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लोकसभा चुनावों से 6 महीने पहले 'एक देश, एक चुनाव' पर क्यों जोर दे रही मोदी सरकार?

केजरीवाल बोले, 'हर छह महीने में जनता से वोट मांगने से पीएम मोदी डरते हैं इसलिए ऐसा कर रहे हैं.'

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one nation one election
एमके स्टालिन का कहना है कि one nation one election भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ है
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आयूष कुमार
4 सितंबर 2023 (Updated: 4 सितंबर 2023, 10:57 PM IST) कॉमेंट्स
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India, that is Bharat, shall be a Union of States.

ये देश के संविधान के अनुच्छेद एक में लिखा है. ये देश की परिभाषा है कि एक राष्ट्र के रूप में भारत क्या है? जवाब है कि भारत राज्यों का एक संघ है.

संविधान का यही वाक्य अब एक बड़े राजनीतिक और संवैधानिक संघर्ष के केंद्र में है. ये संघर्ष है - One Nation One Election यानी एक देश, एक चुनाव का. बहस हो रही है और लेख लिखे जा रहे हैं कि जब एक देश है, तो इस देश में एक ही चुनाव क्यों न हो? मतलब सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव क्यों न एकसाथ करा दिए जाएं? एक ही चुनावी बूथ में दो मशीनें होंगी. मतदाता एक मशीन में सांसद चुने, दूसरी में विधायक. 11 घंटे की वोटिंग में प्रधानमंत्री भी तय हो जाएगा और सारे मुख्यमंत्री भी. सुनने में प्रक्रिया बहुत आसान है, तुरंत लागू करने लायक लगती है, लेकिन इसे पूरी संजीदगी के साथ समझना होगा. साथ में परखना होगा देश के इतिहास को... ऐसी पुरानी कोशिशें कहां जाकर ख़र्च हो गईं? 

One Nation One Election की बहस देश के लिए नई नहीं है. पहले भी बहसें होती रही हैं. लेकिन इस समय सत्तासीन भाजपा के सामने एक बड़ा अलायंस है, और उसकी ओर से विरोध के स्वर उठने लगे हैं. कैसे उठे विरोध के स्वर? इसके लिए घटनाक्रम समझना होगा.

31 अगस्त 2023. इस दिन केंद्र सरकार ने संसद के विशेष सत्र का आह्वान किया. 18 से 22 सितंबर 2023 तक. ये विपक्षियों को चौकन्ना करने वाली जानकारी थी. बिना किसी तैयारी के उन्हें एक संसद सत्र में बैठना था.

फिर इसके अगले दिन यानी 1 सितंबर 2023 को केंद्र सरकार ने  One Nation One Election के लिए एक हाई लेवल कमिटी का गठन किया. कमिटी की अध्यक्षता सौंपी गई पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द को. और कोविन्द के अलावा सात लोग शामिल किये गए

1- केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह

2 - पूर्व नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद

3 - 15वें फाइनैन्स कमीशन के चेयरमैन रहे एनके सिंह

4 - लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल सुभाष सी कश्यप

5 - वरिष्ठ वकील हरीश सालवे

6 - पूर्व चीफ विजलन्स ऑफिसर संजय कोठारी

7 - कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, जिन्होंने अपना नाम वापस ले लिया, इसकी कहानी आगे....


आठ लोगों की इस कमिटी में कानून व न्याय मंत्रालय में स्वतंत्र प्रभार के राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल को सरकार ने स्पेशल इन्वाइटी तैनात किया है, वो इस हाई-लेवल की कमिटी की मीटिंग में शामिल होंगे. वहीं डिपार्टमेंट ऑफ लीगल अफेयर्स से जुड़े भारत सरकार के सेक्रेटरी इस कमिटी के भी सचिव होंगे.

कमिटी की घोषणा होने के अगले ही दिन सरकार द्वारा कमिटी के बाबत गजट पत्र भी जारी कर दिया गया. सदस्यों की घोषणा के साथ जो बातें लिखी गईं, उन पर ध्यान देना जरूरी है. कहा गया -

"साल 1951-52 से लेकर 1967 तक देश के लोकसभा चुनाव और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए, जिसके बाद ये चक्र टूट गया. जिसके बाद देश में हर साल चुनाव होने लगे और कई बार तो एक साल में कई बार चुनाव होने लगे. इससे सरकार और दूसरे स्टैकहोल्डर्स का खर्च बढ़ा. अपने प्राथमिक काम से हटकर चुनाव अधिकारियों और सुरक्षा बलों को लंबे समय तक चुनाव में अपनी भूमिका निभानी पड़ी. साथ ही आदर्श आचार संहिता के बार-बार लागू होने से विकास कार्यों में भी बाधा पहुंचती है."

इसके बाद गजट में लॉ कमीशन की 170वीं रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया कि हर साल चुनाव कराने के चक्र को रोक देना चाहिए. और विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ कराने चाहिए.

गजट के मुताबिक इस कमिटी का काम होगा कि वो इस बात की जांच और संस्तुति करें कि भारत में लोकसभा, विधानसभा, निगम और पंचायत चुनाव एक साथ कराए जाएं. ध्यान दें कि केंद्र सरकार पंचायत चुनाव तक के चुनाव लोकसभा के साथ कराने की दिशा में विचार कर रही है. इस मुहिम को साकार करने के लिए सरकार ने ये भी कहा है कि ये हाई लेवल कमिटी जरूरी संविधान संशोधनों का भी सुझाव दे.

संशोधन की ये संस्तुति representation of people act 1950 और 1951 में की जाएगी.

इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर बताती है कि कोविन्द की नाम की घोषणा के पहले उनसे हाई-प्रोफ़ाइल विज़िटर मिलने पहुंचे थे - जैसे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और लोकसभा स्पीकर ओम बिरला.

फिर शुरु हुआ विवाद. इस कमिटी का गजट जारी होने के कुछ ही घंटों के भीतर अकेले विपक्षी नेता अधीर रंजन चौधरी ने कमिटी से अपना नाम वापस लेने का एलान कर दिया. अधीर रंजन चौधरी ने गृहमंत्री अमित शाह को चिट्ठी लिखकर अपनी नाराजगी जताई और कहा कि कमिटी बनाने की पूरी कार्रवाई ‘आईवॉश’ है. फौरी अनुवाद करें तो ये खानापूर्ति है. अधीर रंजन चौधरी ने ये भी कहा कि लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीनों पहले सरकार का ऐसा कदम सरकार की ही मंशा पर सवाल उठाता है.

लेकिन अधीर रंजन चौधरी अकेले ऐसे नेता नहीं हैं, जिन्होंने One Nation One Election की टाइमिंग और फ्रेमवर्क पर सवाल उठाए हों. कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे ने X (जिसे पहले ट्विटर कहा जाता था) पर एक लेख लिखा है. खड़गे ने कहा है कि सभी चुनाव एक साथ कराने के लिए संविधान में कम से कम 5 संशोधन करने होंगे.

खड़गे ने कहा है कि साल 2014 से 2019 के बीच हुए तमाम चुनावों के बीच सरकार के 5500 करोड़ रुपये खर्च हुए, जो कि सरकार के बजट का बहुत छोटा सा हिस्सा हैं. ऐसे में पैसा बचाने का तर्क मूर्खतापूर्ण लगता है. वहीं अगर आदर्श आचार संहिता की वजह से विकास कार्यों में बाधा आ रही है तो उसकी समयावधि कम की जा सकती है, या आचार संहिता के समय कुछ विकास संबंधी कामों की छूट दी जा सकती है.

फिर कांग्रेस के बाहर से भी One Nation One Election को लेकर विरोध के स्वर उठने लगे. DMK अध्यक्ष, तमिलनाडु के सीएम और "सनातन धर्म को खत्म कर देना चाहिए" कहने वाले उदयनिधि स्टालिन के पिता एमके स्टालिन ने अपने संबोधन में कहा है कि भाजपा का One Nation One Election का पुश भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ है. One Nation One Election लोकतंत्र की नहीं, बल्कि तानाशाही की रेसिपी है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी केंद्र सरकार पर निशाना साधा. कहा कि अगर 9 सालों तक पीएम रहने के बाद भी पीएम मोदी को One nation One Election के नाम पर वोट मांगना पड़ रहा है, तो इसका मतलब उन्होंने कोई काम नहीं किया है. और पीएम मोदी को डर लगता है कि उन्हें हर साल 6 महीने में जनता के बीच जाकर चुनाव का सामना करना पड़ता है.

राहुल गांधी ने भी एक साथ चुनाव कराने की जुगत को देश के संघीय ढांचे के खिलाफ करार दिया.

इसके पहले समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी One Nation One Election को लेकर अपनी चिंता ज़ाहिर की थी. 2019 में उन्होंने कहा था कि बहुमत वाली सरकार को जनता से किए वादों पर काम करना चाहिए. ये जो वन नेशन वन इलेक्शन है, तमाम कई ऐसे दल हैं जो कभी इसके पक्ष में नहीं आएंगे.

बसपा प्रमुख मायावती ने भी One Nation One Election को लेकर अपनी नाराजगी ट्वीट के जरिए ज़ाहिर की थी. साल 2019 में उन्होंने ट्वीट किया था और कहा था कि

किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनाव कभी कोई समस्या नहीं हो सकती है और न ही चुनाव को कभी धन के व्यय-अपव्यय से तौलना उचित है. देश में ’एक देश, एक चुनाव’ की बात वास्तव में गरीबी, महंगाई, बेरोजबारी, बढ़ती हिंसा जैसी ज्वलन्त राष्ट्रीय समस्याओं से ध्यान बांटने का प्रयास व छलावा मात्र है.

यानी विपक्षी इस अवधारणा के विरोध में हैं कि सारे चुनाव एक साथ हों. कयासबाजों को भी समय मिला है. बात होने लगी है कि अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव इस साल दिसंबर तक खत्म हो जाएंगे. छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, मिजोरम और तेलंगाना के चुनावों के साथ. सरकार की मानें तो सरकार की फिलहाल ऐसी कोई योजना नहीं है. जैसा केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने इंडिया टुडे के साथ बातचीत में दावा किया.

लेकिन वन नेशन-वन इलेक्शन सरकार के एजेंडा में है या नहीं, और ये आगामी स्पेशल सेशन में पेश किया जाएगा या नहीं,.. इस पर अनुराग ठाकुर ने कुछ नहीं कहा. यानी उस पर स्थिति थोड़ी कंफ्यूज़न वाली है. लेकिन एजेंडे में है या नहीं वाला सवाल प्रधानमंत्री मोदी के पुराने बयानों से साफ हो जाता है. ताज़ा उदाहरण 15 अगस्त 2023 का है. लाल किले से बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा -

"आज देश में व्यापक रूप से चर्चा चल रही है. एक देश एक साथ चुनाव. ये चर्चा होनी चाहिए लोकतांत्रिक तरीके से होनी चाहिए और कभी ना कभी एक भारत श्रेष्ठ भारत का सपना साकार करने के लिए हमें और भी ऐसी चीजें जोड़नी होंगी."

और प्रधानमंत्री मोदी ने अभी ही नहीं, पहले भी कई मौकों पर एक देश एक चुनाव पर अपनी राय ज़ाहिर की है. यानी सरकार की मंशा इसे लागू करने की तो है, लेकिन सवाल है कि भारत जैसे राज्य में जहां 7 राष्ट्रीय पार्टियां और 50 से ज्यादा क्षेत्रीय पार्टियां हैं, 28 राज्य हैं, क्या वहां पहले ऐसे प्रयास नहीं किये गए?

इतिहास के व्याकरण में समझते हैं.

देश की आज़ादी के बाद संविधान लागू हुआ 26 जनवरी 1950 को. इसके बाद साल 1951-1952 में देश का पहला आम चुनाव और सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव साथ हुए. अगले 15 सालों तक ये क्रम चलता रहा. अपवाद था साल 1959, जब केरल की तत्कालीन नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा. फिर 1960 में केरल में विधानसभा चुनाव हुए. वन नेशन वन इलेक्शन से अलग. इसका ब्यौरा आपको निधि शर्मा की किताब शी, द लीडर में मिल जाएगा. अपवाद के साथ बात करें तो तीन बार वन नेशन वन इलेक्शन हुए. 1957, 1962 और 1967 में. क्रम भंग हुआ 1967 में हुए चुनाव के बाद. 1968 और 1969 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं भंग कर दी गईं और आखिर में साल 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई. यहां से चुनाव अलग-अलग होने लगे. साथ ही कई मौकों पर कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगे. हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित उत्कर्ष आनंद की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 1966 से लेकर 1977 तक देश में अलग-अलग मौकों पर 39 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया. चुनाव का क्रम और टूट गया. साल 1983 में जाकर केंद्रीय चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया. कारण वही - खर्च और सुविधा. हालांकि तब ये रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई थी.

कुछ सालों तक सब ऐसा चलता रहा. साल 1999 में जाकर इस बहस ने फिर से तूल पकड़ी. जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने अपनी 170वीं रिपोर्ट जारी की. ये वही रिपोर्ट है, जिसका ज़िक्र केंद्र सरकार ने अपने हालिया गजट में किया है.

इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा -

- आर्टिकल 356, जो कि राष्ट्रपति शासन से जुड़ संविधान का अनुच्छेद है-- और राज्यपालों की ओर से विधानसभा भंग किए जाने की वजह से लोकसभा और विधानसभा चुनावों का चक्र भंग हुए

- जिन कारणों से राष्ट्रपति शासन लगाए गए, उनका आकलन पहले से तो नहीं किया जा सकता, लेकिन इसी वक्त में राज्य के विधानसभा चुनाव कराना एक अपवाद हो, नियम नहीं

- नियम होना चाहिए कि हर साल पांच साल में एक लोकसभा चुनाव हो और हर राज्य के विधानसभा चुनाव हों.

- हर साल चुनाव के चक्र को भंग करना चाहिए, सभी चुनाव एक साथ कराने के समय में वापस लौटना होगा

कमीशन ने आगे सुझाव दिए -

- ऐसा एक रात में नहीं ही सकता है, लेकिन चुनावी कैलेंडर में कुछ परिवर्तन और संविधान में संशोधन करके एक साथ चुनाव करने की ओर बढ़ा जा सकता है.

- कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाने या घटाने पर भी विचार किया जा सकता है, बशर्ते राज्य सरकारें और पार्टियां सहमत हों

- लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराए जाएं, लेकिन जब तक विधानसभा का कार्यकाल खत्म न हो जाए, तब तक उसके नतीजे को गुप्त रखा जाए.

1999 से आगे बढ़ें तो आएं 2015 में. इस साल संसदीय स्थाई समिति ने भी अपनी 79वीं रिपोर्ट में कहा कि विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव साथ कराएं तो खर्च बेहद कम किया जा सकेगा. साथ ही सेवाओं में आदर्श आचार संहिता की वजह से दिक्कत आती है, उससे बचा जा सकेगा.

फिर आता है साल 2017. नीति आयोग ने अपने पर्चे "Analysis of Simultaneous Elections : the What, Why and How?" में भी बारहा हो रहे चुनावों के बारे में उन्हीं दो सूचकांकों पर बात की - ख़र्च और आदर्श आचार संहिता. साथ ही कहा कि परमानेन्ट चुनावी मोड से बाहर आकर एक बड़ा बदलाव होगा, जिससे सरकारों के पास अगले चुनाव की चिंता किए बगैर काम करने का समय होगा.

इसके बाद आता है 2018. इस साल लॉ कमीशन ने एक ड्राफ्ट रिपोर्ट प्रकाशित की. इस बार अध्यक्षता थी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बीएस चौहान के पास. अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में इस कमीशन ने कहा -

- साथ चुनाव करने से पैसों की बचत होगी, सुरक्षाबलों और प्रशासनिक अमलों पर से बोझ कम होगा

- लेकिन साथ चुनाव कराने की अनुशंसा करने के पहले राजनीतिक पार्टियों और तमाम स्टेकहोल्डर्स से संवाद करना होगा

- मौजूदा संवैधानिक ढांचे के साथ एक साथ चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं, उचित संशोधन करने होंगे

इस कमीशन ने साथ चुनाव कराने के लिए तीन ऑप्शन दिए

ऑप्शन 1 - कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव या तो कार्यकाल समाप्ति से पहले कराए जाएं या तो समाप्ति की सीमा के बाद

ऑप्शन 2 -  13 राज्यों के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराए जाएं, और बचे हुए राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के चुनाव ढाई साल बाद (यानी जब लोकसभा का कार्यकाल आधा बीता हो)

ऑप्शन 3 - एक साल में पड़ने वाले सभी चुनावों को एक साथ ही कराया जाए, अलग-अलग मौकों पर नहीं.

साल 2022 में लॉ कमीशन ने भी 2018 की इस ड्राफ्ट रिपोर्ट का हवाला दिया और कहा कि एक साथ चुनाव कराना हर तरीके से आदर्श है.

यानी बात साफ़ है कि सभी कमीशन और कमिटियों ने कहा है कि ऐसा किया जाना चाहिए, और सभी ने अपने-अपने रास्ते गिनाए और सभी ने कहा कि ऐसा करने के लिए जरूरी संविधान संशोधन किये जाने चाहिए. यानी यदि मोदी सरकार एक देश एक चुनाव की राह पर बढ़ती है तो संविधान संशोधन की ओर बातें जाएंगी, और संसद के पटल पर इसे रखा जाएगा.

यानी कानूनी कमीशंस ने कहा कि इसे लागू करना चाहिए लेकिन एक मतदाता के अधिकार भी हैं, कमीशन ने क्या इस पर कोई सुनवाई की? इस पर कोई बात की? देश जहां मतदाता के अधिकार सतत प्रयोग में रहते हैं, अपनी पंचायत से लेकर अपने प्रधानमंत्री तक वो चुनता है, लगातार चुने प्रतिनिधियों की रपट लेता रहता है, क्या होगा जब उसे अपने पार्षद के साथ अपने सांसद को चुनना होगा? उसके खाँटी क्षेत्रीय मुद्दे कितने मजबूत रहेंगे?

इसके पक्ष में तर्क देने वाले कह रहे हैं कि इससे खर्च कम होगा, और आचार संहिंता की वजह से विकास कार्य नहीं रुकेंगे. विरोधी कह रहे हैं कि वन नेशन वन इलेक्शन देश के संघीय ढांचे के खिलाफ है, क्योंकि संविधान में लिखा है भारत राज्यों का एक संघ है. और क्या इस गतिरोध में संविधान के चोटिल होने की गुंजाइश है?

अगर विवेकपूर्ण तर्क तलाशा जाए तो ये कहना सही होगा कि देश में चुनाव जितना कम समय लें, उतना सही होगा. सरकारी स्कूलों और ऑफिस के कर्मचारी चुनाव ड्यूटी में कुछ कुछ दिनों पर नहीं खपेंगे, तमाम संसाधन नहीं खपेंगे, सीमित संसाधनों में बहुत सारे काम कराए जा सकेंगे. लेकिन अगर ये बात सही है कि पार्टियां अपनी सरकार पर संकट देखकर एक साथ चुनाव, चुनावी खर्च की चिंताएं पालती हैं, या विपक्षी को डीरेल करने की कोशिश में विरोध या समर्थन की भाषा चुनती हैं, तो सही शिनाख्त जरूरी है. शिनाख्त इसकी कि लोकतंत्र का हितैषी कौन है? 

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