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UNSC ने बुरुंडी को अपने पॉलिटिकल अजेंडे से क्यों हटाया?

राष्ट्रपति के गुंडे निशानदेही के लिए घर पर क्यों क्रॉस बनाते हैं?

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बुरुंडी की सरकार तंजानिया के साथ मिलकर वहां रह रहे अपने शरणार्थियों को टॉर्चर कर रही है. (एएफपी)
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स्वाति
9 दिसंबर 2020 (Updated: 9 दिसंबर 2020, 01:01 PM IST) कॉमेंट्स
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आप अपने सिस्टम से क्या उम्मीद करते हैं? न्यूनतम इतना कि रात को सोएं, तो सुबह सही-सलामत जगने का भरोसा रहे. उम्मीद करते हैं कि देश में कभी कोई उपद्रव या अशांति हो भी, तो कुछ दिनों में ख़त्म हो जाए. लेकिन अगर आपको ऐसा देश मिले, जहां हिंसा के चलते पहले आपके दादा को रिफ़्यूजी बनना पड़े. फिर पिता को. फिर आपको. और तब भी ये उम्मीद नहीं कि आपके बच्चों को ये दिन न देखना पड़े.
क्या आप ऐसे देश में जीना चाहेंगे, जहां राष्ट्रपति के गुंडे निशानदेही के लिए आपके घर के मुख्य दरवाज़े पर क्रॉस बना दें? प्रोटेस्ट में शामिल होने वालों के सिर काटकर सीने पर गोद दिया जाए कि ग़द्दारों का अंजाम यही होगा. सोचिए, कोई ऐसा देश हो जहां के सिक्यॉरिटी मिनिस्टर का निकनेम हो- आई विल किल यू. क्या हम में से कोई भी ऐसे मुल्क में एक मिनट भी रहना चाहेगा? लेकिन फ़र्ज कीजिए कि जिनसे बचने के लिए आप देश छोड़कर भागे हों, वो उस नए देश में भी आपका पीछा न छोड़ें. वहां की सरकार और पुलिस के साथ मिलकर वो आपको टॉर्चर करना जारी रखें. ये सारी ख़ौफनाक कल्पनाएं एक देश में सच हो रही हैं.
ये क्या मामला है?
पूर्वी अफ्रीका में एक झीलों का इलाका है. कई बड़ी-बड़ी झीलें हैं यहां. इसको कहते हैं- द ग्रेट लेक्स रीज़न. इसी हिस्से में बसा एक छोटा सा देश है- बुरुंडी. इस लैंड लॉक्ड देश के उत्तर में है रवांडा, पूरब में है तंजानिया, पश्चिम में है कॉन्गो और दक्षिण-पश्चिमी सरहद के पास है टैंगनिका झील. बुरुंडी में कबीलाई बसाहट है. दो मुख्य कबीले हैं यहां- हुटू और टुत्सी. हुटू बहुसंख्यक, टुत्सी अल्पसंख्यक. हुटूओं का अधिकतर काम खेती-गृहस्थी से जुड़ा था. वहीं टुत्सी मवेशीपालन करते थे. कृषि आधारित समाज में मवेशी संपन्नता की निशानी हैं. ऐसे में टुत्सी अल्पसंख्यक होकर भी पारंपरिक तौर पर ज़्यादा प्रभावशाली रहे.
Burundi
बुरुंडी पूर्वी अफ्रीका का एक लैंड लॉक्ड देश है. (गूगल मैप्स)


इसी प्रभाव के चलते 17वीं सदी में अल्पसंख्यक टुत्सी समुदाय का किंगडम यहां सत्ता में भी आ गया. फिर 19वीं सदी में साम्राज्यवादी जर्मनी पहुंचा यहां. उसने भी अपने फ़ायदे के लिए टुत्सी किंगडम को बरकरार रखा. पहले विश्व युद्ध के बाद जर्मनी की यहां से छुट्टी हुई और बुरुंडी आ गया बेल्ज़ियम के संरक्षण में. जर्मनी की तरह बेल्ज़ियम ने भी सोचा कि राज करना है, तो नस्लीय बंटवारे को हवा देते रहनी होगी. इसके लिए उन्होंने टुत्सियों से हाथ मिलाया और उनके सहारे बहुसंख्यक हुटू समुदाय का शोषण करते रहे.
इस शोषण का एक बड़ा प्रतीक बना कॉफी. अफ़्रीकन देशों की शुष्क आबोहवा कॉफी के उत्पादन के लिए मुफ़ीद थी. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कॉफी मुनाफ़े का सौदा थी. ऐसे में बेल्ज़ियम के सपोर्ट वाला टुत्सी संभ्रांत वर्ग हुटू किसानों पर अधिक से अधिक कॉफी उपजाने का दबाव बनाता. उस कॉफी से बेल्ज़ियम की जेब भरती. टुत्सी एलीट्स को भी प्रॉफ़िट में हिस्सेदारी मिलती. मगर हुटू किसान शोषित और वंचित ही रह जाते.
मगर 20वीं सदी में आकर साम्राज्यवाद के दिन पूरे हो गए. 1962 में बुरुंडी बेल्ज़ियम से आज़ाद हो गया. शुरुआती चार साल, यानी 1962 से 1966 तक यहां राजशाही बनी रही. इस दौर में राजा थे किंग मवामबुत्सा चतुर्थ. वो थे टुत्सी समुदाय के. फिर से वहीं टुत्सी बनाम हुटू की लड़ाई शुरू हुई. हुटू नस्लीय हिंसा के शिकार होने लगे. हज़ारों हुटूओं को जान बचाने के लिए पड़ोसी देश रवांडा भागना पड़ा.
Lake Tanganyika
द ग्रेट लेक्स. (एपी)


इसी माहौल में आया 1965 का साल
बुरुंडी में लोकतंत्र की मांग उठने लगी. संसदीय चुनाव भी हुए. ज़ाहिर है, संख्याबल में भारी हुटूओं को मेजॉरिटी मिली. मगर किंग मवामबुत्सा ने हुटूओं को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया. ऐसे में सामने आई सेना. आर्मी चीफ मिशेल मिकोमबेरो के नेतृत्व में सेना ने राजा का तख़्तापलट कर दिया. 1966 में इन्हीं आर्मी चीफ मिकोमबेरो ने राजशाही ख़त्म की और ख़ुद को बना दिया राष्ट्रपति.
King Mwambutsa
किंग मवामबुत्सा. (एपी)


अब बुरुंडी बन गया रिपब्लिक. यहां से बुरुंडी के आगे दो रास्ते थे. पहला, पिछली कड़वाहट भुलाकर नए सिरे से शुरुआत करना. या फिर एक रिग्रेसिव विकल्प था कि बुरुंडी बदलापुर बन जाए. एक समुदाय दूसरे समुदाय से पुराना हिसाब चुकता करने में लगा रहे. बुरुंडी ने चुना ये दूसरा रिग्रेसिव रास्ता. इसकी प्रमुख वजह ये थी कि रिपब्लिक बनने के बाद भी हुटूओं को सत्ता नहीं मिली थी. तख़्तापलट करके राष्ट्रपति बने मिकोमबेरो भी टुत्सी समुदाय के ही थे.
ऐसे में हुटूओं ने बग़ावत जारी रखी. वो जितना सिर उठाते, सरकारी क्रूरता भी बढ़ती जाती. सरकारी फोर्सेज़ ने लाखों हुटूओं का नरसंहार किया. दमन से बचने के लिए पलायन का सिलसिला भी जारी रहा. 70 से 90 के दशक तक यही सिलसिला चलता रहा. तख़्तापलट, हिंसा, दमन, टुत्सियों के हाथों हुटूओं का नरसंहार, बुरुंडी से लोगों के पलायन का सिलसिला. सब जारी रहा.
Hutu Refugee
हुटू रिफ्यूजी. (एएफपी)


फिर आया 1992 का साल
इस बरस बुरुंडी को मिला एक नया संविधान. इसमें वन-पार्टी सिस्टम हटाकर बहुदलीय व्यवस्था लाई गई. जून 1993 में यहां चुनाव हुए. इसमें जीतकर राष्ट्रपति बने मेलकियोर नदादाए. ये पहली बार था जब बुरुंडी में प्रो-हुटू सरकार बनी थी. हुटू ख़ुश थे. उन्हें लगा, अब उनके दिन सुधर जाएंगे. मगर ये ख़ुशी ज़्यादा दिन नहीं रही. अपने हाथ से सत्ता चले जाने की बौखलाहट में टुत्सी समुदाय के कुछ लोगों ने अक्टूबर 1993 में राष्ट्रपति मेलकियोर की हत्या कर दी. उनके सपोर्टर्स ने इसका बदला लेने के लिए टुत्सियों को मरवाना शुरू किया. पूरे देश में बड़े स्तर पर मारकाट शुरू हो गई. हज़ारों लोग मारे गए.
फिर 1994 में नई सरकार बनी. संसद ने साइप्रिन नतरामिरा को राष्ट्रपति चुना. वो भी हुटू थे. साइप्रिन को प्रेज़िडेंट बने दो ही महीने हुए थे कि उनकी भी हत्या कर दी गई. फिर वही तख़्तापलट, सिविल वॉर, मारकाट और पलायन. बुरुंडी में जो हो रहा था, वो बहुत भीषण तो था, मगर कुछ नया नहीं था. बस इतना बदला था कि अब हुटू भी आपस में लड़ने लगे थे. उनके बीच कई विद्रोही गुट बन गए थे. सत्ता में बैठा आदमी भी हुटू है, इससे उनको कोई फ़र्क नहीं पड़ता था. उनको अब अपने लिए सत्ता हासिल करनी थी.
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टुत्सी रिफ्यूजी. (एएफपी)


इसी झगड़े में नई सदी आ गई. अफ्ऱीका के बाकी देश किसी तरह बुरुंडी को शांत करना चाहते थे. बहुत बीच-बचाव के बाद नवंबर 2003 में एक शांति समझौता हुआ. इसमें एक तरफ थे राष्ट्रपति डोमितियेन ऐंडिइज़ाइ. और दूसरी तरफ था सबसे बड़ा हुटू विद्रोही गुट- FDD. पूरा नाम- फोर्सेज़ फॉर डिफेंस ऑफ डेमोक्रेसी. इसके साथ ही बुरुंडी में सिविल वॉर भी ख़त्म हो गया. फिर जून 2005 में यहां चुनाव हुए. इसमें जीत मिली हुटू रेबेल ग्रुप FDD को. इसके मुखिया पीएर नकुरुनजिजा बने देश के नए राष्ट्रपति.
क्या अब बुरुंडी के हालात सुधरे?
जवाब है, नहीं. नकुरुनजिजा ने बुरुंडी को पुलिस स्टेट बना दिया. हालात ज़्यादा बिगड़े 2015 में. इस बरस बुरुंडी में चुनाव होना था. संविधान कहता था कि एक आदमी अधिकतम दो ही बार प्रेज़िडेंट बन सकता है. मगर नकुरुनजिजा ने कहा कि वो तीसरी बार भी चुनाव लड़ेंगे. बुरुंडी में बड़े स्तर पर हिंसा शुरू हो गई. सरकार विरोधी प्रदर्शन होने लगे. जो भी इन प्रदर्शनों में जाता, उसकी मार्किंग कर ली जाती.
Pierre Nkurunziza
पीएर नकुरुनजिजा (एएफपी)


आतंक फैलाने वालों में एक बड़ा नाम था- इमबोनेराकुरे. ये नकुरुनजिजा की CNDD पार्टी का यूथ विंग है. ये लोग प्रोटेस्ट में शामिल लोगों के दरवाज़े पर लाल पेंट से क्रॉस का निशान बना देते. ये रेड क्रॉस पुलिस समेत बाकी फोर्सेज़ के लिए संकेत होता कि इस घर को टारगेट करना है. कभी किसी का सिरकटा शरीर मिलता. कभी सामूहिक कब्रें मिलतीं. इस दमन और नस्लीय हिंसा से बचने के लिए एक बार फिर हज़ारों-हज़ार लोग बुरुंडी से पलायन करने लगे.
राष्ट्रपति नकुरुनजिजा पर जैसे किसी चीज का कोई असर ही नहीं था. उन्होंने असंवैधानिक तरीके से क्रूरता के दम पर सत्ता अपने पास रखी. 2017 में उन्होंने बुरुंडी की जनता पर एक नया कर लाद दिया. इसका नाम था- इलेक्शन टैक्स. इसकी वसूली का काम था यूथ विंग का. वो दिनभर डंडा हाथ में लिए गली-मुहल्लों में घूमते. एक-एक आदमी से कई बार टैक्स वसूल करते. समझिए कि बुरुंडी की सरकार रंगदारी और जबरन उगाही का धंधा चला रही थी. वो भी उस देश में, जो दुनिया के सबसे गरीब मुल्कों में गिना जाता है. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक, उसकी 75 फीसदी आबादी चरम गरीबी में रहती है. आधे से ज़्यादा बच्चे भीषण कुपोषण का शिकार हैं. और इस सबके बावजूद अवैध राष्ट्रपति नकुरुनजिजा दावा कर रहे थे कि वो बुरुंडी के सनातन मार्गदर्शक हैं. उन्हें ख़ुद ईश्वर ने नियुक्त किया है.
नकुरुनजिजा का अंत कैसे हुआ?
उनकी कहानी ख़त्म की कोरोना ने. 8 जून, 2020 को ख़बर आई कि नकुरुनजिजा गुज़र गए. इसके बाद राष्ट्रपति बने एवारिस्टे नदायिशिमिये. ये भी नकुरुनजिजा की ही पार्टी के हैं. नकुरुनजिजा अपने जीते-जी ही इन्हें अपना उत्तराधिकारी बना गए थे. मई 2020 के एक फर्ज़ी चुनाव में इनके जीतने का तमाशा भी किया गया था. प्रोग्राम था कि अगस्त 2020 में नकुरुनजिजा गद्दी छोड़ेंगे और नदायिशिमिये को सत्ता सौंप देंगे. इसके बाद नकुरुनजिजा पर्दे के पीछे रहकर कठपुतली सरकार चलाने वाले थे. मगर कोरोना ने इस प्लानिंग पर पानी फेर दिया.
Évariste Ndayishimiye
बुरुंडा के मौजूदा राष्ट्रपति एवारिस्टे नदायिशिमिये (एएफपी)


क्या नदायिशिमिये बेहतर राष्ट्रपति हैं?
जवाब है, नहीं. जानकारों के मुताबिक, वो भी नकुरुनजिजा की ही तरह क्रूर हैं. उन्होंने गेरवाइस नदिराकोबुका को अपना सिक्यॉरिटी मिनिस्टर बनाया है. इन जनाब का निकनेम है, नदाकुगारिका. बुरुंडी की स्थानीय भाषा में इस शब्द का मतलब होता है- आई विल किल यू. गेरवाइस को अपने इस निकनेम से कोई दिक्कत नहीं. वो तो अपनी क्रूर छवि को एंजॉय करते हैं. मंत्री बनने से पहले वो पुलिस कमिश्नर रह चुके हैं. ऐंटी-गवर्नमेंट प्रोटेस्ट्स के दौरान प्रदर्शनकारियों पर जो सबसे अधिक क्रूरताएं हुईं, वो गेरवाइस ने ही करवाईं. इसीलिए यूरोपियन यूनियन और अमेरिका ने उनपर सेंक्शन्स भी लगाए हुए हैं.
बुरुंडी का इतिहास हम आपको आज क्यों बता रहे हैं?
इसकी वजह है, तंजानिया से आई कुछ ख़ौफनाक ख़बरें. इसके मुताबिक, बुरुंडी की सरकार तंजानिया के साथ मिलकर वहां रह रहे अपने शरणार्थियों को टॉर्चर कर रही है. 2015 से अब तक करीब पांच लाख लोग बुरुंडी से पलायन कर चुके हैं. इनमें से करीब आधे लोग तंजानिया गए. वहां शरणार्थी शिविरों में जैसे-तैसे रहने लगे. मगर बुरुंडी की क्रूर सरकार ने यहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा.
Burundi Unrest
बुरुंडी में सालों तक गृहयुद्ध जैसे हालात रहे हैं. (एएफपी)


तंजानियन पुलिस की मदद से वो यहां भी बुरुंडियन शरणार्थियों को टारगेट कर रहे हैं. रिपोर्ट्स के मुताबिक, बुरुंडी की सत्ताधारी CNDD पार्टी की यूथ विंग के लोग तंजानिया जाकर इन शरणार्थियों को किडनैप करते हैं. उन्हें छोड़ने के एवज़ में परिवार से मोटी फ़िरौती मांगते हैं. जिसने फ़िरौती दी, वो छूट जाता है. जिसके पास पैसा नहीं, वो टॉर्चर होता रहता है. किस तरह का टॉर्चर? कभी छत से उल्टा लटकाकर पीटना. कभी बिजली का झटका दिया जाना. उनके प्राइवेट पार्ट्स में मिर्च रगड़ना.
शरणार्थियों के लिए UN की एक एजेंसी है- HRW.पूरा नाम- ह्युमन राइट्स वॉच. इसके मुताबिक, तंजानिया के शरणार्थी शिविरों से कई बुरुंडियन शरणार्थी इसी तरह गायब कर दिए गए हैं. ये भी ख़बर है कि तंजानिया इन शरणार्थियों को डरा-धमकाकर उन्हें जबरन बुरुंडी भेजने में लगा है. दो सालों में करीब 50 हज़ार शरणार्थी इसी तरह बुरुंडी वापस भेज दिए गए हैं. इन शरणार्थियों का कहना है कि जिनसे बचकर वो भागे थे, वही तो अब भी पावर में हैं. ऐसे में लौटकर बुरुंडी आना तो सज़ा ही है.
शरणार्थियों की इस दशा पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय क्या कर रहा है?
कुछ भी नहीं. जानकार कहते हैं कि बुरुंडी के इन शरणार्थियों की दुनिया में किसी को नहीं पड़ी. UN का कहना है कि इंटरनैशनल कम्यूनिटी इन लोगों को जैसे भुला चुका है. ये शिकायत शायद सही भी है. अभी 8 दिसंबर को ख़बर आई कि सिक्यॉरिटी काउंसिल ने बुरुंडी को अपने पॉलिटिकल अजेंडे से हटा दिया. इसका मतलब है कि बुरुंडी के हालात अब उन्हें इतने ख़राब नहीं लग रहे कि उसपर बात की जाए.
इस बारे में बयान जारी किया साउथ अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफ़ोसा ने. उन्होंने कहा कि बुरुंडी के हालिया चुनाव शांतिपूर्ण रहे. इससे बुरुंडी में एक नया दौर शुरू हुआ है. इस घटनाक्रम का क्या मतलब है? देखिए, 2014 से जब बुरुंडी में हालात दोबारा बिगड़े, तो अंतरराष्ट्रीय कम्यूनिटी ने उसकी निंदा की. उन्होंने बुरुंडी का बहिष्कार कर दिया. उसे दी जाने वाली मदद और फंडिंग भी बंद कर दी. UNSC के ताज़ा फैसले के बाद बुरुंडी का ये आइसोलेशन ख़त्म हो जाएगा. बुरुंडी गवर्नमेंट भी इससे काफी ख़ुश है. उसने इसे महान फैसला बताया है.
Cyril Ramaphosa
साउथ अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफ़ोसा. (एएफपी)


अब यहां एक विरोधाभास देखिए
UN की ही संस्था है सुरक्षा परिषद. उसे बुरुंडी में हालात ठीक लग रहे हैं. जबकि सितंबर 2020 में जारी UN वॉचडॉग की रिपोर्ट कहती है कि बुरुंडी में मानवाधिकारों का उल्लंघन जारी है. यौन हिंसा और हत्याएं अब भी चल रही हैं. इसके अलावा UNSC जिस चुनाव को शांतिपूर्ण बता रहा है, उसे बाकी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और इंटरनैशनल मीडिया धांधली से भरा बता चुकी हैं.
सोचिए, ऐन मौके पर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी 'नैशनल कांग्रेस फॉर फ्रीडम' के 600 से ज़्यादा लोग अरेस्ट कर लिए गए. मीडिया को फ्री रिपोर्टिंग नहीं करने दी गई. अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को बुरुंडी में घुसने नहीं दिया गया. चुनाव वाले दिन सोशल मीडिया और मैसेज़िंग ऐप्स ब्लॉक कर दिए गए. वोटरों को डराकर उनसे मनमर्ज़ी का वोट डलवाया गया. बूथ लूटने की घटनाएं रिपोर्ट हुईं. रूलिंग पार्टी की यूथ विंग के गुंडे पोलिंग बूथ पर लोगों के वोटर कार्ड छीनकर उनकी जगह वोट डालते दिखे.
जून 2020 में इसी चुनाव पर HRW की भी रिपोर्ट आई थी. इसमें लिखा था कि बुरुंडी इलेक्शन्स में दमन के गंभीर आरोप हैं और इनकी जांच होनी चाहिए. इकॉनमिस्ट मैगज़ीन ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि सत्ताधारी पार्टी ने जेल में बंद लोगों और मृतकों के नाम के बैलेट पेपर जोड़कर अपनी फ़ाइनल टैली बढ़ाई. और ऐसे इलेक्शन को UNSC शांतिपूर्ण बता रहा है. क्या ऐसी अंतरराष्ट्रीय उदासीनता के बीच बुरुंडी की जनता, विदेश भागे उसके शरणार्थियों के लिए कोई उम्मीद बची है?

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