कौन हैं मतुआ माता, जिनके सामने ममता-मोदी-शाह सब नतमस्तक हैं
पश्चिम बंगाल में इनका तगड़ा जोर है
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मतुआ माता बीनापाणि देवी ने जिस राजनैतिक दल को समर्थन दिया, पश्चिम बंगाल में उसकी सरकार बन गई.
क्या है मतुआ महासभा या संप्रदाय?
मतुआ माता या बड़ी मां के बारे में जानने से पहले मतुआ संप्रदाय, मतुआ महासंघ या संप्रदाय के बारे में कुछ जान लें. इस संप्रदाय की शुरुआत 1860 में अविभाजित बंगाल में हुई थी. मतुआ महासंघ की मूल भावना है चतुर्वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की व्यवस्था को खत्म करना. यह संप्रदाय हिंदू धर्म को मान्यता देता है लेकिन ऊंच-नीच के भेदभाव के बिना. इसकी शुरुआत समाज सुधारक हरिचंद्र ठाकुर ने की थी. उनका जन्म एक गरीब और अछूत नामशूद्र परिवार में हुआ था. ठाकुर ने खुद को 'आत्मदर्शन' के जरिए ज्ञान की बात कही. अपने दर्शन को 12 सूत्रों के जरिए लोगों तक पहुंचाया. मतुआ महासंघ की मान्यता 'स्वम दर्शन' की रही है. मतलब जो भी 'स्वम दर्शन' या भगवान हरिचंद्र के दर्शन में भरोसा रखता है, वह मतुआ संप्रदाय का माना जाता है. धीरे-धीरे उनकी ख्याति वंचित और निचली जातियों में काफी बढ़ गई. संप्रदाय से जुड़े लोग हरिचंद्र ठाकुर को भगवान विष्णु और कृष्ण का अवतार मानते हैं. सम्मान में उन्हें श्री श्री हरिचंद्र ठाकुर कहते हैं.

मतुआ संप्रदाय के संस्थापक श्रीश्री हरिचंद्र ठाकुर को फॉलोअर भगवान का अवतार मानते हैं.
कौन हैं 'मतुआ माता' या 'बड़ी मां'?
आजादी के बाद मतुआ संप्रदाय की शुरुआत करने वाला ठाकुर परिवार भारत आ गया, और पश्चिम बंगाल में बस गया. हरिचंद्र ठाकुर की दूसरी पीढ़ी मतुआ संप्रदाय के केंद्र में थी. पूरा जिम्मा उनके पड़पोते प्रमथ रंजन ठाकुर पर था. प्रमथ की शादी बीणापाणि देवी से 1933 में हुई. बीनापाणि देवी को ही बाद में 'मतुआ माता' या 'बोरो मां' (बड़ी मां) कहा गया. बीनापाणि देवी का जन्म 1918 में अविभाजित बंगाल के बारीसाल जिले में हुआ था. आजादी के बाद बीणापाणि देवी ठाकुर परिवार के साथ पश्चिम बंगाल आ गईं. चूंकि बंगाल दो हिस्सों में बंट गया था, ऐसे में मतुआ महासभा को मानने वाले कई लोग पाकिस्तान के कब्जे वाले तत्कालीन पूर्वी बंगाल से भारत के पश्चिम बंगाल आ गए. नामशूद्र शरणार्थियों की सुविधा के लिए बीनापाणि देवी ने अपने परिवार के साथ मिलकर वर्तमान बांग्लादेश के बॉर्डर पर ठाकुरगंज नाम की एक शरणार्थी बस्ती बसाई. इसमें सीमापार से आने वालों खासतौर पर नामशूद्र शरणार्थियों को रखने का इंतजाम किया गया.

मतुआ संप्रदाय के संस्थापक के पड़पोते का विवाह बीनापाणि देवी से हुआ, इन्हें बाद में मतुआ माता या बड़ी मां कहा गया.
ठाकुरगंज की कोलकाता से दूरी तकरीबन 70 किलोमीटर है. अपने बढ़ते प्रभाव के चलते मतुआ परिवार ने राजनीति में एंट्री की. परमार्थ रंजन ठाकुर ने 1962 में पश्चिम बंगाल के नादिया जिले की अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व सीट हंसखली से विधानसभा का चुनाव लड़ा. जीतकर विधानसभा पहुंचे. मतुआ संप्रदाय को मानने वालों और राजनैतिक हैसियत के चलते नादिया जिले के आसपास और बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाके में मतुआ संप्रदाय का प्रभाव लगातार मजबूत होता चला गया. सन 1990 में प्रमथ रंजन ठाकुर की मृत्यु हो गई. इसके बाद बीनापाणि देवी ने मतुआ महासभा के सलाहकार की भूमिका संभाली. संप्रदाय से जुड़े लोगों ने भी उन्हें भक्तिभाव से देखा. देवी की तरह मानने लगे. 5 मार्च 2019 को मतुआ माता बीनापाणि देवी का निधन हो गया. प. बंगाल सरकार ने उनका अंतिम संस्कार पूरे आधिकारिक सम्मान के साथ करवाया. गन सैल्यूट भी दिया गया.

ठाकुरगंज के शरणार्थी शिविर ने मतुआ संप्रदाय की प. बंगाल में जड़ें और मजबूत कर दीं.
मतुआ महासभा के आगे सब नतमस्तक
मतुआ महासभा की बढ़ती ताकत के आगे सभी नतमस्तक होते रहे. सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की ताकत घटी, और लेफ्ट मजबूत हुआ. बंगाल की राजनीति के जानकार बताते हैं कि लेफ्ट की ताकत बढ़ने में मतुआ महासभा का भी बड़ा हाथ रहा. 1977 के चुनाव से पहले प्रमथ रंजन ठाकुर का लेफ्ट को समर्थन मिला. बांग्लादेश से लगे इलाकों और महासभा के भक्तों ने उस पार्टी के लिए जमकर वोट किया, जिसे ठाकुर परिवार का समर्थन था. सन 1977 में लेफ्ट की सरकार बनी, जो 2011 तक शासन में रही.
मतुआ माता का परिवार पहुंचा संसद
सन 2010 में मतुआ माता बीनापाणि देवी की नजदीकी ममता बनर्जी से बढ़ी. बीनापाणि देवी ने 15 मार्च 2010 को ममता बनर्जी को मतुआ संप्रदाय का संरक्षक घोषित कर दिया. इसे औपचारिक तौर पर ममता बनर्जी का राजनैतिक समर्थन माना गया. प. बंगाल में लेफ्ट के खिलाफ बने माहौल में ममता की तृणमूल कांग्रेस को मतुआ संप्रदाय का समर्थन मिला. 2011 में ममता बनर्जी प. बंगाल की चीफ मिनिस्टर बनीं.
एक अनुमान के मुताबिक, बंगाल में मतुआ संप्रदाय को मानने वालों की संख्या तकरीबन 3 करोड़ है. सन 2014 में बीनापाणि देवी के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर ने तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर बनगांव लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे. कपिल कृष्ण ठाकुर का 2015 में निधन हो गया. उसके बाद उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर ने यह सीट 2015 उपचुनावों में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर जीती.
मतुआ माता के निधन के बाद परिवार में राजनैतिक बंटवारा खुलकर दिखने लगा. उनके छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने बीजेपी का दामन थाम लिया. 2019 में मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को बीजेपी ने बनगांव से टिकट दिया. वह सांसद बन गए.

मतुआ माता के बड़े बेटे सांसद कपिल कृष्ण ठाकुर की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर (बाएं) 2015 में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर संसद पहुंचीं.
कितना है मतुआ संप्रदाय का राजनैतिक जोर
मतुआ संप्रदाय को मानने वालों में सबसे ज्यादा संख्या उस समाज की है, जिससे इसका उदय हुआ. मतलब नामशूद्र समाज. 1971 में नामशूद्र समाज के लोगों की संख्या राज्य की कुल आबादी की 11 फीसदी थी. 2011 में यह बढ़कर 17 फीसदी तक हो गई. प. बंगाल की जनसंख्या 9 करोड़ से ज्यादा है, ऐसे में तकरीबन 1.5 करोड़ की आबादी नामशूद्र समाज की है. नामशूद्र के अलावा दूसरे दलित वर्ग भी मतुआ संप्रदाय से जुड़े हैं. एक अनुमान के मुताबिक, प. बंगाल में मतुआ संप्रदाय के पास करीब 2.5 करोड़ का वोटबैंक है. बनगांव के इलाके में मतुआ समुदाय के वोटरों का प्रतिशत 65 से 67 फीसदी है. प. बंगाल की दूसरी 10 लोकसभा सीटों पर भी उनकी अच्छी खासी संख्या है. ये 10 लोकसभा सीटें हैं- कृष्णानगर, रानाघाट, मालदा उत्तरी, मालदा दक्षिणी, बर्धमान पूर्वी, बर्धमान पश्चिमी, सिलिगुड़ी, कूच बिहार, रायगंज और जॉयनगर. इन सभी सीटों पर मतुआ समुदाय के वोटरों की संख्या औसतन 35 से 40 फीसदी मानी जाती है.
इसीलिए, वोटों का गणित यही कहता है कि मतुआ संप्रदाय जिस पार्टी के नाम पर मुहर लगा दे, उसका इलेक्शन जीतना तय माना जाता है.

मतुआ संप्रदाय की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2001 की जनगणना के अनुसार प. बंगाल की तकरीबन 17 फीसदी आबादी मतुआ संप्रदाय के प्रभाव में है.
इनका सीएए-एनआरसी का क्या कनेक्शन है?
मतुआ संप्रदाय का अध्ययन करने वाले इतिहासकार शेखर बंधोपाध्याय कहते हैं-
पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार के लिए 2003 का सिटीजन अमेंडमेंट एक्ट (CAA) परेशानी का सबब बन गया. इसे एनडीए ने पास किया था. इसके अनुसार, जो भी शरणार्थी 25 मार्च, 1971 के बाद देश में आए हैं, उनकी नागरिकता खत्म करने का प्रावधान है. दिक्कत यह है कि नामशूद्र समुदाय 1947 के बाद कई बार भारत में शरणार्थी के तौर पर आया है. 2003 के एक्ट से एक ही झटके में मतुआ संप्रदाय के बहुत बड़े हिस्से पर नागरिकता छिनने का खतरा मंडराने लगा. मतुआ संप्रदाय ने ममता बनर्जी ने इस कानून से मुक्ति का रास्ता खोजने को कहा. लेकिन ममता बनर्जी कुछ नहीं कर सकीं. मतुआ संप्रदाय 2009 में कोर्ट भी गया. नागरिकता खो चुके कई समर्थकों की नागरिकता वापस भी कराई.जानकार बताते हैं कि इस घटना के बाद ममता बनर्जी की पकड़ मतुआ संप्रदाय में ढीली पड़ गई. इधर केंद्र की एनडीए सरकार सीएए-एनआरसी का कानून ले आई. इसमें मुस्लिमों को छोड़कर बाकियों को नागरिकता देने का प्रावधान है. इस कानून ने भारत में आकर बसे नामशूद्र समाज की समस्या काफी हद तक खत्म कर दी है. यह एक तरह से मतुआ संप्रदाय की मांग पूरी होने जैसा है. बीजेपी भी अब इसे ऐसे ही पेश करना चाहती है कि उसने मतुआ संप्रदाय की बड़ी मांग को सीएए-एनआरसी कानून के जरिए पूरा कर दिया है. अमित शाह के प. बंगाल के दौरे में मतुआ परिवार के साथ लंच करने को भी एक संदेश की तरह देखा जा रहा है. पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की तरह बीजेपी भी जानती है कि अगर उसे प. बंगाल में पैर जमाने हैं तो मतुआ संप्रदाय और मतुआ माता की जरूरत पड़ने वाली है.