ऊष्ण कटिबंधीय मौसम की वासना और ममता कुलकर्णी
वो गृहकार्य में दक्ष थी. मगर देह तो देह ठहरी. थक जाती थी. और तब पिया और बहनोई के बिस्तर में फर्क नहीं कर पाती थी. बस झप्प से सो जाती थी. श्रम की महत्ता.
Advertisement

फोटो - thelallantop
साइंस जो है, वो आपको कंडम बनाने का एक तरीका है. ताकि आप जिंदगी के राज तलाशने बंद कर दें. मान लें. कि जो सेब गिरा है. वो अमुक वजह से गिरा है. चुनांचे खोज की जरूरत नहीं.
बायोलॉजी भी एक साइंस है. ये पढ़ाई तो यूं जाती है कि मेढक को चीर लो हाई स्कूल में. और सीताराम बोल दो. बशर्ते डाक्टर न बनना हो.
पर हम हैं तो इसी शरीर में. इसी से चलते हैं. हंसते हैं. फकफकाते हैं. फिर बुझ जाते हैं. इसे कोई क्यों नहीं पढ़ाता.
ठीक करता है. ये साइंस पढ़ने पढ़ाने की नहीं महसूसने की चीज है.
किसी एंड्रोलाजिस्ट (शो ऑफ कर रहे हैं. सही शब्द है सेक्सोलाजिस्ट) से पूछिए. क्या लक्षण हैं. जवानी के उभार के. अटरम सटरम गिनाने लगेगा. पाजी कहीं का. हार्मोन का हरामीपना समझाएगा. और हम समझ जाएंगे. क्योंकि दिखते नहीं हैं. हार्मोन.
जो चीजें हमें दिखती नहीं. उन्हें हम ज्यादा अच्छी तरह से मानते हैं. या कि हथियार डालते हैं.
जैसे आत्मा. जैसे ईश्वर. जैसे सरकार.
पर जो दिखे उसका क्या. जैसे शपूरी. सामने वाले मकान में पहले तल्ले पर रहती थी. साक्षात सेब. सेब. लालामी लिए गोरा. मीठा होने का दावा करता. सेहत के लिए उम्दा.

उसको देख जवानी आई कि जवानी आई और वो दिखी. इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है. एकराय होते ही सूचित किया जाएगा.पर शपूरी तो सुबह दफ्तर जाती थी और देर रात लौटती थी. और अगली सुबह बाद में आती थी. पहले किस्से आते थे. पूरे अहाते से होते हुए. कि कौन सी कार आई थी छोड़ने. वगैरह वगैरह. ये बच्चों की संख्या की दृष्टि से क्षमतावान पुरुषों के लिजलिजे किस्सों वाली सुबह होती थी. जिन्हें पत्नी के घर संवारने के जतन से झांय हुए चेहरों पर सेब नजर आता था. वे आदम के बच्चे. कामनाओं की काली दुनिया में लप्प से घुस जाते. और सेब पर दांत गड़ा देते. अगली सुबह उन्हें गली में छिलके नजर आते. वे हुरिया जाते. कि जो हमने खाया वो क्या था. फिर गली की सुबह का रुटीन शुरू होता. और किनारे कंपाउडराइन के कमरे से गोपाल डेक चला देता. जो गाना आता. उसे कुमार गंधर्व सुनते तो कबीर को कुछ और बेहतर गा पाते. मगर सबको कानपुर की ये सुबह कहां नसीब होती है. आपको आज इत्ते बरसों के जतन और पुण्य के बाद हुई है. आइए. साथ जागें.
लंबा लंबा घूंघट काहे को डाला क्या कर आई कोई मुंह कहीं काला कानों में बतियां करती हैं सखियां रात किया रे तूने कैसा घोटाला.छत पे सोया था बहनोई मैं तन्ने समझ के सो गई मुझको राणा जी माफ करना गलती म्हारे से हो गई - झांसी से बंबई पहुंचे ‘इंदीवर’हम छत पर नहीं सो पाते थे. कूलर था घर पर. जिसे सड़क के हैंडपंप से पानी भर-भर चलाते थे. जो छत पर सोते तो दूसरे तल्ले के बड़भागियों में गिनती होती. जिनकी सुबह इस गाने से होती. मगर वहां सिर्फ कान खर्च होते. आंख पहले तल्ले पर होतीं. जहां शपूरी तैयार होती नजर आती थी. बुरुश करती. बाथरूम जाती. सौंदर्य साबुन निरमा से नहाई निकलती. वो चली जाती. खुशबू रह जाती. उसे कोई पिक नहीं करता. और फिर बिना लाइट की दोपहर में बैटरी के सहारे कुछ कम आवाज में डेक चलता. और उसकी आवाज एक दीवार पर टंग जाती. या कि टंक जाती. ये एक पोस्टर था. जो गर्मी शांत करता था. बिना हिले. उसमें कौन था...सस्पेंस बनाते हैं. छोड़ो बे. पहिले ही बहुत भूमिका बांध लिए. वो कौन थी.
वो हजारों मोहल्लों की. पूरी पीढ़ी की शपूरी थी. उसका नाम ममता कुलकर्णी था.आप कभी किसी लड़के से पूछिए. अपने आप से पूछिए. बगल घर के अन्नू भइया से पूछिए. सड़क के शठल्लू चाचा से पूछिए. बस भर गुंडे ले चलने वाले विनोद बब्बा से पूछिए. मगर अकेले में ही. या फिर जो तरंग चढ़ी हो. कि आप जवान कैसे हुए.

हमारे पोस्टर के खांचे पर ममता लिखा था. जो छत पर बहनोई के साथ सो जाती थी. उठती थी तो एकदम ताजा. कोई शिकन नहीं. बिल्कुल पाप मुक्त. और उसके पास इसकी वजह भी थी. ये गृहकार्य में दक्ष थी. मगर देह तो देह ठहरी. थक जाती थी. और तब वो पिया और बहनोई के बिस्तर में फर्क नहीं कर पाती थी. बस झप्प से सो जाती थी. श्रम की महत्ता. और जनता. हाय बताशे बांट दूं मैं इस सादगी पर. मान जाती थी.रामजाने ये लोग कहां थे, जब मां सीता को फायर एग्जाम देना पड़ा. अब तो ललनाएं नायक को मुंह पर चटाक से कह देती हैं. फायर ब्रिगेड मंगवा दे. अंगारों पर हैं अरमां. ओ सजना. ये विषयांतर हो गया. यहां बात ममता की हो रही थी. जिसकी सफाई जान लेना जानिब के लिए जरूरी है. देखिए क्या कहती है वो.
बहनोई ने ओढ़ रखी थी चादर मैं समझी कि पिया का है बिस्तर आधे बिस्तर पे वो सोया था, आधे पे मैं भी सो गईभूल हुई मुझसे तो कैसा अचंभा बहनोई भी था पिया जितना लंबा चूर थी मैं दिन भर की थकन से पड़ते ही बिस्तर पे सो गई...
हमारे लिए इतना ही काफी था कि ममता सोती है. कहीं किसी बिस्तर पर. हमारी तरह. ये ऊष्ण कटिबंधीय प्रदेशों का मौसम था. थोड़ी नमी, थोड़ी गर्मी. और भुरभुरी मिट्टी में अंखुए फूटते.सुबह उठते तो होठों के ऊपर पसीने पर लिपटी एक रेख होती. हम बड़े हो रहे थे. बीती रात से बड़े हो गए थे. जब बदन पर सितारे लपेटे हुए एक जाने तमन्ना कहीं जा रही थी. सितारे जो रात पर लिपटे होते हैं. ममता ने भी एक रोज रात से ऐन पहले सितारे लपेटे. और इतनी करुणा के साथ गुहार की. कि जी में बुखार द्रव बन उमड़ आया.
कोई जाए तो ले आए मेरी लाख दुआएं पाए मैं तो पिया की गली जिया भूल आई रे...लिल्लाह. ये दिल्ली में दरियागंज वाले खामखां दूरदर्शन पे आ धमकते हैं. मुझे पक्का पता था. गुमशुदा तलाश केंद्र किसी काम का नहीं. बिचारी छह बार कपड़े बदल रही है. उन्मत सी थिरक रही है. एक ही फरियाद है. जिया खोज दे कोई. मगर क्रूरता तब भी अबकी तरह एक चालू मुहावरा था. और तब हम सब किशोरों को विधवा बना ममता ने अचानक मुद्रा बदल ली. याचना नहीं अब रण होगा का जयघोष किया. एक डायरेक्टर को घेरे में लिया. राजकुमार संतोषी नाम का. फिलमी दुनिया में सनाका खिंच गया. और यहां आहूजा मेडिकल स्टोर के बगल में पान की दुकान पर गाना भी.
भरो. मांग मेरी भरो. करो. प्यार मुझे करो. अंग से अंग लगाके. प्रेम सुधा बरसा दे. प्यासी हूं मैं. दिल की तेरे. जनम जनम.मगर चौंपेराम. नायिका ये बात हर लिंगधारी से नहीं कर रही थी. अपने लवर से कह रही थी. विकी नाम था उसका. विकी मलहोत्रा. लगा कि किसी फिलिम में गुलशन ग्रोवर का नाम होगा. जो कि बड़े गुंडे का बेटा होगा. रेप करता होगा. और ड्रग्स भी. विकी ने रेप नहीं किया. ड्रग्स का कारोबार किया. क्या प्यार भी एक नशा है. कवि कह गया है.
होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है इश्क कीजे फिर समझिए जिंदगी क्या चीज है.
