The Lallantop
Advertisement

लगान नहीं, उसकी मेकिंग हिम्मत देती है मुझे हमेशा

किस्सा चले चलो का. हंगल की टूटी पीठ का. ओवर बजट का. हौसले का.

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
केतन बुकरैत
3 मई 2016 (Updated: 3 मई 2016, 03:52 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
लगान. बचपन में गांव में सीडी प्लेयर पर देखी थी. नीरस लगी. उबाऊ. उस टाइम उठा-पटक वाली पिच्चर देखने का शौक था. अक्छय  कुमार वाली. लगान ने बोर कर दिया. पिच्चर देखी तो लेकिन अनमने ढंग से. फिर सालों बाद एक दिन यूट्यूब पे हाथ फिसल गया. और हम पहुंचे एक वीडियो पे. डॉक्यूमेंट्री थी. इस बारे में कि वो फिल्म बनी तो आखिर बनी कैसे. बिहाइंड द सीन टाइप का कुछ समझ लो. डॉक्युमेंट्री का बकायदे एक नाम था. 'चले चलो'. इसी नाम का एक गाना भी था फ़िल्म में. जावेद अख्तर का लिखा हुआ. अभी जब मैं ये लिख रहा हूं, तो हेडफ़ोन में वही बज भी रहा है. फ़ील आता है. डॉक्युमेंट्री बनाने वाले थे सत्यजीत भटकल. पहले ये वकील हुआ करते थे. और आमिर खान के दोस्त भी. फ़िल्म में ये प्रोडक्शन असिस्टेंट के तौर पर भी थे. इस डॉक्युमेंट्री को देखा. कंप्यूटर पर. हेडफ़ोन लगा के. और यकीन मानिए कि 2 घंटा 30 मिनट लंबी इस 'फ़िल्म' के बाद रोयां-रोयां आमिर, आशुतोष गोवारिकर, रीना दत्ता और साथ ही फ़िल्म में काम करने वाले सभी लोगों को सैल्यूट कर रहा था. एक-एक सीन के पीछे की कहानी मालूम चलने के बाद इस फ़िल्म की कीमत सौ क्या हज़ार गुना बढ़ जाती है. ऐसे में ऑस्कर अवॉर्ड भी बौना मालूम देने लगता है. गोवारिकर ने पागलपन की हदें लांघकर ऐसी स्क्रिप्ट लिखी जिसके बारे में हर कोई उन्हें मना कर रहा था. खुद आमिर भी. बाद में आमिर ने न सिर्फ उसमें काम करने का फ़ैसला किया बल्कि उसमें पैसा भी लगाने को राज़ी हुए. सैकड़ों ऐक्टर्स की फ़ौज और प्रोडक्शन टीम को उठाकर बम्बई से कितनी ही दूर एक गुजरात में एक रेगिस्तान में ले जाकर कैद कर दिया गया. एस्टिमेट से ऊपर छलकता बजट, शेड्यूल से पीछे चलती शूटिंग, ऐक्टर्स की मरी हुई हालत और न जाने क्या-क्या रास्ते में अड़चने डाल रहा था. लेकिन जो सोचा गया था उससे पीछे हटने की किसी ने न सोची. और आखिरकार फ़िल्म बनी. और क्या बनी, भाईसाब! बताते हुए भी मन होता है कि तालियां पीट दूं उस पूरी टीम के नाम. इस डॉक्युमेंट्री फ़िल्म को देखने के बाद दोबारा लगान देखी. और तबसे कई बार देख चुका हूं. देखी हुई फिल्में बारम्बार देखना आदत है. सो इसे भी देखता हूं. और लगान को तो कुछ ज़्यादा ही चाव से देखता हूं. 'चले चलो' एक टॉनिक जैसा काम देती है. मैं खुद के और दूसरों के किये-कराये से सीख लेने में विश्वास रखता हूं. लिहाज़ा जब भी अड़चनों की वजह से कुछ काम बिगड़ते हैं या रुकावटें आती हैं, तो इससे बहुत कुछ सीखने को मिलता है. जितनी बार देखो उतनी ही बार. फिर वो चाहे टूटी हुई पीठ लेकर शूटिंग करते हुए ए.के. हंगल हों या हिंदी का एक अक्षर भी न जानते हुए हिंदी में डायलाग फेंकते हुए अंग्रेज ऐक्टर्स या तेज़ हवा के चलते सिंक साउंड रिकॉर्डिंग में दिक्कत का सामना करते हुए साउंड इंजीनियर्स. सब कुछ बस एक ही बात सिखाता है - 'चले चलो!'

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement