हमारी धरती पर सात महाद्वीप हैं. सबकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं. हर कोई अलग-अलग वजह से चर्चा में आता है. कभी-कभार मातम की ख़बर आती है तो बहुधा अच्छी ख़बरें भी आ जाती हैं. कभी खुशी, कभी ग़म वाला सिस्टम है. लेकिन इन सबमें अफ़्रीका की कहानी निराली है. सिविल वॉर, तख़्तापलट, भुखमरी, नरसंहार, अकाल, पलायन आदि अफ़्रीका का कीवर्ड्स बन चुके हैं.
हालिया मामला पूर्वी अफ़्रीका का है. यहां सूखा पड़ा है. लगभग ढाई करोड़ की आबादी पर मौत की तलवार लटक रही है. पानी के अभाव में हज़ारों जानवर मारे जा चुके हैं.
आज जानेंगे, पूर्वी अफ़्रीका का पूरा मामला क्या है? और, इससे कैसे बचा जा सकता है?
और, बताएंगे दो डॉक्यूमेंट्रीज़ की कहानी, जो इस समय ख़ूब चर्चा में है. पहली डॉक्यूमेंट्री तुर्की में महिलाओं के शोषण पर बेस्ड है. इसे ब्रिटेन ने ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया है.
दूसरी डॉक्यूमेंट्री एक नेपाली पर्वतारोही की कहानी सुनाती है. सात महीने में दुनिया की 14 बड़ी चोटियां. ये अपने आप में एक रेकॉर्ड है. कौन है वो? सब विस्तार से बताएंगे.
अपने मन में एक दृश्य की कल्पना कीजिए. खेतों में दरार पड़ी है. फसल पीली पड़ चुकी है. हवा ख़ुश्क है. सड़कों पर धूल उड़ रही है. किनारे पर कतारें है. पानी की आस में तड़प-तड़प कर जान तोड़ चुके जानवरों की. जो ज़िंदा बचे हैं, वे भटक रहे हैं. इंसानों के साथ. नई उम्मीद में.
ये किसी हॉरर फ़िल्म की कल्पना नहीं है. ये हक़ीक़त में हो रहा है. केन्या, सोमालिया, जिबूती, इथियोपिया, मैडागास्कर जैसे देशों में ये दृश्य दिनचर्या का हिस्सा बन चुके हैं.
पूर्वी अफ़्रीका के देश पिछले दस सालों के सबसे भयानक सूखे का सामना कर रहे हैं. इससे बुरे हालात साल 2011 में देखे गए थे. उस दौरान सूखे के चलते लगभग 02 लाख 60 हज़ार लोगों की जान गई थी.
2021 का साल पूर्वी अफ़्रीका के लिए लोगों के लिए वही चुनौतियां लेकर आया है. इस समस्या के पीछे की बड़ी वजह ग्लोबल वॉर्मिंग है. इसकी वजह से ला नीना इफ़ैक्ट ज़ोर पकड़ रहा है. इससे पश्चिमी प्रशांत महासागर गर्म होता है. जिसके कारण इंडोनेशिया और आस-पास के इलाकों में बारिश का स्तर बढ़ गया है. जबकि पूर्वी अफ़्रीका के देशों में औसत से काफ़ी कम वर्षा हो रही है.
पूर्वी अफ़्रीका में बारिश के दो मौसम होते हैं. पहला, मार्च से मई तक. और दूसरा मौसम अक्टूबर से दिसंबर तक चलता है. 1999 से पहले तक पांच-छह बरस में शायद एक बार बारिश नहीं होती थी. लेकिन अब ये पैटर्न पूरी तरह बदल गया है. अब हर दूसरे साल बारिश का सीज़न सूखे में निकल रहा है.
वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम (WFP) ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि क्लाइमेट चेंज़ की वजह से पहला अकाल मैडागास्कर में पड़ सकता है. मैडागास्कर हिंद महासागर में बसा है. ये दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से एक है. 2018 में इस देश के आधे से अधिक बच्चे कुपोषण का सामना कर रहे थे.
एक दिसंबर को वैज्ञानिकों ने नई रिपोर्ट पेश की. इसमें उन्होंने कहा कि सिर्फ़ क्लाइमेट चेंज़ को दोष देना ठीक नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि इस दोषारोपण से स्थानीय सरकारें बेफ़िक्र हो जातीं है. जबकि समस्या को दूर करने की पहली ज़िम्मेदारी उन्हीं की है.
सूखा अपने-आप में एक पूर्ण प्राकृतिक आपदा है. ये अकेले दम पर इंसानों को असहाय साबित करने के लिए काफ़ी है. लेकिन पूर्वी अफ़्रीका में इसका दायरा अचानक बढ़ जाता है. इथियोपिया में सिविल वॉर की स्थिति है. पिछले एक साल से टिग्रे पीपुल्स लिबरेशन फ़्रंट (TPLF) और केंद्र की सेना के बीच जंग चल रही है. हज़ारों लोग पलायन कर चुके हैं. सूडान में पिछले एक साल में दो बार तख़्तापलट हो चुका है. सोमालिया में भी कमोबेश यही हालात हैं.
इसके अलावा, कोरोना महामारी तो है ही. अफ़्रीकी महाद्वीप में वैक्सीनेशन की दर बेहद कम है. जिस तरह से कोरोना के नए वेरिएंट सामने आ रहे हैं, अमीर देशों ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं. अफ़्रीका के देशों की बस कल्पना ही की जा सकती है.
सूखे की वजह से फसल का उत्पादन घट गया है. इससे बुनियादी चीज़ों के दाम अचानक से बढ़ गए हैं. एक तरफ़ आमदनी कम और ऊपर से महंगाई. लोगों के पास बचकर निकलने के लिए कोई जगह नहीं है. अगर वे सूखे से बचते हैं तो सिविल वॉर में मारे जा सकते हैं. अगर सिविल वॉर से बच गए तो ग़रीबी उनकी जान ले सकती है. उनका भविष्य अनिश्चित है.
पूर्वी अफ़्रीका की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जानवरों पर निर्भर है. लगभग 70 प्रतिशत. सूखे की वजह से जानवर मर रहे हैं. इससे लोगों की रोजी-रोटी का ज़रिया खत्म हो रहा है. वन्यजीव पानी की आस में गांवों में घुस रहे हैं. इसके चलते इंसानों से उनके टकराव की आशंका बढ़ गई है.
जानकारों का अनुमान है कि अधिकतम 2022 की शुरुआत तक ये देश इस आपदा को झेल पाएंगे. अगर तब तक बारिश नहीं हुई या बाहर से मदद नहीं पहुंची तो क़यामत तय है.
इस संभावित आपदा से निपटने के तात्कालिक उपाय क्या हैं?
जानकारों के मुताबिक, घुमंतू क़बीलों और किसानों को आर्थिक मदद दी जाए तो वे ख़ुद को और अपने जानवरों को ज़िंदा रख पाएंगे. किसानों के बीच ऐसे बीज बांटने की ज़रूरत है, जो कम पानी में भी पनप सकें. सामाजिक कार्यकर्ता जानवरों के इलाज के लिए कैंपेन चलाने की सलाह भी दे रहे हैं. इसके अलावा, साफ़ पानी की सप्लाई बढ़ाने की भी आवश्यकता है.
ये सारे उपाय कुछ समय के लिए राहत दे सकते हैं. इतने में आगे की प्लानिंग के लिए वक़्त मिल जाएगा. लॉन्ग टर्म के लिए क्या उपाय हैं?
सबसे पहले तो सभी देशों को क्लाइमेट चेंज़ को लेकर सजग होना होगा. ग्लासगो में हुए कॉप-26 से दुनिया को बहुत सारी आशाएं थीं. लेकिन ये उम्मीद बेमानी साबित हुई. अमीर देश अभी इस खुशफहमी में हैं कि वे पैसे के दम पर हर समस्या से निपट लेंगे. मुझे दूसरों से क्या मतलब? लेकिन ये सोच आत्मघाती है.
क्लाइमेट चेंज़ के लिए हर कोई ज़िम्मेदार है और इसका असर हर किसी पर पड़ेगा. आज नहीं तो कल. अफ़्रीका के देशों के पास पैसे और संसाधन की कमी है. इस वजह से उन्हें अधर में नहीं छोड़ा जा सकता.
जब कभी अफ़्रीका में सूखे या अकाल की भयावह रिपोर्ट जारी होती है, पश्चिमी देश डोनेशन की भरमार लगा देते हैं. इस डोनेशन का जमकर पीआर भी होता है. ये देश ख़ुद की पीठ भी थपथपा लेते हैं. यहां पर दो बड़ी समस्याएं हैं.
पहली, अफ़्रीका की बदहाली के सबसे बड़े ज़िम्मेदार यही देश हैं. उन्होंने अफ़्रीकी सभ्यता को बर्बाद किया. संसाधनों को लूट कर अपना चेहरा चमकाया. जब मन भर गया तो मुंह फेरकर निकल गए. इसके बाद उन्होंने लूट का नया रास्ता अपनाया. इन देशों ने अफ़्रीका में कठपुतली सरकारें बिठाई.
ताकि उनके हित बरकरार रहें. इसके लिए उन्होंने तख़्तापलट से लेकर नरसंहार तक को शह दी. इसके चलते ये देश कभी विकसित नहीं हो पाए. उन्हें आज भी मदद के लिए लुटेरों की तरफ़ देखना पड़ता है.
इसलिए, अगर अमेरिका या यूरोप के देश मदद देते हैं तो ये उनका अहसान नहीं है. उन्हें इसका प्रायश्चित होना चाहिए.
दूसरी बात ये कि मदद का सही जगह पर इस्तेमाल ज़रूरी है. इसके लिए एक मैकेनिज़्म बनाना ज़रूरी है. सिर्फ़ पांच किलो गेहूं और दो किलो चीनी देने से बात नहीं बनेगी. ये एक रूपक है. जो कई देशों की सरकारें अहसान जताने के लिए बांटती रहती हैं. अगर आप समस्या की जड़ में पहुंचने की बजाय फुनगियां काटते रहेंगे तो ये कभी खत्म नहीं होने वाला.
आज के समय में तकनीक काफी विकसित हो चुकी है. हम आने वाले सालों के मौसम का अनुमान पहले ही लगा सकते हैं. इस साल के सूखे की चेतावनी 2020 में ही दे दी गई थी. इसके बावजूद कोई कदम नहीं उठाया गया.
जो भी सरकारें और संस्थाएं इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, उन्हें दीर्घकालिक उपायों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. वरना हम हर साल इसी मुद्दे को दोहराते रहेंगे. तब तक, जब तक कि अंत नहीं हो जाता.
ये तो हुई पूर्वी अफ़्रीका की बात. अब चलते हैं वीकेंड स्टोर की तरफ़.
इस समय दो कमाल की डॉक्यूमेंट्रीज़ चर्चा में हैं. इन्हें आप इस वीकेंड देख सकते हैं. बहुत कुछ जानने-समझने और सीखने को मिलने वाला है.
पहली डॉक्यूमेंट्री है, डाइंग टू डिवोर्स. इसकी कहानी तुर्की की है. तुर्की में हर तीन में से एक महिला ने कभी ना कभी घरेलू हिंसा का सामना किया है. इसके अलावा, हर साल सैकड़ों महिलाओं की हत्या भी हो रही है.
2020 में तुर्की में पुरुषों ने तीन सौ महिलाओं की हत्या की. इस साल ये आंकड़ा 285 तक पहुंच चुका है. आशंका है कि 2021 खत्म होते-होते ये पिछले साल से आगे निकल सकता है.
तुर्की में लगभग तानाशाही चल रही है. 2016 में तख़्तापलट की असफ़ल कोशिश के बाद से राष्ट्रपति तैय्यप अर्दोआन निरंकुश ही हुए हैं. अर्दोआन आलोचकों को ठिकाने लगाने के लिए कुख़्यात हैं. महिलाओं को लेकर अर्दोआन ने एक बार कहा था,
‘पुरुष और महिला को समान अधिकार नहीं दिए जा सकते. ये प्रकृति के ख़िलाफ़ है.’
इसी तुर्की में कुछ महिलाएं व्यवस्था के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले हुए हैं. डाइंग टू डिवोर्स ऐसी ही महिलाओं की कहानी बयां करती है. एक वकील है. दूसरी सामाजिक कार्यकर्ता है. वे हिंसा की शिकार महिलाओं और उनके परिवार वालों की मदद करतीं हैं. न्याय हासिल करने के लिए. उनके प्रयासों से कई दोषियों को सज़ा भी हुई है.
ये डॉक्यूमेंट्री पांच सालों की शूटिंग के बाद तैयार हुई. इसमें आपको पीड़ित महिलाओं की दिल दहलाने वाली कहानियां मिलेंगी. साथ ही, न्याय के लिए लड़ने का उनका ज़ोरदार हौसला भी.
डाइंग टू डिवोर्स का निर्देशन किया है, ब्रिटिश डायरेक्टर क्लोइ फ़ेयरवेदर ने. इसमें तुर्की के फ़िल्मकारों ने भी उनकी मदद की है. डॉक्यूमेंट्री को कई प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिल चुके हैं.
अब ब्रिटेन ने इसको ऑस्कर में भेजने का फ़ैसला किया है. डाइंग टू डिवोर्स को बेस्ट इंटरनैशनल फ़ीचर फिल्म की केटेगरी में नॉमिनेट किया गया है. ये ब्रिटेन की आधिकारिक एंट्री है. अगला स्टेप शॉर्टलिस्टिंग का है. उसके बाद इसका चार और फ़िल्मों के साथ सामना होगा. जिसमें से किसी एक को ऑस्कर अवॉर्ड दिया जाएगा.
डाइंग टू डिवोर्स अवॉर्ड जीते या ना जीते, ये तुर्की समेत पूरी दुनिया की लाखों-करोड़ों महिलाओं का संघर्ष बयां करने में कामयाब होगी. ये उम्मीद तो की ही जा सकती है.
दूसरी डॉक्यूमेंट्री है, 14 पीक्स: नथिंग इज़ इम्पॉसिबल. ये 29 नवंबर को नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ हुई. इसके निर्देशक हैं, टर्किल ज़ोन्स. ये डॉक्यूमेंट्री नेपाल के पर्वतारोही निर्मल परजा की कहानी सुनाती है. परजा नेपाल की सेना में थे. उसके बाद वो ब्रिटेन की स्पेशल फ़ोर्सेज़ का हिस्सा बने. फिर उन्हें पहाड़ चढ़ने का चस्का लगा.
उन्होंने अपने पैशन को पूरा करने के लिए जमी-जमाई नौकरी छोड़ दी. परजा दुनिया की 14 सबसे ऊंची चोटियों को फतह करना चाहते थे. इसके लिए सरकारों की अनुमति, आर्थिक मदद, परिवार का सपोर्ट चाहिए था. सबने कहा, परजा मज़ाक कर रहे हैं. कोई इतनी अच्छी नौकरी छोड़कर ऐसा कैसे कर सकता है. लेकिन वो अडिग रहे.
उन्होंने अपने मिशन को नाम दिया, प्रोजेक्ट पॉसिबल. परजा को शुरुआत में कई रुकावटों का सामना करना पड़ा. हालांकि, बाद में उन्होंने अपना मिशन पूरा किया. वो भी सात महीनों में. पिछला रेकॉर्ड सात सालों का था.
इस डॉक्यूमेंट्री में आपको शेरपाओं की ज़िंदगी, उनके परिवारों की बेबसी और इंसानी जज़्बे की पराकाष्ठा दिखने को मिलेगी.