The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Why does the Indian government not want to give asylum to the people of Myanmar?

भारत सरकार म्यांमार के लोगों को शरण क्यों नहीं देना चाहती?

म्यांमार से लोगों को भारत में आने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है?

Advertisement
Img The Lallantop
मिज़ोरम की सरकार शरणार्थियों को कैंप्स में रखने के पक्ष में है तो मणिपुर का स्टैंड एकदम अलग है. (तस्वीर: एपी)
pic
लल्लनटॉप
30 मार्च 2021 (Updated: 30 मार्च 2021, 07:08 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
तारीख थी 29 मार्च 1971. भारत से एक चिट्ठी स्विट्जरलैंड के जेनेवा भेजी गई. ये चिट्ठी सदरुद्दीन आगा खान के नाम थी. कौन थे ये. यूनाइटेड नेशन्स हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूज़ीज. UNHCR. और चिट्ठी लिखने वाले का नाम था- एफ एल पिजनाकर हॉर्डिक. ये भारत में UNHCR के प्रतिनिधि थे. चिट्ठी में इन्होंने लिखा था कि पूर्वी पाकिस्तान की सीमा के पास भारत में बड़ा शरणार्थी संकट शुरू हो सकता है. मार्च के आखिर में पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बंगाल में सेना ने मार-काट शुरू कर दी थी. इसलिए जान बचाने के लिए लोग भागकर भारत आ रहे थे. यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक मई आते आते हर दिन लगभग 1 लाख लोग बांग्लादेश से भारत में बतौर शरणार्थी आ रहे थे. और भारत सरकार ने यूएन में जो आंकड़े दिए थे वो बताते हैं कि 1971 का साल खत्म होते होते लगभग 1 करोड़ शरणार्थी भारत में पहुंच चुके थे.
इस किस्से का ज़िक्र हम क्यों कर रहे हैं?
क्योंकि हमारे पड़ोस के एक और देश में लोग सेना के ज़ुल्म से परेशान हैं, और भागकर भारत की सीमा में दाखिल हो रहे हैं, लेकिन भारत की तरफ से उन्हें वापस लौटा दिया जा रहा है... राज्य की सरकार सर्कुलर निकालकर कहती है कि शरणार्थियों के कैंप ना लगाने दिए जाएं. उन्हें वापस भेज दिया जाए. म्यांमार से आ रहे शरणार्थियों के लिए अभी सरकार का ये ही रुख है... तो एक तरफ हम अपनी शरण देने वाली परंपरा पर गर्व करते हैं, 1971 में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को भी हमने पनाह दी, इसका ज़िक्र भी होता है, अभी दो दिन पहले पीएम मोदी के बांग्लादेश दौरे के दौरान भी इसकी खूब बात हुई. इससे पहले साल 1959 में जब तिब्बत में चीनी सेना का ज़ुल्म बढ़ रहा था तो भारत ने तिब्बत से आए लोगों को शरण दी थी. यानी ये परंपरा कई बार दिखती है. लेकिन वैसी ही स्थिति अब एक और देश में हो रही है तो हम अपने दरवाजे बंद क्यों कर रहे हैं? असल में ये मामला क्या है? क्या भारत को म्यांमार से आए लोगों को शरण देनी चाहिए या नहीं देनी चाहिए. और अगर भारत सरकार ने शरण नहीं देने का आधिकारिक फैसला लिया है तो इसकी वजह क्या है? इसके हर पक्ष पर आज विस्तार से बात करेंगे.
म्यांमार से लोगों को भारत में आने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है?
और क्या जैसे रोहिंग्या वाले केस में था, अभी वाले शरणार्थी भी किसी धर्म विशेष के हैं क्या? म्यांमार में कई सालों से सैन्य शासन ही था, लेकिन 2015 में सेना पीछे हट गई और चुनाव होने दिया. चुनाव में ऑन्ग सान सू की वाली पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी सत्ता में आई. इस पार्टी ने 5 साल राज किया और फिर पिछले साल चुनाव हुए. 8 नवंबर 2020 को चुनाव के नतीजे आए थे जिनमें नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की जीत हुई. सेना के बड़े अधिकारी इस चुनाव पर सवाल उठा रहे थे. धांधली और फर्ज़ीवाड़े का आरोप लगा रहे थे. फिर इस साल फरवरी की 1 तारीख को सेना ने बंदूकों के दम पर सत्ता को तख्त पलट दिया. ऑन्ग सान सू की समेत उनकी पार्टी के सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया. जिसने सेना का विरोध किया, उसके खिलाफ कार्रवाई हुई. प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कार्रवाई हुई. सैन्य शासकों का आदेश नहीं मानने वाले पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई हुई. 1 फरवरी से अब तक करीब साढ़े चार सौ लोग मारे जा चुके हैं. तो इस तरह से सेना से परेशान लोग जेल से बचने के लिए या जान बचाने के लिए भारत की सीमा की तरफ भाग रहे हैं. और 2017 की तरह इस बार ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ रोहिंग्या मुस्लिम शरण मांगने आ रहे हों, बाकी समुदायों के लोग भी आ रहे हैं.
Aan San Suu Kyi
म्यांमार की स्टेट काउंसलर ऑन्ग सान सू ची. (तस्वीर: एपी)


लेकिन क्या म्यांमार से भाग रहे सारे शरणार्थी भारत में ही आ रहे हैं?
ऐसा भी नहीं है. अब एक बार आप म्यांमार का नक्शा देखिए. पश्चिम की तरफ बड़ी सीमा भारत से लगती है. उत्तर पूर्व की तरफ चीन है और दक्षिण पूर्व की तरफ बड़ी सीमा थाइलैंड से लगती है. भारत के अलावा थाइलैंड में भी म्यांमार के शरणार्थी दाखिल हो रहे हैं. थाइलैंड की सीमा के पास म्यांमार के गांवों में सेना हवाई हमले कर रही है. केएनयू नाम के एक हथियारबंद संगठन के खिलाफ गांवों में सेना के हमले हो रहे हैं. तो इन हमलों में जान जाने के डर से लोग थाइलैंड में भाग रहे हैं. और अब तक करीब 3 हज़ार म्यांमार के लोग थाइलैंड में जा चुके हैं.
Myanmar Map
लाल घेरे में भारत का पड़ोसी देश म्यांमार. (गूगल मैप्स)


हालांकि हमें काफी खोजने पर ये नहीं मिला की म्यांमार से भागकर लोग चीन में भी शरण मांगने जा रहे हैं क्या. ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं मिलती है. असल में म्यांमार में जो कुछ भी हो रहा है चीन उसमें अपना फायदा तलाश रहा है. म्यांमार में तख्तापलट को वहां का सरकारी मीडिया तख्ता पलट या कू कहने के बजाय मेजर गर्वमेंट रिशफल कह रहा है, यानी सत्ता की बड़ी अदलाबदली. सैन्य तख्तापलट के खिलाफ 2 फरवरी को यूएन सिक्योरिटी काउंसिल में निंदा प्रस्ताव लाया गया था, लेकिन रूस और चीन ने इसे रोक दिया. हालांकि 4 फरवरी को थोड़ी नरम भाषा वाले एक प्रस्ताव पर चीन राज़ी भी हो गया था. इससे पहले भी म्यांमार में सैन्य शासकों के चीन से अच्छे ताल्लुक थे. तो वो एक बार फिर म्यांमार की आपदा में अवसर तलाश रहा है. और चीन के लिए म्यांमार के शरणार्थियों वाली चिंता भी नहीं है.
म्यांमार से जो लोग भाग रहे हैं उन्हें शरणार्थियों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए क्या?
शरणार्थी की आधिकारिक परिभाषा क्या होती है? UNHCR का 1951 के कन्वेंशन में शरणार्थी की परिभाषा लिखी है. इसके आर्टिकल 1 के मुताबिक नस्ल, राष्ट्रीयता, किसी सामाजिक या राजनीतिक संगठन की सदस्यता आदि के आधार पर किसी को उत्पीड़न का खतरा हो और उसे अपने देश में संरक्षण ना मिले, तो अपने देश से बाहर रह रहा ऐसा कोई भी व्यक्ति शरणार्थी कहलाएगा. यानी सीधे अर्थों में किसी को अपने देश में फंडामेंटल राइट्स से महरूम रखा जाता है, और इस बिना पर वो किसी दूसरे देश में जाकर रहता है तो वो शरणार्थी कहलाएगा. रिफ्यूज़ीज पर संयुक्त राष्ट्र का पहला कन्वेंशन 1 जनवरी 1951 से लागू हुआ था और इसमें कुछ बदलाव 1967 में हुए थे जिससे UNHCR 1967 प्रोटोकॉल कहते हैं.
अब भारत ने इन करारों पर आज तक हस्ताक्षर ही नहीं किए. यानी रिफ्यूज़ीज को लेकर यूएन के किसी करार की बाध्यता भारत पर नहीं है. हालांकि यूएनएचसीआर ये भी मानता है हस्ताक्षर किए बिना भी भारत शरणार्थियों को पनाह देता है. और ये बात सही भी है.
तो फिर इस बार भारत सरकार म्यांमार के लोगों को शरण क्यों नहीं देना चाहती?
10 मार्च को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मिजोरम, मणिपुर, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश के अलावा भारत की सीमा पर तैनात असम राइफल्स को एक चिट्ठी लिखी थी. इसमें कहा गया था कि म्यामांर से आने वाले गैरकानूनी लोगों पर नजर रखी जाए. उनकी पहचान की जाए, और उन्हें वापस भेज दिया जाए. गृह मंत्रालय का कहना है कि ये प्रदेश म्यांमार के लोगों को शरण देने के लिए अधिकृत नहीं हैं. हालांकि मिजोरम के सीएम ने इस आदेश का विरोध किया है. सीएम जोरमथांगा का कहना है कि वह म्यांमार से आने वाले शरणार्थियों से मुंह नहीं फेर सकते, क्योंकि उनके प्रदेश के म्यांमार के चिन समुदाय के साथ जातीय रिश्ते हैं. वहां की विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी इस फैसले पर सरकार का साथ दे रही है.
26 मार्च को मणिपुर में भी एक आदेश निकाला गया. मणिपुर सरकार के गृह विभाग के स्पेशल सेक्रेटरी एस. ज्ञान प्रकाश के हस्ताक्षर के साथ ये आदेश निकला था. म्यांमार की सीमा से लगे मणिपुर के ज़िलों के डिप्टी कमिश्ननर्स के नाम ये आदेश था. ऊपर दाहिने कोने पर लिखा था कॉन्फिडेंशिल. लेकिन ये चिट्ठी कॉन्फिडेंशिल रह ना सकी. सोशल मीडिया में वायरल हो गई. इस आदेश में कहा गया था कि म्यामांर से गैरकानूनी तरीके से आने वालों के लिए ज़िला प्रशासन या कोई सामाजिक संगठन कैम्प ना खोले. अगर किसी को गंभीर चोट है तो मानवीय पहलू से उसकी मेडिकल हेल्प कर देनी चाहिए. और भारत में घुसने या शरण मांगने वालों को विनम्रता के साथ लौटा देना चाहिए. ये आदेश सोशल मीडिया में वायरल हुआ तो सरकार की आलोचना हुई. लोग पूछने लगे कि वसुधैव कुटुम्बकम की बात कहकर ये कैसा आदेश निकाल रहे हैं. 29 तारीख को मणिपुर के स्पेशल सेक्रेटरी एस. ज्ञान प्रकाश ने इस आदेश को वापस ले लिया. और कहा है कि 26 तारीख वाले आदेश का गलत मतलब निकाला गया. उन्होंने ये भी लिखा की म्यांमार से आने वाले लोगों की इलाज में सरकार मदद कर रही है. कमोबेश ये मणिपुर सरकार की डैमेज कंट्रोल की कोशिश है.
Rakhine Rohingya
2017 में रखाइन प्रांत में हज़ारों रोहिंग्या मुस्लिम मारे गए थे. (तस्वीर: एएफपी)


एक बात और समझने की है, जब मिज़ोरम की सरकार शरणार्थियों को कैंप्स में रखने के पक्ष में है तो मणिपुर का स्टैंड इतना अलग क्यों है. ये फर्क राज्य की सत्ता में स्थानीय पार्टी और नेशनल पार्टी के आधार पर देखा जा सकता है. क्योंकि म्यांमार के शरणार्थियों का मुद्दा भारत के सरहदी राज्यों में भी होता है. ये बिल्कुल तमिलनाडु जैसा मामला है, कि श्रीलंका में तमिलों के साथ ज़्यादती होती है तो वो तमिलनाडु में भी राजनीतिक मुद्दा होता है. चिन समुदाय के लोग सीमा के इस तरफ और उस तरफ दोनों जगह हैं. इनमें आपस में वैवाहिक रिश्ते होते हैं. म्यामांर से लोग काम के सिलसिले में भी मिज़ोरम या मणिपुर आते हैं. और आने जाने में कोई बहुत रोकटोक भी नहीं है. म्यांमार और भारत की सीमा पर कोई फेंसिंग भी नहीं है. और इस तरह से म्यांमार से भारत आना वहां के लोगों के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं होता है. इसी तरह से 2017 में म्यांमार की सेना के क्रैकडाउन से भागकर गैरकानूनी तरीके से रोहिंग्या भी भारत में आए थे. सरकार ने संसद और कोर्ट में उन्हें देश के लिए खतरा बताया था, कुछ के चरमपंथी गुटों के साथ जुड़ने की बात कही थी. और अब एक बार फिर सरकार म्यांमार से आने वाले किसी भी शरणार्थी के पक्ष में नहीं है. और ऐसा भी नहीं है कि भारत ही ऐसा कर रहा हो, बांग्लादेश और थाइलैंड शरणार्थियों को लेने के पक्ष में नहीं दिख रहे हैं. थाइलैंड ने म्यांमार से लगती अपनी सीमा की चौकसी और बढ़ा दी है. दूसरी तरफ म्यांमार की सैन्य सत्ता के खिलाफ भारत भी कोई सख्त लाइन नहीं ले रहा है. बल्कि भारत दुनिया के उन चंद लोकतांत्रिक देशों में है जिन्होंने इस तख्तापलट और नई सरकार को कुछ हद तक मान्यता दी है. तीन दिन पहले 27 मार्च भारत ने म्यानमांर की राजधानी में सैन्य परेड में भी हिस्सा लिया... तो इस तरह के सारे समीकरण माएने रखते हैं. और विदेश नीति में मानवीय पहलुओं के अलावा देश के हित भी मायने रखते हैं. इसके अलावा घरेलू राजनीति भी मायने रखती है. तो मोदी सरकार ने भी इन्हीं समीकरणों के आधार पर म्यांमार के शरणार्थियों को पनाह नहीं देने का फैसला लिया होगा.

Advertisement