भारतीय मूल की निक्की हेली अमेरिका की राष्ट्रपति बनीं तो पाकिस्तान का पैसा बंद!
अमेरिका दूसरे देशों को करोड़ों-अरबों की मदद क्यों देता है?
अमेरिका के पास इफ़रात पैसा है. पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा जीडीपी उसी की है. सबसे अधिक अरबपति अमेरिका में रहते हैं. उसका सालाना बजट तक कई बड़े देशों की जीडीपी से ज़्यादा है. और तो और, अमेरिका जितना पैसा खुली और सीक्रेट मदद के तौर पर बांट देता है, उतने में कई देशों का कई बरसों का खर्चा चल जाए. उससे मदद पाने वालों में पाकिस्तान, इराक़, इथियोपिया, मिस्र जैसे देश हैं. इन देशों को चलायमान बने रहने के लिए इस तरह की मदद की ज़रूरत बहुत ज़्यादा होती है. हालांकि, कई बार इन पैसों का इस्तेमाल लोकतंत्र को ठेंगा दिखाने में भी हुआ है. इसको लेकर अमेरिका की आलोचना भी होती है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकार मानते हैं कि ये उनकी वर्चस्व बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा है.
फिर आती है एक नेता. वो इस धारणा को पलटकर रख देती है. वो नेता यूएन में अमेरिका की राजदूत रह चुकी है. उसका एक कनेक्शन भारत से भी है. और, वो 2024 के राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपनी दावेदारी पेश कर रही है. वो कहती है, कमज़ोर अमेरिका बुरे लोगों को पैसे भेजता है. मज़बूत अमेरिका दुनिया का एटीएम नहीं बनेगा. अगर मैं राष्ट्रपति बनी तो विदेश-नीति को बदल दूंगी. हमारे पास दुश्मन देशों को दी जाने वाली मदद को रोकने की पूरी योजना है.
इस नेता का नाम है, निक्की हेली. भारतीय मूल की निक्की हेली रिपब्लिकन पार्टी की तरफ़ से राष्ट्रपति चुनाव लड़ना चाहती हैं. पार्टी के प्राइमरी इलेक्शन में उनका मुक़ाबला पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और फ़्लोरिडा के गवर्नर रॉन डि सेंटिज से है. उनका जीतना बेहद मुश्किल है. फिर भी उन्होंने अमेरिका की ‘पैसा बांटो-वर्चस्व बढ़ाओ योजना’ को बहस के केंद्र में तो ला ही दिया है.
तो आइए जानते हैं,
- निक्की हेली की पूरी कहानी क्या है?
- अमेरिका दूसरे देशों को करोड़ों-अरबों की मदद क्यों देता है?
- और, इन पैसों की नियति पर सवाल क्यों खड़े किए जाते हैं?
साल 1969 की बात है. पंजाब से एक जोड़ा अमेरिका के साउथ कैरोलाइना पहुंचा. उनके नाम थे, अजित और राज रंधावा. अजित को एक कॉलेज में प्रफ़ेसर की नौकरी मिली थी. जबकि राज स्कूल में टीचर बनीं. सेटल होने के बाद उन्होंने परिवार शुरू करने का फ़ैसला किया. 1972 में रंधावा दंपत्ति के घर एक बच्ची पैदा हुई. उन्होंने उसका नाम रखा, निमरत निक्की रंधावा. हालांकि, उनका मिडिल नेम ज़्यादा चर्चा में रहा. लोग उन्हें निक्की के नाम से पहचानते थे. ये नाम आगे चलकर उनके लिए परेशानी का सबब बना. दरअसल, 2018 में सोशल मीडिया पर चर्चा चली कि, उन्होंने ‘वाइट अमेरिका’ में आगे बढ़ने के लिए अपना असली नाम छिपाया. उस समय उन्हें सफाई देनी पड़ी थी. उन्हें ट्वीट कर बताना पड़ा कि बर्थ सर्टिफ़िकेट पर मेरा नाम निक्की है. मैंने माइकल हेली से शादी की है. बचपन में मेरा नाम निमरत कौर रंधावा था.
निक्की की पूरी पढ़ाई-लिखाई साउथ कैरोलाइना में ही हुई. तब तक उनके घरवालों ने कपड़ों का बिजनेस शुरू कर लिया था. ये बिजनेस चल निकला. निक्की पढ़ाई के साथ-साथ फ़ैमिली बिजनेस में भी हाथ बंटाती थी. 1996 में उन्होंने माइकल हेली से शादी की. शादी के बाद निमरत निक्की रंधावा ने निक्की हेली नाम अपना लिया. माइकल बाद में नेशनल गार्ड का हिस्सा बने और अमेरिका की तरफ़ से लड़ने के लिए अफ़ग़ानिस्तान भी गए.
2004 में निक्की हेली पहली बार अमेरिका के निचले सदन ‘हाउस ऑफ़ रेप्रजेंटेटिव्स’ की मेंबर बनीं. वो लगातार तीन बरस तक सदन में दाखिल हुईं. फिर 2010 में उन्होंने साउथ कैरोलाइना के गवर्नर का चुनाव जीता. 2014 में वो दूसरी बार गवर्नर बनीं. 2016 में उनका नाम अमेरिका की नेशनल पोलिटिक्स में चर्चा में आया. उस बरस राष्ट्रपति चुनाव होने वाले थे. अमेरिका की पोलिटिक्स में दो पार्टियों का दबदबा है. हाथी के निशान वाली रिपब्लिकन और गधे के निशान वाली डेमोक्रेटिक पार्टी. समझने के लिए और आसान कर देती हूं. डोनाल्ड ट्रंप वाली पार्टी का नाम रिपब्लिकन है, जबकि जो बाइडन डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं.
इन पार्टियों में बहुत सारे नेता राष्ट्रपति बनने की मंशा रखते हैं. सबको फ़ेयर मौका मिले, इसके लिए पार्टी के अंदर चुनाव कराए जाते हैं. इन्हें प्राइमरी कहा जाता है. 2016 के प्राइमरी में रिपब्लिकन पार्टी में दो बड़े दावेदार थे. डोनाल्ड ट्रंप और टेड क्रूज़.
उस प्राइमरी में निक्की हेली ने टेड क्रूज़ का समर्थन किया था. हेली ट्रंप के नस्लभेदी बयानों का खुलकर विरोध करती थीं. इसके बाद ट्रंप ने पहले प्राइमरी जीता और फिर राष्ट्रपति चुनाव भी अपने नाम कर लिया. चुनाव से पहले के विरोध के बावजूद ट्रंप ने हेली को अपनी टीम में जगह दी. हेली को यूएन में अमेरिका का राजदूत नियुक्त किया गया. वो इस पर अक्टूबर 2018 तक रहीं.
कुछ समय तक वो एविएशन कंपनी बोइंग के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स का हिस्सा रहीं. फिर वो पोलिटिक्स में वापस लौटीं. रिपब्लिकन पार्टी में होने के बावजूद उन्होंने कोरोना की अराजकता और कैपिटल हिल दंगों पर ट्रंप को लताड़ा था. इसको लेकर ट्रंप समर्थक उनसे नाराज़ भी हुए थे.
दो बरस बाद निक्की हेली फिर से चर्चा में क्यों हैं?दरअसल, 14 फ़रवरी 2023 को उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए अपनी दावेदारी पेश की. उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी के प्राइमरी इलेक्शन के लिए अपना नाम रजिस्टर करवाया है. उनका मुख्य मुकाबला डोनाल्ड ट्रंप और रॉन डि सेंटिज से है. ट्रंप ने नवंबर 2022 में अपनी दावेदारी पेश कर दी थी. डि सेंटिज ने अभी रजिस्टर तो नहीं किया है, लेकिन उनका प्राइमरी लड़ना तय माना जा रहा है. एक सर्वे के मुताबिक, ट्रंप को रिपब्लिकन पार्टी के 54 और डि सेंटिज को 24 प्रतिशत वोटर्स का समर्थन है. ये आंकड़ा हेली की राह को मुश्किल करने वाला है.
रिपब्लिकन पार्टी के इतिहास में कभी किसी महिला कैंडिडेट ने प्रेसिडेंशियल प्राइमरी नहीं जीती है. ये पार्टी रुढ़िवादी, कट्टर दक्षिणपंथी और श्वेत नस्ल की समर्थक मानी जाती है. निक्की हेली महिला हैं, एशियाई नस्ल की हैं और वो अश्वेत भी हैं. ट्रंप ने कैंडिडेसी की घोषणा से पहले उनके ऊपर ज़ुबानी हमला भी शुरू कर दिया था. 02 फ़रवरी को रेडियो शो होस्ट ह्यूज हेविट को दिए इंटरव्यू में ट्रंप बोले, वो बहुत महत्वाकांक्षी महिला है.
हेली को उस सोच से भी लड़ना है, जिसमें उनके उम्र की महिला को ‘नॉट इन हर प्राइम’ बताकर खारिज करने की कोशिश की जाती है. 17 फ़रवरी को CNN के एक एंकर ने कहा कि, हेली 51 की हो चुकी हैं. और, कोई महिला 30 से 50 की उम्र में ही काम की होती है. इसको लेकर CNN की ख़ूब आलोचना हो रही है. हेली ने एक ट्वीट में CNN के पुरुष एंकर्स पर तंज कसा.
दिलचस्प ये है कि मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन 80 बरस के हैं. जबकि ट्रंप 76 बरस के हो चुके हैं. लेकिन उनकी उम्र को लेकर इस तरह की बहस नहीं होती. हालांकि, हेली को लिंग, उम्र, नस्ल के आधार पर होने वाले भेदभाव से हमेशा लड़ना पड़ा है. उनका पुराना अनुभव बहुत काम आने वाला है.
निक्की हेली को भारत-अमेरिका संबंधों का सबसे बड़ा पैरोकार भी माना जाता है. जानकारों का कहना है कि उनका राष्ट्रपति चुनाव लड़ना और उसमें सफल होना ना सिर्फ ऐतिहासिक होगा, बल्कि ये भारत के हितों के लिए भी अच्छा होगा.
ये तो हुई निक्की हेली की कहानी. अब सवाल ये कि, आज हम उनकी कहानी सुना क्यों रहे हैं?
दरअसल, हेली ने 24 फ़रवरी को डेली टैबलॉइड न्यू यॉर्क पोस्ट में एक ऑप-एड लिखा. इसमें उन्होंने भविष्य की योजनाओं और अपनी उम्मीदवारी के बारे में लिखा है. पोस्ट लंबी है. हेली ने क्या लिखा, तीन पॉइंट्स में सार समझ लीजिए,
- नंबर एक. 2022 में अमेरिका ने फ़ॉरेन एड के तौर पर लगभग चार लाख करोड़ रुपये की रकम दी. टैक्सपेयर्स को ये जानने का हक़ है कि, उनका पैसा कहां जा रहा है और उसका क्या इस्तेमाल हो रहा है? राष्ट्रपति बनने के बाद मैं इस पर रोक लगा दूंगी.
- नंबर दो. मैं राष्ट्रपति के तौर पर वैसा ही काम करूंगी, जैसा मैंने राजदूत के तौर पर किया था.
यूएन में अपने कार्यकाल में मैंने अमेरिका-विरोधी देशों को हमें लताड़ते हुए देखा है. वही देश बंद कमरों में हमारे सामने पैसे के लिए गिड़गिड़ाते थे. मैंने अपने नेताओं में भरोसा खो दिया. उन्हें पता था कि क्या हो रहा है, फिर भी वे पैसा पानी की तरह बहा रहे थे.
- नंबर तीन. बकौल हेली, फ़ॉरेन एड से जुड़ी पॉलिसीज़ अतीत में अटकी हुईं हैं. वो ऑटोपायलट मोड पर चल रहीं हैं. जो देश हमसे मदद ले रहे हैं, हम उनके बर्ताव की परवाह नहीं करते. हेली ने लिखा, जो भी देश हमसे नफ़रत करते हैं. मैं उनको दी जा रही एक-एक पाई की मदद रोक दूंगी. ताक़तवर अमेरिका बुरे लोगों को पैसे नहीं देता. गौरवशाली अमेरिका अपने लोगों की मेहनत की कमाई को बर्बाद नहीं करता. और, वही नेता हमारे भरोसे के काबिल हैं, जो दुश्मनों के ख़िलाफ़ और दोस्तों के साथ खड़े होते हैं.
हेली ने अपने आर्टिकल में कुछ देशों का नाम भी लिया. मसलन, 2022 में अमेरिका ने इराक़ को लगभग आठ हज़ार करोड़ रुपये की मदद दी. हेली का कहना है कि इराक़, अमेरिका के कट्टर दुश्मन ईरान के करीब आ रहा है. उन्होंने बाइडन सरकार पर पाकिस्तान और चीन को भी ख़ूब पैसे देने का आरोप लगाया. हेली ने लिखा, बाइडन सरकार ने पाकिस्तान को दी जाने वाली सैन्य सहायता फिर से शुरू की है. जबकि वो देश एक दर्जन से अधिक आतंकी संगठनों का गढ़ है. और तो और, वहां की सरकार चीन की गोद में भी बैठी हुई है. अमेरिका ने 2022 में पाकिस्तान को लगभग 1200 करोड़ रुपये की मदद दी थी. हेली ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान अमेरिकी नागरिकों के हत्यारों को शरण दे रहा है. फिर भी सरकार नहीं चेत रही है.
अब आपके मन में जिज्ञासा हो रही होगी कि, अमेरिका दूसरे देशों पर इतने पैसे खर्च क्यों करता है? इसका जवाब बताएं, उससे पहले ब्रीफ़ इंट्रो.
फ़ॉरेन एड या विदेशी मदद क्या है?ये एक देश की तरफ़ से किसी दूसरे ज़रूरतमंद देश को दी जाने वाली सहायता है. ये सहायता धन, हथियार, मानव संसाधन या किसी दूसरी वस्तु के तौर पर हो सकती है. एक उदाहरण से समझते हैं. सीरिया और तुर्किए में भूकंप के बाद भारत और दूसरे देशों ने दवाइयां, कपड़े, खाने-पीने की चीजें और रेस्क्यू टीमें भेजीं. इन सबको फ़ॉरेन एड की श्रेणी में रखा जाएगा. ये तो हुई आपात स्थिति. नॉर्मल कंडीशन में भी शिक्षा, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था आदि को बेहतर करने के लिए देश एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं. अमेरिका इस तरह की मदद देने वाला सबसे बड़ा देश है.
फ़ॉरेन एड को मुख्यतौर पर चार केटेगरी में बांटा गया है.
- नंबर एक. मानवीय मदद. इसमें वॉर या किसी प्राकृतिक आपदा से जूझ रही जनता को दी जाने वाली सहायता शामिल है.
- नंबर दो. डेवलपमेंट एड. इसमें किसी देश या समुदाय की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए दी जाने वाली मदद शामिल है.
- नंबर तीन. सैन्य सहायता. इसके तहत किसी दूसरे देश की सेना को ट्रेनिंग, पैसा, हथियार या दूसरे तरह की सहायता दी जाती है. जैसे, अमेरिका इंटरनैशनल मिलिटरी एजुकेशन एंड ट्रेनिंग (IMET) और काउंटरिंग टेररिज्म फ़ेलोशिप प्रोग्राम (CTFP) के तहत विदेशी अफ़सरों को अपने यहां ट्रेनिंग देती है. जर्नल ऑफ़ पीस रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस ट्रेनिंग में शामिल कई अफ़सरों ने बाद में अपने देश में सैन्य तख़्तापलट में हिस्सा लिया.
- नंबर चार. राजनैतिक और आर्थिक मदद. इसके तहत शांति समझौते, न्यायिक और आपराधिक सुधार जैसे कार्यक्रमों में सहयोग किया जाता है.
अब असली सवाल पर लौटते हैं. अमेरिका पैसे देता क्यों है?
मौजूदा दौर में सबसे बड़ी वजह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सामने आई. विश्वयुद्ध में यूरोप के अधिकतर देश तबाह हो चुके थे. दुनिया दो धड़े में बंटने लगी थी. एक धड़ा अमेरिका का था. दूसरा धड़ा सोवियत संघ का था. तबाह हुए देशों को जिनका सहारा मिलता, वे उस तरफ़ खड़े हो जाते. अमेरिका ने इस नब्ज़ को पहचान लिया. 1947 में अमेरिका के विदेशमंत्री बने जॉर्ज मार्शल ने यूरोप की मदद का प्लान पेश किया. अमेरिका के नेताओं को लगा कि, अगर यूरोप में फैली अराजकता को थाम लिया जाए तो वहां की जनता कम्युनिज्म की तरफ़ नहीं जाएगी. इसी मकसद से राष्ट्रपित हैरी ट्रूमैन ने 1948 में इकोनॉमिक रिकवरी ऐक्ट पर दस्तखत कर दिए. मार्शल प्लान काम आया. पश्चिमी यूरोप से कम्युनिज्म दूर रहा. अमेरिका ने सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों को भी मदद देने की कोशिश की. लेकिन सोवियत संघ ने मार्शल प्लान में हिस्सेदार बनने से मना कर दिया.
1950 के दशक में अमेरिका ने साउथ वियतनाम के सैनिकों को हो ची मिन्ह की गुरिल्ला लड़ाकों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए पैसे और हथियार दिए. बाद में उन्होंने अपनी सेना भी उतार दी. हालांकि, इसका अंतिम परिणाम अमेरिका के हित में नहीं रहा.
1960 के दशक में साउथ अमेरिका में अलायंस फ़ॉर प्रोग्रेस की शुरुआत की गई. ये मार्शल प्लान का लैटिन अमेरिकी वर्जन था. ये प्लान सफ़ल नहीं हो पाया.
1982 से 2000 तक अमेरिका ने वॉर ऑन ड्रग्स छेड़ा था. उस समय उनका फ़ोकस कोलोंबिया और मेक्सिको जैसे देशों से अमेरिका में होने वाली ड्रग्स स्मगलिंग को रोकने पर था.
2000 और 2010 के दशक में अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में वॉर ऑन टेरर और अफ़्रीका में एड्स की रोकथाम से लड़ने पर खर्च किया.
अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से तो अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया है. लेकिन वे इराक़, सीरिया, लीबिया जैसे देशों में अपनी मौजूदगी बचाए हुए हैं.
अमेरिका दावा करता है कि उनकी मदद लोकतंत्र की सुरक्षा और आम नागरिकों की बेहतरी के लिए रहती है. मगर कई बार उनके पैसों पर पाले-पोसे गए लोग और संस्थाएं लोकतंत्र और बुनियादी अधिकारों का गला घोंट देते हैं. निक्की हेली ने अपने आर्टिकल में अमेरिकी हितों पर ज़ोर दिया है. मगर इसके दायरे में बहुत कुछ और भी छिपा हुआ है.
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