कोरोना के बीच इस कौन सी बड़ी बीमारी ने हिमाचल के हेल्थवर्कर्स को अलर्ट कर दिया है?
हालांकि इसके हालात तो देशभर में खराब हैं
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हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में लेप्रोसी को लेकर घर-घर खास स्क्रीनिंग ड्राइव चलाई जा रही है. तस्वीर महाराष्ट्र में ऐसी ही स्क्रीनिंग कर रही एक हेल्थ वर्कर की है.
घर-घर जाकर स्क्रीनिंग में जुटा हिमाचल प्रदेश
हिमाचल प्रदेश के हेल्थ वर्कर्स घर-घर जाकर कुष्ठ रोग के लिए स्क्रीनिंग में लगे हैं. यह हाल तब है, जब पहले से ही कोरोना की वजह से स्वास्थ्य सेवाएं दबाव में हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इस वक्त पूरे राज्य में लेप्रोसी के 80-82 एक्टिव केस हैं. इनमें से आधे मरीज इसी साल सामने आए हैं. बाकियों का पिछले साल से इलाज चल रहा है. इस स्क्रीनिंग को राज्य सरकार ने हिम सुरक्षा अभियान नाम दिया है. इसे नवंबर में लॉन्च किया गया था. इस अभियान में कोविड 19, टीबी और लेप्रोसी की स्क्रीनिंग साथ-साथ की जा रही है. स्क्रीनिंग करने गए हेल्थ वर्कर्स राज्य भर के लोगों का ब्लड शुगर लेवल और ब्लड प्रेशर भी माप रहे हैं.
राहत की बात सिर्फ इतनी है कि यह पहला साल है, जब कुष्ठ रोग का ऐसा कोई पेशंट राज्य में नहीं मिला है, जिसमें बाहरी शारीरिक विकलांगता दिखी हो. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) इसे मेडिकल टर्म में ग्रेड-2 डिसेबिलिटी कहता है. इस तरह के पेशंट्स में कुष्ठ रोग के लक्षण शरीर के बाहर नजर आते हैं. मिसाल के तौर पर आंखों, हाथ-पैर के पंजों में विकृतता और अल्सर आदि नजर आने लगते हैं. कुष्ठ रोग के कुछ मरीज ऐसे भी होते हैं, जिनमें इस तरह के शारीरिक लक्षण नहीं दिखते. उनमें शरीर के कुछ हिस्सों मे स्किन असंवेदनशील हो जाती है. शरीर पर लाल या पीले चकत्ते नजर आते हैं. इन चकत्तों पर छूने पर या किसी सुई आदि चुभाने का असर नहीं होता.
ऐसी ही एक स्क्रीनिंग 1 दिसंबर से 31 दिसंबर के बीच महाराष्ट्र भी कर रहा है. इसमें टीबी और लेप्रोसी के आंकड़े जमा किए जा रहे हैं.

हिमाचल प्रदेश में हेल्थ वर्कर घर-घर जाकर कोरोना के अलावा लेप्रोसी की भी स्क्रीनिंग कर रहे हैं. Source: Reuters
ये बीमारी है क्या?
भारतीय मिथकों और दादी-नानी की कहानियों में दिखने वाली बीमारी कोढ़, लेप्रोसी या कुष्ठ रोग बैक्टीरिया से होने वाली बीमारी है. कुष्ठ रोग दो तरह का होता है. पहले को पाउसीबैसिलारी कहते हैं. दूसरे को मल्टीबैसिलारी. बाद वाला कुष्ठ रोग ज्यादा खतरनाक होता है. इसी में ज्यादा और शरीर के बाहर तक लक्षण दिखाई देने लगते हैं. इसका इलाज अब आसानी से मल्टी ड्रग थेरिपी के जरिए हो सकता है. दोनों तरह के कुष्ठ रोग को 6 महीने से साल भर की ड्रग थेरिपी से ठीक किया जा सकता है. डॉक्टरों के मुताबिक, यह बीमारी संक्रामक नहीं है. एक दूसरे को छूने आदि से नहीं फैलती.
भारत में लेप्रोसी की स्थिति क्या है?
भारत उन देशों में आता है, जहां लेप्रोसी या कुष्ठ रोग की स्थिति बाकी दुनिया के मुकाबले काफी खराब है. दुनिया में इस रोग के आधे से ज्यादा मरीज अब भी भारत में पाए जाते हैं. साल 2019 में पूरी दुनिया में 2 लाख लेप्रोसी के मरीजों में 1 लाख 14 हजार भारत के थे. हालांकि 2019 में 15 हजार नए केस ही सामने आए. इनमें भी ऐसे गंभीर मरीजों की संख्या काफी कम है, जिनमें लेप्रोसी की वजह से शारीरिक विकलांगता दिखती है. यह संख्या 10 लाख लोगों में सिर्फ 1.5 ही है. 2020 में इस संख्या को पूरे भारत में 1 से नीचे लाने का टारगेट रखा गया है.
हैरानी की बात यह है कि साल 2005 में World Health Organization ने भारत को लेप्रोसी मुक्त घोषित कर दिया था. इसके बाद सरकारों ने बीमारी की ट्रेसिंग का काम ढीला छोड़ दिया. परिणाम यह हुआ कि बीमारी ने फिर उभरना शुरू कर दिया, और भारत दुनिया में फिर टॉप पर पहुंच गया.
इस बीमारी को खत्म करने के रास्ते में कई तरह की भ्रांतियां भी सबसे बड़ी अड़चन बनी हुई हैं. कुष्ठ रोग को लेकर सामाजिक छुआ-छूत और कई धार्मिक मान्यताएं बहुत कट्टर हैं. इसकी वजह से लोग इस पर खुलकर बात नहीं करना चाहते. जिनमें इसके लक्षण होते हैं, वो शुरुआती स्टेज में इन्हें रिपोर्ट करने से भी बचते हैं. एक्सपर्ट्स के मुताबिक भारत में लेप्रोसी के मरीज सरकारी और आधिकारिक आंकड़ों से कहीं ज्यादा हो सकते हैं.

भारत में कुष्ठ रोग के इलाज की पुख्ता व्यवस्था है. जल्दी बीमारी का पता चलने से मरीज विकलांगता से भी बच जाते हैं.
किस राज्य में कितने मरीज?
भारत में लगभग सभी बड़े राज्यों में लेप्रोसी के मरीजों की संख्या चिंताजनक है. National Leprosy Eradication Programme के 2017 के आंकड़ों के अनुसार, देश में लेप्रोसी से सबसे प्रभावित टॉप 5 राज्य और उनमें मरीजों की संख्या इस तरह है-
उत्तर प्रदेश - 13,456
बिहार - 13,031
पश्चिम बंगाल - 9,887
छत्तीसगढ़ - 8,578
मध्य प्रदेश - 7,266
कानूनों में अब भी बना हुआ है मरीजों से भेदभाव
मोदी सरकार ने देश में कई ऐसे कानूनों को खत्म करने का काम किया है, जिनकी समय के साथ अब जरूरत नहीं रह गई है. लेकिन लेप्रोसी को लेकर भेदभाव वाले कई कानून अब भी मौजूद हैं. इन कानूनों को तब बनाया गया था, जब इस बीमारी को लेकर समझ और इलाज की कमी थी. एक नजर इन कानूनों पर-
# छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और ओडीशा में लोकल इलेक्शन में लेप्रोसी के पेशंट के चुनाव लड़ने पर रोक है. # मोटर वीकल एक्ट 1939 में लेप्रोसी के मरीज को वाहन चलाने का लाइसेंस देने पर रोक है.
# भारतीय रेल एक्ट 1990 में लेप्रोसी के मरीज के ट्रेन से यात्रा करने पर रोक है.
# हिंदू मैरिज एक्ट के सेक्शन 13 के तहत लेप्रोसी को तलाक का आधार माना जा सकता है. सरकार ने जनवरी 2019 में लोकसभा में इस बाबत एक बिल पास किया है. इसके अनुसार लेप्रोसी को तलाक के आधार के तौर हटाने का प्रावधान है.
# स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 में लेप्रोसी को एक 'लाइलाज' बीमारी बताया गया है.
4 दिसंबर 2017 को इस तरह के भेदभाव से भरे 100 केसों को सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में लाया गया था. इसके बाद कोर्ट ने इसकी तरफ सरकार का ध्यान दिलाया. सरकार ने लेप्रोसी को ध्यान में रखकर Elimination of Discrimination against Persons Affected by Leprosy (EDPAL) Bill भी तैयार किया. लेकिन अब भी देश इसके पास होकर कानून बनने का इंतजार कर रहा है.