22 अगस्त 2016 (Updated: 23 अगस्त 2016, 10:46 AM IST) कॉमेंट्स
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क्रिकेट. सबसे पहले तो इस बात पर रजामंदी बना ली जाए कि इंडिया में क्रिकेट खेल नहीं है. खेल से कुछ ज़्यादा ही है. एकदम उस दोस्त की जैसे जो दोस्त नहीं रहती, कुछ ज़्यादा ही हो जाती है. इसी खेल को देखते, सुनते, खेलते देश की एक बड़ी फ़सल तैयार हुई है. आज लहलहा रही है. इस फ़सल का खाद-पानी रहे हैं तेंदुलकर, गांगुली, गिलक्रिस्ट, वॉर्न, अख्तर, अकरम, मुरली आदि आदि. आज भले ही इन सभी की जगह कोहली, धोनी, डिविलियर्स, स्मिथ, गेल आदि नें ले ली हो. लेकिन वो 90 और 2000 के शुरुआत का क्रिकेट भुलाए नहीं भूलता. तब जब सचिन ने शारजाह में कैस्प्रोविच को छक्का मारकर आसमान में छेद कर दिया था. तब जब वॉर्न ने गेंद को सवा मील घुमा दिया था. तब जब अख्तर ने लारा का अंगूठा तोड़ दिया था. तब जब पोंटिंग ने अफ़्रीकी ज़मीन पर ज़हीर खान और श्रीनाथ को मारकर दोहरा कर दिया था. तब जब अकरम रिवर्स स्विंग करके गेंद को अपने ही पास वापस बुला सकता था. तब जब मुरली की गेंदें उसकी आंखों का इशारा समझती थीं.
इसी 90 के क्रिकेट में हमें मिली थीं कुछ रोचक बातें. वो बातें जो दूरदर्शन पर देखे जाने वाले मैच के साथ साथ कान में बताई जाती थीं. और फिर अगले दिन स्कूल में जब संस्कृत वाली मैम 'पठति पठतः पठन्ति' के फेर में हमें फांसना चाहती थीं, दोस्तों से उन सभी बातों का ज़िक्र होता था. इस पर गरमागरम बहस होती थी. ऐसी बहसें कि ये सभी टीवी डिबेट शो शरमा जायें. हम सभी की आपसी सहमति बनती थी और उन सभी कॉन्सेप्ट्स को लेकर हम अपने अपने घर आ जाते थे. शाम को वो सभी बातें गली के लड़कों के कानों में डाल दी जाती थीं. और इस तरह वो बातें 'बाई गॉड' की मदद से फ़िक्शन से फैक्ट में परिवर्तित हो जाती थीं.
क्रिकेट की ऐसी बातों का फ़्लैशबैक ये रहा:
5 गिलक्रिस्ट के ग्लव्स में चुम्बक लगा हुआ था
बात है 2003 वर्ल्ड कप की. वर्ल्ड कप के दौरान ऑस्ट्रेलिया बेहतरीन तरीके से खेल रहा था. और ऑस्ट्रेलिया में ऐडम गिलक्रिस्ट बेहतरीन तरीके से कीपिंग कर रहे थे. उनके आस पास में गेंद जाने का मतलब होता था कि गेंद उनके ग्लव्स के केंद्र में ही जा के रुकेगी. और रुकेगी तो रुकेगी. गिलक्रिस्ट से गेंद छूटने का मतलब था कि अगले दिन सूरज बैंगनी रंग का निकलता. अर्थात नामुमकिन. और उसी बीच किसी ने किसी के कान में फुसफुसा दिया -
"पता है बे? गिलक्रिस्ट के ग्लव्स में चुम्बक लगा है?" "का कहि रहे हो? सही में." "बाई गॉड!"
और बस. चल निकला मामला. गिलक्रिस्ट के ग्लव्स में चुम्बक लगे होने की बात को प्रमाण पत्र दिलवा दिया गया. ग्लव्स में लगा चुम्बक गेंद को अपनी ओर खींचने लगा और बल्लेबाज एक-एक कर पवेलियन जाने लगे. 'बाई गॉड' का एक शिकार डाउन था.
4 रिकी पोंटिंग के बल्ले में स्प्रिंग लगा हुआ था
2003 वर्ल्ड कप का फाइनल. जोहांसबर्ग. श्रीनाथ, ज़हीर खान और आशीष नेहरा का भर्ता बनाया गया था. बनाने वाले का नाम था रिकी पोंटिंग. डेढ़ सौ से कुछ कम रन बनाकर पवेलियन वापस जा चुके थे. और तब तक सीतापुर के कमलापुर नाम के कस्बे में हिंदी के मास्टर के लौंडे के कान में एक बड़े काम की बात डाली जा चुकी थी.
"पोइंटिंग के बल्लेम स्प्रिंग लागि है." "हुंह? कईसे?" "औ जो लाग भई तौ?" "सही?" "महोठे रानी कसम."
महोठे रानी अपना कमाल दिखा चुकी थीं. वो महोठे रानी जो सालों पहले उसी कस्बे से किलोमीटर भर दूर एक बाग़ में कभी सती हो गई थीं. उनके नाम पर हर साल वहां मेला लगता है.
अगले दिन पूरे स्कूल को ये बात मालूम थी. सातवीं क्लास का पहला दिन और सबसे पहली बात मेज पर जो रक्खी गयी वो यही थी - "रिकी पोंटिंग के बल्ले में स्प्रिंग लगा हुआ है." भइय्या जी की बातें! हर किसी को अब मालूम था. इंडिया की हार का गम अब भी भुलाये नहीं भूल रहा था. लेकिन इस खबर ने कुछ राहत ज़रूर दी थी. क्यूंकि किसी ने दबी जुबान ये भी कह दिया था कि बल्ले में स्प्रिंग वाली बात सबको मालूम चल गयी है तो मैच दोबारा होगा. लेकिन फिर अगले दिन इंडिया को मुंबई एयरपोर्ट पर उतरने वाली फोटुएं जब अखबार में देखीं तो दिल टूट गया.
3 जोंटी रोड्स के शरीर में रबर लगी हुई थी
जोंटी रोड्स. वो आदमी जो अपने शरीर की लम्बाई के दोगुने एरिया को कवर करता था. वो ऐसे कूदता था जैसे ज़मीन पर गद्दा बिछा हो. ऐसे गेंद को लपकता था जैसे इस बात को प्रूव करना चाहता हो कि इंसान के पूर्वज सचमुच बन्दर ही थे. और ऐसे में एक इंग्लिश मीडियम लड़के ने उतने ही इंग्लिश मीडियम लड़के के कान में कहा
गॉड का नाम आते ही सब कुछ खतम हो जाता था. बातें भी इंग्लिश मीडियम थीं इसलिए भरोसे लायक थीं. जोंटी रोड्स ने अपने शरीर की सर्जरी करवा कर शरीर में रबर फिट करवा ली थी. अब वो किसी भी तरह से कूद सकते थे. कहीं भी मुड़ सकते थे. कैसे भी मुड़ सकते थे. किसी भी ऐंगल से गेंद को गुपच सकते थे. साथ ही किसी इंग्लिश मीडियम कोने में एक बात और भी कही गयी जिसका हिंदी मीडियम वालों ने ये मतलब निकाला कि जोंटी रोड्स पूरे वक़्त अपने अंगूठे पर खड़ा रहता है. क्यूंकि इंग्लिश मीडियम वाले कमेंट्रेटर ने ये कह दिया था कि "He is always on his toes." जिसका मतलब होता था कि वो हमेशा चुस्त रहता है. लेकिन हाय री सीतापुर की अंग्रेजी. अंगूठे पे खड़ा रहता है. सच में? :D
2 अज़हरुद्दीन की कलाई टूटी हुई थी
अज़हरुद्दीन. इंडिया का कप्तान. हैदराबाद का ताबड़तोड़ बल्लेबाज. आते ही तीन सेंचुरी ठोकीं थीं. कलाई ऐसे घुमाता था कि लट्टू शर्मा जाए. गेंद ऑफ स्टम्प के बाहर और चौव्वा जाता था लॉन्ग ऑन की बाउंड्री पर. खड़ा कॉलर और बाहर लटकती ताबीज़. हर कोई जानता था कि उस ताबीज़ में काला जादू कूट कूट कर भरा गया था. लेकिन उससे बड़ी एक बात जो आदमजात के इतिहास में सिर्फ और सिर्फ एक ही बार हुई है और होगी भी. क्यूंकि अज़हरुद्दीन सिर्फ एक बार हुआ है और होगा.
"इसकी कलाई देखी है?" "हां बहुत घुमाता है." "अबे उसकी कलाई टूटी हुई है." "भक बे." "तेरी जान कसम. चारों ओर घूमती है."
बस! इतना काफी था. अज़हरुद्दीन की कलाइयां टूट चुकी थीं. टूट कर चारों ओर घूम रही थीं. ऑफ स्टम्प और उसके भी बाहर पड़ने वाली गेंदें ऑन साइड बाउंड्री से मिलकर अपना सुख-दुख बांट रही थीं. और लोगों को इस बात का विश्वास था कि अजहरुद्दीन की कलाइयां टूटी हुई हैं.
1 सचिन की आंखों में गेंद बड़ा करके दिखाने वाला लेंस लगा हुआ है
सचिन तेंदुलकर. वही लड़का जिसने कादिर को छक्के ही छक्के बजा दिए थे. जिसने एक कवर ड्राइव मारी थी तो इमरान खान की आंखें खुल गई थीं. वो जिसने शारजाह में धूल भरी आंधी ला दी थी. वो जिसने शेन वॉर्न को सिखाया था कि लेग स्पिन कैसे खेली जाती है. वो जिसने स्ट्रेट ड्राइव खेलकर डा विन्ची ने सीधी लाइनें खींचनी सीखी थीं. उसी सचिन के बारे में एक दिन किसी बड़े काम के आदमी ने कह दिया
"अबे ये! ये तो आंखों में मसीन फिट कराइस है.""मसीन?""अबे अउक्का! इसकी आंखें देखे हो? कैसे घूर के देखता है गेंद को.""आंहां.""अरे देखना. ये आंख में लेंस लगवाइस है लेंस. गेंद येब्बड़ी की दिखती है. एकदम फुटबॉल.""अबे बकलोली न करो.""भाई विद्या कसम."
सचिन तेंदुलकर के बारे में ये कहा जाना कई रूपों में ज़रूरी भी था. क्यूंकि कोई न कोई एक्सप्लेनेशन होना ही चाहिए ये साबित करने के लिए कि अगला कद्दू में जो तीर मारे ही जा रहा है तो कैसे? ऐसा कॉन्सेप्ट लाना ज़रूरी था जिससे ये कहा जा सके कि इसके पास जो था वो कोई दिव्यशक्ति या साइंस का चमत्कार था. मैंगो आदमी के बस की बात नहीं. सो सचिन अपने उस लेंस के सहारे खेले ही जा रहे थे. गेंद को फुटबॉल की तरह बड़ा देखे ही जा रहे थे.