डिंपल के पास ऐसा क्या था जो सत्यजित रे के पास नहीं था?
साल 1973 में दो फिल्में रिलीज हुई थीं, एक थी राज कपूर की 'बॉबी' अौर दूसरी सत्यजीत राय की 'अशनि संकेत'. 'मास' अौर 'क्लास' की इस भिड़ंत को परखा मराठी कवि दिलीप चित्रे ने.

भारतीय सिनेमा में सत्यजित रे का स्थान सबसे ऊपर के पायदान पर रहा है. लेकिन ऐसा नहीं कि उनकी कला की आलोचना नहीं हुई. आज सुशोभित सक्तावत साल 1973 का वो किस्सा सुना रहे हैं जब मराठी कवि दिलीप चित्रे ने राज कपूर की सुपरहिट फिल्म 'बॉबी' की तुलना सत्यजित राय की 'अशनि संकेत' से की, अौर राय की फिल्म को एक 'आर्टिस्टिक फ्लॉप' बताया. पूरा किस्सा पढ़ेंगे तो 'मास' अौर 'क्लास' की सतत चलती डिबेट भी सामने आएगी अौर संस्कृति के क्षेत्र में चलता मराठा अस्मिता vs बंगाल भद्रलोक का द्वंद्व भी. सुशोभित इंदौर में रहते हैं. 'दी लल्लनटॉप' पर आप उन्हें पहले भी नियमित पढ़ते रहे हैं. तो पेश है नया किस्सा.
इससे पहले कि उपरोक्त शीर्षक पढ़कर सत्यजित राय के धुर प्रशंसक (जिनमें इन पंक्तियों का लेखक स्वयं शामिल है) भड़क जाएं और प्रतिवाद में यह कहने की कोशिश करें कि 'सत्यजित अॉलसो हैड लॉन्ग लेग्स' (शायद डिम्पल जितनी दर्शनीय नहीं), लेकिन इस तरह की तुलना करने की आखिर जुर्रत ही कैसे की गई! तिस पर मैं उन्हें शांत कराने की कोशिश करता हुआ कहूंगा कि यह मेरी मौलिक उक्ति नहीं है. यह 'डी' का कथन है। कौन 'डी'? 'डी' यानी दिलीप चित्रे : मराठी के शीर्ष स्थानीय कवि, कथाकार, चित्रकार और फिल्मकार. उन्होंने चर्चित पत्रिका 'क्वेस्ट' में इसी शीर्षक से एक लेख लिखा था.
यह पत्रिका 1950 से 1975 के दौरान छपती थी और नीरद चौधरी, आशीष नंदी, रजनी कोठारी, खुशवंत सिंह, निस्सीम एज़ेकील जैसे नाम इसमें लिखते थे. यह अपने वक़्त में मुस्तैद बौद्धिक विमर्श का अखाड़ा हुआ करती थी. इसी में दिलीप चित्रे भी 'डी' के छद्मनाम से लिखते थे और उनके स्तंभ अक्सर बड़े विवादास्पद विषयों पर केंद्रित होते थे, जैसे कि पोर्नोग्राफ़ी, बाल ठाकरे, राजेश खन्ना वग़ैरह.
वर्ष 1973 में दो घटनाएं घटीं. हिंदी में राज कपूर की फिल्म 'बॉबी' रिलीज़ हुई. बांग्ला में सत्यजित राय की फिल्म 'अशनि संकेत' आई. 'बॉबी' ने मजमा लूट लिया. वह एक मैसिव ब्लॉकबस्टर थी. इससे भी बढ़कर वह एक कल्चरल फिनामिना थी और उस फिल्म में व्यक्त अदम्य सेक्स अपील का कोई जवाब किसी के पास नहीं था. दूसरी तरफ़ सत्यजित की फिल्म, जो कि बंगाल के अकाल पर केंद्रित थी, बर्लिन में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार जीतने के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर पिट गई और समालोचकों की भी उसे सराहना नहीं मिली. जहां राज कपूर ने डटकर 'बॉबी' बनाई थी, वहीं 'अशनि संकेत' में सत्यजित का फिल्म-कौशल किंचित अन्यमनस्क था. फिल्म की नायिका बोबीता (जो कि मशहूर बांग्लादेशी अभिनेत्री थीं) की आई-ब्रो तराशी हुई थीं और समालोचकों ने इस बात के लिए सत्यजित को आड़े हाथों लिया कि अकाल से जूझ रहे बंगाल के देहात में ऐसी तराशी हुई भवों वाली स्त्री को वे कहां से खोज लाए.
दिलीप चित्रे सत्यजित राय के आलोचक थे और उनके समक्ष ऋत्विक घटक और मृणाल सेन को कहीं बेहतर फिल्मकार मानते थे. उन्होंने 'बॉबी' और 'अशनि संकेत' को आमने-सामने रखकर अपने उस कॉलम में सत्यजित की भरपूर भर्त्सना की.
उन्होंने कहा कि जहां ये दोनों ही फिल्में मिडीयोकर थीं, वहीं कम से कम राज कपूर की फिल्म हमें एंटरटेन तो करती है. जहां 'बॉबी' एक 'स्पेक्टेक्यूलर कॉमर्शियल सक्सेस' थी, वहीं 'अशनि संकेत' एक 'आर्टिस्टिक फ़्लॉप' थी. एक तरफ़ हिंदी सिनेमा का मनोरंजन प्रेमी यौन-क्षुधित दर्शक वर्ग था, दूसरी तरफ़ बांग्ला भद्रलोक, जिसे कि दिलीप चित्रे ने 'स्नॉब', 'हाई-ब्रो', 'कल्चरल शॉवनिस्ट्स' की उपाधियों से नवाज़ा है.
दिलीप चित्रे का चाहे जो पूर्वग्रह रहा हो, लेकिन यहां पर जो चीज़ विमर्श के दायरे में है, वह है 'मास' बनाम 'क्लास' का शाश्वत संघर्ष. ख़ासतौर पर कलाओं में 'लोकप्रिय' और 'शास्त्रोचित' का यह द्वैत लंबे समय से बना हुआ है. सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में, दोनों तरह के फिल्म निर्देशक एक-दूसरे के सामने टकराव की मुद्रा में रहते हैं. आर्टहाउस फिल्ममेकर कहता है कि तुम कचरा बना रहे हो, पॉपुलर फिल्ममेकर कहता है कि भीड़ तो मेरी ही पिक्चर पर उमड़ रही है. आर्टहाउस फिल्ममेकर कहता है, लेकिन अवार्ड तो मुझे ही मिलेंगे. पॉपुलर कहता है, पब्लिक का प्यार ही मेरे लिए सबसे बड़ा अवार्ड है, वग़ैरह-वग़ैरह.
यहां यह नोट करने जैसा है कि 'मास' और 'क्लास' का ऐसा विभाजन हमारे यहां जितना है, उतना बाहर नहीं है. मसलन, वहां पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतने वाला लेखक (गैब्रियल गार्सीया मार्केज़) बड़ी आसानी से पॉप सिंगर शकीरा पर एक लेख लिख देता है, हिंदी में ज्ञानपीठ या अकादमी पुरस्कार जीतने वाला कभी हेलन पर नहीं लिखेगा.
वहां पर क्वेन्टीन टैरेंटिनो की 'पल्प फिक्शन' को कान में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दे दिया जाता है, हमारे यहां 'पल्प' को ऐसी मान्यता कभी नहीं मिलेगी. वास्तव में पॉपुलर कल्चर तो वहां पर गंभीर अकादमिक अध्ययनों और शोधों का विषय रहा है. रोलां बार्थ से लेकर स्लावोइ ज़िज़ेक तक ने पॉपुलर मिथकों पर विस्तार से लिखा है. ज्यां बोद्रिलां जैसों की पोस्ट मॉर्डन थ्योरीज़ लोकप्रिय संस्कृति पर आधारित हैं. और हां, अमेरिका में साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वाधिक पैसा कमाने वाली फिल्म अमूमन एक ही होती है, जो अकादमी पुरस्कार जीतती है. भारत में फिल्मफ़ेयर और राष्ट्रीय पुरस्कारों जैसा स्पष्ट विभाजन वहां पर नहीं है.
मुझसे पूछो तो मैं तो अकसर इस भेद को समझ नहीं पाता. मुझे दोनों स्वीकार हैं. दोनों में मेरा मन रमता है. क्योंकि मैं सत्यजित से भी उतना ही प्यार करता हूं, जितना कि 'बॉबी' से. 'बॉबी' से थोड़ा ज़्यादा.