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ट्रक में मिली 46 लाशों ने अमेरिका में बवाल कर दिया!

अमेरिका में आने वाले प्रवासियों की पूरी कहानी क्या है?

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What is the story of immigrants coming to America? (AP)
अमेरिका में आने वाले प्रवासियों की पूरी कहानी क्या है? (AP)
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28 जून 2022 (Updated: 29 जून 2022, 14:08 IST)
Updated: 29 जून 2022 14:08 IST
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अमेरिका के टेक्सस में एक क़स्बा है, सेन एन्टोनियो. मेक्सिको बॉर्डर से इसकी दूरी लगभग 250 किलोमीटर है. गर्मी के दिनों में यहां का तापमान 40 डिग्री के पार पहुंच जाता है. 27 जून की शाम भी कुछ ऐसी ही थी. उमस से भरी. लोगों को घर पहुंचने की जल्दी थी. इसी दौरान एक शख़्स को कराहने की आवाज़ सुनाई दी. उसने रुककर गौर से सुना. वो आवाज़ रेलवे लाइन के किनारे बेतरतीब खड़े एक ट्रक के अंदर से आ रही थी. ट्रक में कोई ड्राइवर नहीं था. जब वो ट्रक के नजदीक गया, उसे ज़मीन पर गिरा एक व्यक्ति दिखाई पड़ा. उसके शरीर में कोई हरक़त नहीं हो रही थी. हड़बड़ाए शख़्स ने इमरजेंसी सर्विस में कॉल घुमाया. इसके बाद लोकेशन पर पुलिस और फ़ायर सर्विस की आमद हुई. उस समय तक किसी को पूरी घटना का दायरा नहीं पता था. जब पुलिस ट्रक का दरवाज़ा खोलकर अंदर घुसी, उन्हें बेहोश पड़े लोगों का ढेर दिखा. जब उन्होंने एक-एक कर नब्ज़ टटोलनी शुरू की, होश उड़ने की बारी उनकी थी. अधिकतर लोगों की सांस नहीं आ रही थी. जिनकी आ रही थी, उनका शरीर भट्टी की तरफ़ तप रहा था.

जब गिनती खत्म हुई, तब तक 46 लोग लाश में तब्दील हो चुके थे. 16 लोगों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. तीन को गिरफ़्तार भी किया गया है. फे़डरल एजेंसियां मामले की जांच में जुटी है.

आज हम जानेंगे,

- ट्रक में 46 लोगों की लाश कहां से आई?
- अमेरिका में आने वाले प्रवासियों की पूरी कहानी क्या है?
- और, पूरे हादसे के बीच एक बर्बर गैंग का नाम चर्चा में क्यों है?

पहले ये मैप देखिए. ये अमेरिका है. उसके नीच मेक्सिको है. मेक्सिको और साउथ अमेरिका के बीच के इलाके को सेंट्रल अमेरिका कहते हैं. सेंट्रल अमेरिका में मुख्यतौर पर सात देश आते हैं. बेलिज़, कोस्टा रिका, अल सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, होंडुरास, निकारागुआ और पनामा.

सेंट्रल अमेरिका का इतिहास और भूगोल तय करने में यूरोप के औपनिवेशिक शासकों का निर्णायक दखल रहा है. औपनिवेशिक शासन का मतलब इन देशों में मूलनिवासियों का पर्याप्त शोषण हुआ. वर्ग-विभाजन देखने को मिला. संपत्ति का असमान बंटवारा हुआ. वफ़ादारों के हिस्से में यश आया. जो सत्ता के करीब नहीं हो पाए, उन्हें हाशिये पर छोड़ दिया गया. इसको लेकर दोनों वर्गों में संघर्ष भी चला.

19वीं सदी के शुरुआती सालों में सेंट्रल अमेरिका के देश आज़ाद होने लगे थे. शासन अपने लोगों के हाथों में आ गया था. लेकिन वहां के नागरिकों को उसका बहुत फायदा नहीं मिल रहा था. बुनियादी सुविधाओं की की कमी थी. हर तरफ़ ग़रीबी का साम्राज्य था. 19वीं सदी के अंतिम सालों में कोस्टा रिका में रेल लाइन बिछाने की शुरुआत हुई. स्थानीय सरकारों ने अमेरिका और यूरोप की कंपनियों को ठेके पर बुलाया. इसी दौरान कोस्टा रिका में पटरियों के इर्द-गिर्द केले की खेती शुरू हुई. उस समय केला यूरोप और अमेरिका के लिए लग्जरी वाला फल था. 1899 में यूनाइटेड फ़्रूट कंपनी की स्थापना हुई. कालांतर में इस कंपनी का केले के बिजनेस पर एकाधिकार हो गया. सिर्फ़ बिजनेस पर ही नहीं, उन देशों की सरकारों पर भी. यूनाइटेड फ़्रूट ने सेंट्रल अमेरिका में सरकार बनाने-बिगाड़ने का खेल शुरू कर दिया. इस कंपनी के हित अमेरिका की सरकार से जुड़े हुए थे. इसी वजह से अमेरिका ने पहले अप्रत्यक्ष और बाद में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप देना शुरू कर दिया. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कोल्ड वॉर शुरू हुआ. अमेरिका अपने पड़ोस में कम्युनिस्ट सरकार को स्वीकार नहीं कर सकता था. इस वजह से उसका दखल बढ़ने लगा.

सेंट्रल अमेरिका में तख़्तापलट, सैन्य तानाशाही और सिविल वॉर का एक पैटर्न तैयार होने लगा. इन देशों में राजनैतिक स्थिरता नहीं थी. रोजगार नहीं था. भविष्य अनिश्चित था. सरकार हर समय अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश में जुटी रहती थी. इसकी वजह से लोगों का पलायन शुरू हुआ. अब सवाल ये उठा कि लोग जाएं तो जाएं कहां? एक रास्ता नीचे यानी साउथ अमेरिका की तरफ़ था. लेकिन अमेरिका ने साउथ अमेरिका में भी अस्थिरता फैला रखी थी. ऐसे में सेंट्रल अमेरिका के नागरिकों के लिए सबसे सही मंज़िल अमेरिका की थी. अमेरिका में लोगों के पलायन की ये तात्कालिक वजह बनी. इसके बाद से तो सिलसिला चलता ही गया.

अमेरिका का दखल कम हुआ. लेकिन समस्याएं बरकरार रहीं. बस उनका स्वरूप बदल गया. हालिया समय में तानाशाही और क्लाइमेट चेंज़ ने पलायन को हवा दी है.

ये तो हुए वे फै़क्टर्स, जिनके चलते अमेरिका में प्रवासी पहुंचते हैं. इन सबमें एक गैंग का नाम चर्चा में क्यों है?
इस गैंग का नाम है, MS-13. पूरा नाम मारा सल्वात्रुचा. M फ़ॉर मारा. इसका हिंदी में मतलब होता है, गैंग. S फ़ॉर सल्वा. ये नाम अल सल्वाडोर से उठाया गया है. त्रुचा का अर्थ होता है, चौकन्ने नौजवान. 13 अंग्रेज़ी अल्फ़ाबेट में M की संख्या थी.

अल सल्वाडोर में 1979 में सिविल वॉर शुरू हुआ था. सिविल वॉर 1992 तक चला. शुरुआती सालों में बड़ी संख्या में नौजवान अपना मुल्क़ छोड़कर अमेरिका पहुंचे. इन्हीं लोगों ने 1980 में लॉस एंजिलिस में MS-13 की स्थापना की. MS-13 ने बर्बरता के ज़रिए अपनी पहचान कायम की. उन्होंने मेक्सिकन गैंग्स के इलाकों पर क़ब्ज़ा करना शुरू किया. धीरे-धीरे ये पूरे देश में फैल गए.

फिर आया साल 1993 का. अल सल्वाडोर में सिविल वॉर खत्म हो चुका था. अमेरिका में बिल क्लिंटन सत्ता में आ चुके थे. उन्होंने जेल में बंद प्रवासियों को वापस भेजने का प्रोग्राम शुरू किया. इनमें बड़ी संख्या में MS-13 के सदस्य भी थे. उन्होंने वापस जाकर अपने यहां गैंग की ब्रांच शुरू की. हिंसा शाखाओं की तरह पूरे सेंट्रल अमेरिका में फैल गई.

MS-13 की तरह के कई और गैंग थे, जिनका चाल-चरित्र वैसा ही था. सरकारें उन्हें काबू करने में फे़ल थी. इससे दो बड़ी दिक़्क़तें उभरीं. पहली ये कि क्रिमिनल गैंग्स की हिंसा की वजह से लोग देश छोड़कर जाने के लिए मज़बूर हुए. दूसरी समस्या ये हुई कि अपराधी अपनी मर्ज़ी के अनुसार शरणार्थियों को बरगलाने लगे. उन्होंने शरणार्थियों की तस्करी शुरू कर दी. वे पैसे लेकर लोगों को बॉर्डर पार कराने का लालच देने लगे. लोगों के पास कोई रास्ता नहीं था. जो गैंग्स के चंगुल से बच जाते हैं, उनके लिए भी राह आसान नहीं होती. उन्हें असुरक्षित रास्तों के ज़रिए बच-बचाकर बॉर्डर पार करना होता है. यहां से अमानवीयता का एक दूसरा पहलू शुरू होता है.

M-13 गैंग 

शरणार्थियों को अमेरिका में भेजने के लिए ट्रक, लॉरी, ट्रेन जैसे माध्यमों का इस्तेमाल किया जाता है. सेन एन्टोनियो में मिला ट्रक भी वैसा ही है. ट्रक में एयर कंडीशनिंग की कोई व्यवस्था नहीं थी. किसी के लिए पीने का पानी नहीं रखा था. शुरुआती जांच के बाद कहा जा रहा है कि लोग हीट स्ट्रोक और पानी की कमी की वजह से मारे गए. अंतिम वजह तो जांच पूरी होने के बाद ही पता चलेगी. हालांकि, इतना ज़रूर तय है कि इस घटना ने अमेरिका की बॉर्डर पॉलिसी और सेंट्रल अमेरिका की पलायन की समस्या को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है. इससे पहले भी ट्रक के अंदर प्रवासियों के मारे जाने की घटनाएं होती रहीं है. लेकिन हादसे का स्तर कभी इतना बड़ा नहीं था.

अब सवाल ये आता है कि लोग इतना ज़ोखिम लेते क्यों हैं?

- एक वजह, जो हमने पहले भी बताई, वो ये है कि सेंट्रल अमेरिका के देशों में उनकी जान को ख़तरा रहता है. उनके लिए अवसरों की कमी है. उन्हें अमेरिका में बेहतर जीवन का मौका दिखता है.

- दूसरी वजह ये है कि अमेरिका के कुछ सेक्टर्स का पूरा भार सस्ती मज़दूरी पर टिका है. सस्ती मज़दूरी कहां से मिलती है? ये कमी अवैध प्रवासी पूरी करते हैं. संभावित प्रवासियों को एक भरोसा ये रहता है कि, अगर उन्होंने एक बार बॉर्डर पार कर लिया तो उन्हें बिना किसी कागज़ के भी नौकरी मिल सकती है. इसी वजह से लोग जान ज़ोखिम में डालकर अमेरिका में घुसने की कोशिश करते हैं.

- तीसरी वजह असाइलम से जुड़ी है. अगर अमेरिका पहुंचकर किसी ने साबित कर दिया कि उन्हें मजबूरी में अपना देश छोड़ना पड़ा, तब उन्हें आधिकारिक तौर पर शरण मिल सकती है. ज़ोखिम लेने की एक वजह ये भी है.

क्या अमेरिका सरकार प्रवासी संकट को रोक सकता है?

जानकारों की मानें तो इस समस्या पर पूर्णविराम लगाना नामुमकिन है. सरकारों की फेरबदल के साथ इमिग्रेशन पॉलिसी में बदलाव होते रहते हैं. ट्रंप ने मेक्सिको बॉर्डर पर दीवार बनाने की पहल की थी. दीवार बनी भी. लेकिन ये स्थायी तौर पर लोगों को नहीं रोक सकता है. कहा जा रहा है कि ये शरणार्थियों की आमद को और दर्दनाक और वीभत्स बना. 

जिस तरह अमेरिका ने सेंट्रल अमेरिका में सरकार बनाने-बिगाड़ने, तानाशाहों को पालने और अस्थिरता फैलाने में उत्साह दिखाया, उन्हें उसी अनुपात में उत्साह वहां की समस्याओं को खत्म करने में भी दिखाना चाहिए. जब तक संबंधित देशों में पलायन की वजहें बरकरार रहेंगी, संकट कायम रहेगा.

अब सुर्खियों की बारी.

पहली सुर्खी पाकिस्तान से है. पाकिस्तान से तीन अपडेट्स हैं. एक-एक कर बताते हैं.

- पहली अपडेट अंदरुनी झगड़े की है. शहबाज़ शरीफ़ की सरकार कार्यकाल के तीसरे महीने में ही ख़तरे में आ गई है. सत्ताधारी गठबंधन में शामिल सहयोगी पार्टियों ने शहबाज़ शरीफ़ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग - नवाज़ (PML-N) पर वादाख़िलाफ़ी का आरोप लगा रही है. सबसे ज़्यादा गुस्से में है, जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (JUI-F). उसका कहना है कि सरकार इस्लाम के ख़िलाफ़ काम कर रही है. JUI-F ने कहा कि ज़रूरी फ़ैसलों में उनकी राय तक नहीं ली जा रही. अगर ऐसा ही चलता रहा तो वे गठबंधन छोड़ देंगे. ग्वादर से निर्दलीय सांसद असलम भूटानी भी सरकार से नाराज़ हैं. उनका आरोप है कि प्लानिंग मिनिस्टर ने जान-बूझकर विकास योजनाओं में उनके इलाके को शामिल नहीं किया. इसके अलावा, बलूचिस्तान आवाम पार्टी (BAP) और मुत्ताहिदा क़ौमी मूवमेंट (MQM) भी दरकिनार किए जाने से खफ़ा चल रहीं है. उन्होंने यहां तक कहा कि काम निकल जाने के बाद वे हमारा चेहरा नहीं देखना चाहते.

सहयोगियों की नाराज़गी से प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ को झटका लगा. उन्होंने 27 जून की रात उनके लिए डिनर पार्टी का आयोजन किया. इसमें उन्होंने भरोसा दिलाया कि अच्छे दिन आने वाले हैं. उन्होंने साथ मिलकर आर्थिक संकट खत्म करने का वादा भी किया. अगर उनके वादे पर किसी ने ऐतबार नहीं किया तो उनकी सरकार ख़तरे में आ सकती है.

- दूसरी अपडेट ट्विटर से जुड़ी है. पाकिस्तान के तुर्किए, ईरान, ईजिप्ट और यूएन के ऑफ़िशियल ट्विटर हैंडल को भारत में ब्लॉक कर दिया गया है. ट्विटर ने ये कार्रवाई भारत सरकार के आग्रह पर की है. इससे पहले भारत ने 06 पाकिस्तानी समेत 16 यूट्यूब चैनलों को ब्लॉक कर दिया था. उनके ऊपर आरोप था कि वे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति और पब्लिक ऑर्डर के ख़िलाफ़ झूठी सूचनाएं फैला रहे थे. पाकिस्तान ने ट्विटर की कार्रवाई को निराशाजनक बताया है. उसने ट्विटर से अकाउंट बहाल करने की मांग की है. साथ में ये भी कहा है कि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स को अंतरराष्ट्रीय कानूनों के हिसाब से काम करना चाहिए.

- तीसरी अपडेट इमरान ख़ान से जुड़ी है. मई वाली आज़ादी रैली फ़ेल होने के बाद इमरान नए सिरे से प्रोटेस्ट की तैयारी कर रहे हैं. अब वो 02 जुलाई को प्रोटेस्ट रैली आयोजित करेंगे. इस बार की रैली इस्लामाबाद के परेड ग्राउंड में होगी. पिछली बार इमरान ने अपने लोगों को इस्लामाबाद के डी-चौक पर पहुंचने के लिए कहा था. उन्होंने वादा किया था कि वो ख़ुद उनके साथ खड़े होंगे. प्रोटेस्टर्स पहुंच गए. उन्होंने लाठियां भी खाईं. लेकिन इमरान दूसरी जगह भाषण देकर वापस लौट गए थे. उस समय सरकार ने उनके ऊपर पीठ दिखाकर भागने का लांछन लगाया था. क्या इमरान इस बार अपनी बात रख पाते हैं, ये देखने वाली बात होगी.

दूसरी सुर्खी सऊदी अरब से है. सऊदी अरब अपने चिर-परिचित दुश्मन के साथ साझा सुरक्षा का समझौता करने जा रहा है. ये दुश्मन कौन है? इज़रायल. क्यों? मई 1948 में स्थापना के एक दिन बाद ही पांच अरब देशों ने मिलकर इज़रायल पर हमला कर दिया था. इनमें सऊदी अरब और ईजिप्ट भी थे. सऊदी अरब ने अभी तक इज़रायल को मान्यता भी नहीं दी है. सऊदी की किताबों में इज़रायल को उनका कट्टर दुश्मन बताया जाता है. इन सबके बावजूद दोनों देशों के बीच एक सिक्योरिटी डील की तैयारी चल रही है. कहां चल रही है? ईजिप्ट के शहर शर्म अल-शेख़ में. वही ईजिप्ट, जो इज़रायल के साथ चार युद्ध लड़ चुका है. वैसे, 1980 के बाद से दोनों देशों ने डिप्लोमैटिक रिश्ते स्थापित कर लिए हैं. लेकिन सऊदी अरब का इज़रायल के साथ वैसा कोई संबंध नहीं है. फिर दोनों देश साथ क्यों आ रहे हैं?

अमेरिकी अख़बार वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, इस डील पर बातचीत की सबसे बड़ी वजह ईरान है. पिछले कुछ समय में ईरान ने अपने मिसाइलों और ड्रोन्स की क्षमता बढ़ाई है. अख़बार की रिपोर्ट के मुताबिक, शर्म-अल-शेख़ में हुई सीक्रेट मीटिंग में सऊदी अरब और इज़रायल के अलावा ईजिप्ट, क़तर, ईजिप्ट, जॉर्डन, बहरीन और यूएई ने भी अपने प्रतिनिधि भेजे थे. इस मीटिंग की मध्यस्थता अमेरिका कर रहा था. इन सभी देशों की ईरान के साथ दुश्मनी है. इसके अलावा, अरब देश इज़रायल की एयर डिफ़ेंस टेक्नोलॉजी भी हासिल करना चाहते हैं. मीटिंग में शामिल किसी भी देश ने शर्म अल-शेख़ में मुलाक़ात की बात स्वीकार नहीं की है. हालांकि, उन्होंने इतना ज़रूर कहा कि वे साझा हित के लिए साथ में काम करेंगे. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन जुलाई में इज़रायल और सऊदी अरब के दौरे पर जाने वाले हैं. कहा जा रहा है कि इस दौरे के दौरान साझा सुरक्षा को लेकर बड़ा ऐलान हो सकता है.

आज की तीसरी और अंतिम सुर्खी श्रीलंका से है. दो बड़े अपडेट्स हैं. एक-एक कर जान लेते हैं.

पहली अपडेट संकट ईंधन के संकट से जुड़ी है.

- श्रीलंका का ईंधन संकट हाथ से निकलता जा रहा है. 27 जून को सरकार ने प्राइवेट गाड़ियों को ईंधन बेचने पर रोक लगाने का फ़ैसला किया है. श्रीलंका के पास 09 हज़ार टन डीजल और 06 हज़ार टन पेट्रोलल का स्टॉक बचा है. नई खेप कब आएगी, इसके बारे में किसी को नहीं पता. फ़ैसले के मुताबिक, 10 जुलाई तक सिर्फ़ आवश्यक सेवाओं को ईंधन की आपूर्ति की जाएगी. आवश्यक सेवाएं क्या-क्या हैं? पोर्ट्स, स्वास्थ्य सेवाएं, खाद्य पदार्थों का वितरण, कम दूरी का ट्रांसपोर्ट, निर्यात और पर्यटन. सरकार ने इंटर-स्टेट ट्रांसपोर्ट को भी सस्पेंड कर दिया है. शहरी इलाकों के सभी स्कूल भी 10 जुलाई तक बंद रहेंगे. सरकारी कर्मचारियों को घर से काम करने के लिए कहा गया है. इससे पहले सरकार हक़ीक़त बताने की बजाय बार-बार फ़्यूल शिपमेंट में देरी का बहाना बना रही थी. लोगों को मेसेज भेजा जा रहा था कि फ़्यूल स्टेशनों के बाहर लाइन ना लगाएं. इसके बावजूद लोगों की भीड़ जमा हो रही थी. इसके चलते माहौल अराजक होता जा रहा था. जब स्थिति नहीं संभली, तब जाकर सरकार ने नया आदेश जारी किया.

सरकार और क्या रही है?

श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने कहा है कि अगले कुछ हफ़्तों तक हमारे धैर्य की परीक्षा होगी. उन्होंने कहा कि अगले 06 महीनों में ज़रूरी सामानों के आयात के लिए लगभग 40 हज़ार करोड़ रुपये चाहिए. श्रीलंका सरकार भारत और चीन के साथ-साथ इंटरनैशनल मॉनिटरी फ़ंड के संपर्क में है. इसके अलावा, सरकार ने अपने टॉप के अधिकारियों को रूस और क़तर भेजा है. उन्हें संबंधित देशों से सस्ते तेल के आयात की उम्मीद है.

- दूसरी अपडेट शरणार्थी संकट से जुड़ी है. जब भी किसी देश में राजनैतिक या आर्थिक अस्थिरता आती है, उसके समानांतर कई और समस्याएं खड़ी हो जातीं है. श्रीलंका का अनिश्चित भविष्य देखकर लोग दूसरे देशों में शरण लेने की कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए वे अवैध तरीके का इस्तेमाल भी कर रहे हैं. 27 जून की रात श्रीलंका की नौसेना ने एक नाव पर सवार 47 लोगों को गिरफ़्तार किया. इनमें एक साल से लेकर पचास साल की उम्र तक के लोग थे. इन लोगों को स्मगल करके ऑस्ट्रेलिया ले जाया जा रहा था. नौसेना ने पांच तस्करों को भी गिरफ़्तार किया है. कानूनी कार्रवाई के लिए उन्हें हार्बर पुलिस को सौंप दिया गया है. श्रीलंका से अवैध प्रवास का ये पहला मामला नहीं है. सरकार लोगों से लगातार अपील कर रही है कि जल्दबाजी के चक्कर में वे अपराधियों के लालच का शिकार बन सकते हैं. इसके बावजूद लोग जोखिम लेने से बाज नहीं आ रहे. एक सच तो ये भी है कि उनके एक तरफ़ मनमौजी समंदर और डिपोर्ट किए जाने का ख़तरा है तो दूसरी तरफ़ भुखमरी का राक्षस.

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