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कश्मीर में बर्फ गायब, लेकिन मैदानों में पड़ रही कड़ाके की ठंड, आखिर क्यों?

कश्मीर और लद्दाख में जहां दिसंबर-जनवरी तक भरसक बर्फ़ पड़ जाती थी, वहां सूखा पड़ा हुआ है. इसकी वजह पता चल गई है.

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el nino effects on kashmir.
कश्मीर में बर्फ़ न पड़ने की वजह एल-नीन्यो है? (फ़ोटो - X)
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19 जनवरी 2024 (Updated: 19 जनवरी 2024, 16:07 IST)
Updated: 19 जनवरी 2024 16:07 IST
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भयााााानक्क ठंड पड़ रही है यार! रोज़ ठंड नए रिकॉर्ड जमा रही है. समोसा-पकोड़ी बनाने वाले अगर कुछ देर चूल्हा बंद कर दें, तो तेल भी जमा दे रही है. समाचार बांचने वाले रोज़ हेडिंग चलाते हैं- 'सबसे ठंडी सुबह..' ठंड कहती है, 'अच्छा? चैलेंज एक्सेप्टेड'. उत्तर भारत के लोगों को शीत-लहर (cold wave) से निजात मिलने में अभी कुछ दिन हैं, तब तक रजाई में छिपे-छिपे जान लीजिए: इतनी सर्दी पड़ क्यों रही है?

मॉनसून देर से आता है, बारिश कम होती है या ज़्यादा होती है, तो कहा जाता है कि ये 'एल-नीन्यो' की वजह से है. कुछ लोग इंद्र देव को भी श्रेय देते हैं, मगर वो मान्यता है. साइंस है, एल-नीन्यो (El Niño). ये मेक्सिको या कोलंबिया में गुंडई करने वाले किसी ड्रग-लॉर्ड का नाम नहीं है; मौसम के एक प्रोसेस का नाम है. एल-नीन्यो का जितना रिश्ता बरसात से है, उससे थोड़ा कम बरसात के सेकंड कज़न बर्फ़बारी से भी है.

एल-नीन्यो है क्या?

मैप में प्रशांत महासागर (पैसिफ़िक ओशन) देखा होगा. ये एकदम पश्चिम में भी दिखता है और एकदम पूरब में भी. वजह? दुनिया गोल है रे बाबा! प्रशांत महासागर के ईस्ट में पड़ता है नॉर्थ और साउथ अमेरिका. वेस्ट में ऑस्ट्रेलिया और साउथ एशिया. ग्लोब में ग़ौर से देखने से पता चलता है कि पैसिफ़िक ओशन से इक्वेटर की रेखा गुज़रती है. इक्वेटर एक काल्पनिक रेखा है, जो दुनिया को दो हिस्सों में बांटती है. यहां पड़ती है जमकर गर्मी. चुनांचे इससे समुद्र का एक हिस्सा काफ़ी गर्म हो जाता है.

अब दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट से ट्रेड विंड चलती है और ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट तक आती है. ट्रेड विंड यानी व्यापारिक हवा. व्यापारिक क्यों? क्योंकि गुज़रे ज़माने में ये हवा समुद्र के रास्ते ट्रैवल करने वाले व्यापारियों की मदद करती थी. यही ट्रेड विंड गरम हो रखे पानी को ऑस्ट्रेलिया की ओर ले आती है. ऑस्ट्रेलिया के तट से गरम और नम हवा ऊपर उठती है. ऊपर जाकर ठंडी हो जाती है. फिर पूरब -यानी दक्षिण अमेरिका- की ओर बहने लगती है. ऐसे हवा का पूरा चक्का कम्प्लीट हो जाता है. बन जाती है हवा की साइकल.

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हवा की साइकल का एक अहम हिस्सा है, ओशन करंट. तटों पर रहने वाली गर्म-ठंडी धाराएं. दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट - चिली, पेरू और इक्वाडोर के तटों - पर हम्बोल्ट करेंट रहता है. ये ठंडा करेंट होता है और तमाम तरह की मछलियों का घर है. जब तक हम्बोल्ट करेंट ठीक है, तब तक सब ठीक है. मछलियां, मौसम, हम और ये धरती. लेकिन इन्हें बिगाड़ने आता है एक नटखट बालक, जिसका स्पैनिश नाम है एल नीन्यो.

जब-जब जहां-जहां से एल-नीन्यो गुज़रता है, अपना असर छोड़ता है. बारिश रोक लेता है, सर्दियों में नमी पैदा कर देता है. (फ़ोटो - नैशनल ओशन सर्विस, अमेरिका)

कभी-कभी पैसिफ़िक में बहने वाली ट्रेड विंड कमज़ोर पड़ जाती हैं. गरम धाराएं ऑस्ट्रेलिया की ओर न बहकर दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर जमा हो जाती हैं. और, यहां करवाती हैं भारी बारिश. एल नीन्यो ही ये गरम धाराएं हैं.

अब ट्रेड विंड्स की तो अपनी सारी नमी ख़र्च हो गई, तो ऑस्ट्रेलिया की ओर जाती है सूखी हवा. इसका सीधा इंडिया के मॉनसून पर असर पड़ता है.

एक नटखट बालक आता है और हमारी बारिशें चुरा लेता है. और हर बार की तरह, दुनिया को एक लड़की बचा लेती है. नाम, ला-निन्या. ला निन्या का काम है हवाओं को फिर पहले जैसा चलाना. कमज़ोर पड़ी व्यापारिक हवाओं को फिर से मज़बूती मिल जाती है. और... वक़्त के साथ सब ठीक हो जाता है.

एल नीन्यो और शीतलहर का रिश्ता क्या कहलाता है?

एल नीन्यो और ला निन्या कोई भौतिक चीज़ नहीं, बल्कि मौसमी इवेंट्स हैं. एल नीन्यो से बारिश कम होती है, ला निन्या से ज़्यादा. तो इस प्रोसेस का शीत-लहर से क्या ताल्लुक़?

बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, एल नीन्यो और ला निन्या का असर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग हो सकता है. लेकिन कुछ पैटर्न तो वैज्ञानिकों ने नोट किया है. जैसे, तापमान. आमतौर पर एल-नीन्यो प्रकरण के दौरान वैश्विक तापमान बढ़ता है और ला-नीन्या के वक़्त गिरता है. लेकिन क्षेत्र के हिसाब से प्रभाव जटिल हैं और कुछ जगहों पर अपेक्षा से ज़्यादा गर्मी या ठंडी पड़ सकती है.

मिसाल के लिए, उत्तर भारत को देखिए. पिछले साल का अगस्त सदी का सबसे सूखा रहा. ऐसा तब, जब उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश और भूस्खलन हुए. बावजूद इसके, ओवर-ऑल सूखा रहा. ये एल-नीन्यो - और जलवायु परिवर्तन - का नतीजा है.

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मौसम विशेषज्ञों के अनुसार, यही कारण है कि कश्मीर और लद्दाख में जहां दिसंबर-जनवरी तक भरसक बर्फ़ पड़ जाती थी, वहां सूखा पड़ा हुआ है. IMD, श्रीनगर के निदेशक मुख़्तार अहमद ने न्यूज़ एजेंसी ANI को बताया कि जनवरी में औसतन 130.61 सेंटीमीटर बर्फ़बारी होती है, इस साल अभी तक कोई बर्फ़बारी नहीं हुई है.

कश्मीर में इस साल बर्फ क्यों नहीं पड़ रही?

कई कारक हैं. मेन कारण है, पश्चिमी विक्षोभ. (western disturbance). दरअसल, भूमध्य सागर या कैस्पियन सागर में एक तरह का तूफ़ान उठता है. इससे एक लो-प्रेशर क्षेत्र बनता है और इस प्रोसेस को पश्चिमी विक्षोभ कहते हैं. इसी की वजह से उत्तर-पश्चिम भारत की सर्दियों में बारिश-बर्फ़बारी होती है, कोहरा पड़ता है.

जैसे-जैसे ये विक्षोभ (हवाएं) हिमालय के पास पहुंचती हैं, नम हवा ऊपर उठती है. जैसे-जैसे ऊपर उठती है, ठंडी और संघन होती जाती है. इससे बादल बनते हैं. ये बादल अंततः बर्फ़ के रूप में बरसते हैं. ख़ासकर कश्मीर के ऊंचे इलाक़ों में. जनवरी में पड़ने वाली चरम सर्दियों में कश्मीर का तापमान ज़ीरो डिग्री से कम ही होता है. ठंडा तापमान सुनिश्चित करता है कि बादल जब भी बरसे, पानी न बरसे. बर्फ़ ही बरसे.

लेह-लद्दाख के मौसम विज्ञान केंद्र ने कुछ आंकड़े शेयर किए हैं. इससे पता चलता है कि ये पहली बार नहीं कि कश्मीर में बर्फ़ नहीं पड़ रही. साल 2016 और 1998 भी ऐसे ही सूखे साल थे.

द प्रिंट ने द एनर्जी ऐंड रिसोर्सेज़ इंस्टीट्यूट (TERI) से जुड़े श्रेष्ठ तायल के हवाले से छापा है कि एल-नीन्यो का प्रभाव आमतौर पर कुछ सालों तक रहता है. यही वजह है कि पिछले साल भी हिमाचल में कम बर्फ़बारी हुई थी. जलवायु संकट और ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते क्षेत्र में मौसम का पैटर्न बदल रहा है. इससे मौसम अनियमित और अप्रत्याशित बनता जा रहा है, जो केवल कश्मीर के लिए नहीं, सब ही के लिए चिंताजनक है. 

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