्स जरूर होते हैं कि कंपनियां छोटे पैकेट में क्वालिटी से समझौता करती हैं, क्वालिटी खराब होती है.
लगभग 25 साल से बिजनेस से जुड़े और Fast-Moving Consumer Goods (FMCG) के उत्तर प्रदेश के प्रेसिडेंट विनोद कुमार अग्रवाल का कहना है,
कंपनियों के प्रतिनिधि अक्सर बातचीत में बताते हैं कि कंपनियों का कहना होता है कि हमें अपने ब्रांड को भारत के कोने-कोने तक पहुंचना है. अमीर से लेकर गरीब तक अपना प्रॉडक्ट बेचना है. इसलिए एक रुपए की चीज में प्रॉफिट नहीं जोड़ते हैं. मान लीजिए की एक रुपए में अगर कोई चीज हम आठ एमएल दे रहे हैं, लेकिन 100 एमएल का बोतल 30 रुपए में दे रहे हैं, तो पाउच तो सस्ता पड़ रहा है, लेकिन बोतल महंगा. लेकिन हर कोई बोतल नहीं खरीद सकता, पर पाउच खरीद सकता है. ये कंपनियों की मार्केट स्ट्रैटजी होती है.विनोद का कहना है कि हालांकि क्वालिटी को लेकर कोई बात नहीं करना चाहता, लेकिन दबी जुबान में क्वालिटी कंप्रोमाइज की बात की जाती है. पाउच या छोटे पैकेज में क्वालिटी से समझौते की बात कुछ कंपनियों के प्रतिनिधि करते हैं.
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