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तो क्या राजा हरिश्चंद्र नहीं थी भारत की पहली फिल्म?

राजा हरिश्चंद्र से पहले भी फिल्में बनी थीं. दादा साहब फालके के बड्डे पर जानिए पूरा किस्सा.

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30 अप्रैल 2018 (Updated: 29 अप्रैल 2018, 04:42 AM IST) कॉमेंट्स
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दादा साहब फालके. ये न होते तो आप वो बहस नहीं कर पाते कि शाहरुख की फिल्में बेहतर हैं या आमिर खान की. फालके की ही ज़िद थी कि भारत में फिल्म उद्योग की नींव पड़ी. आज फालके का बड्डे है. इस मौके पर पढ़िए उस विवाद के बारे में जो उनकी विरासत की सबसे प्रसिद्ध चीज़ के बारे में है - भारत की पहली फिल्म.


'आधा बंबई ये फिल्म देख चुका है, बचे हुए आधों को भी देख आना चाहिए.'

- 'श्री पुंडलीक' की रिलीज के अगले हफ्ते, उसके एक पोस्टर पर लिखा था. ये बात उस वक्त की है, जब थियेटर में या तो नाटक दिखाए जाते थे या विदेशी फिल्में. तब एक भारतीय ने ख्वाब देखा भारत की अपनी फिल्म बनाने का. और वो था 'रामचंद्र गोपाल तोरने' यानी 'दादा साहब तोरने.' उन्होंने भारत की सबसे पहली फिल्म बनानी चाही. इसके लिए उन्होंने एक नाटक 'श्री पुंडलीक' की रिकॉर्डिंग की और इसे सिनेमाघरों में दिखाया गया. इसे दादा साहब फाल्के की 'राजा हरिश्चंद्र' से लगभग 1 साल पहले 18 मई, 1912 को दिखाया गया. जबकि 'राजा हरिश्चंद्र' 3 मई, 1913 को रिलीज हुई थी. इसके बाद इस पर बहुत विवाद हुआ कि इन दोनों में से किसे भारत की पहली फिल्म माना जाना चाहिए?

कौन थे दादा साहब तोरने?

18 अगस्त 1890 को जन्मे रामचंद्र गोपाल तोरने एक गरीब मराठी परिवार में पैदा हुए थे. तोरने का पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता था. 10 साल की उम्र में उन्होंने स्कूल छोड़ दिया. और बंबई की कॉटन ग्रीन इलेक्ट्रिकल कंपनी में काम करने लगे. वहां उन्होंने इलेक्ट्रिक डिवाइसेस के बारे में जाना. वहीं एक नाटक कंपनी 'श्रीपद' नाटक किया करती थी. तोरने खूब नाटक देखा करते. उनको इसमें मजा आने लगा. बंबई में जब विदेशी पिक्चर लगती तो तोरने भाग के देखने जाते. उनको हमेशा लगता कि ऐसी कोई फिल्म भारत में क्यों नहीं बनती. इस सवाल को तोरने ने सीरियसली लिया. और उन्हें चढ़ गया बुखार फिल्म बनाने का. उन्होंने अपने एक दोस्त 'नानासाहब चित्रे' को पैसे देने के लिए तैयार कर लिया. नाना ने पैसे दिए. और एक ब्रिटिश कंपनी से कैमरा मंगाया गया. भारत में बनी पहली फिल्म के लिए, सिनेमैटोग्राफर बना एक अंग्रेज, 'जॉनसन.'

कैसे बनी 'श्री पुंडलीक'?

'रामराव कीर्तिकार' का लिखा मराठी नाटक था 'श्री पुंडलीक.' ये एक हिंदू संत पर लिखा नाटक था. इसी पर फिल्म बननी थी. कैमरा मंगा ही लिया गया था. बस अब नाटक को रिकॉर्ड करना था. नाना चित्रे और कीर्तिकार के साथ मिल के उन्होंने लिख लिया, कौन-कौन सा सीन शूट करेंगे? पिक्चर में कोई डॉयलाग नहीं था, काहे से उस वक्त फिल्में मूक माने साइलेंट हुआ करती थीं. बंबई की ग्रांट रोड पर ये नाटक खेला गया. जो डायरेक्ट किया थे तोरने ने. और उसको कैमरे में रिकॉर्ड किया जॉनसन ने. पहले तो एक जगह कैमरा लगाकर नॉनस्टॉप रिकार्डिंग की गई. मगर जब तोरने ने रिकार्डिंग देखी तो उनको मजा नहीं आया. फिर उन्होंने सोचा एक-एक सीन रिकॉर्ड करते हैं. बाद में उसे जोड़ देंगे. कहा जा सकता है कि ये भारत कि पहली फिल्म एडिटिंग थी. जब पिक्चर की शूटिंग पूरी हो गई तो उन्होंने उसे लंदन भेज दिया पॉजिटिव में बदलने के लिए. ये फिल्म बनी थी 22 मिनट की. गिरगाव के कोरोनेशन सिनेमैटोग्राफ थिएटर में फिल्म रिलीज हुई. यहां ये फिल्म दो हफ्ते तक लगी रही.

तब पहली भारतीय फिल्म को लेकर क्या विवाद है?

'राजा हरिश्चंद्र' तो 1913 में रिलीज हुई तब क्यों उसको भारत की पहली फिल्म माना जाता है? ये विवाद लंबा और पुराना है. यहां तक की अप्रैल 2013 में 'इंडियन मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन' के डायरेक्टर, विकास पाटिल और तोरने के परिवार ने बॉम्बे हाई कोर्ट में एक मुकदमा डाल दिया था, पहली भारतीय फिल्म को लेकर. पाटिल ने 100 साल पहले के सारे अखबारों की कटिंग सबूत के लिए जुटाई. जिनमें 'श्री पुंडलीक' की रिलीज से जुड़ी खबरें और रिव्यू थे. अब भी ये कंट्रोवर्सी चल ही रही है. 'नेशनल फिल्म आर्काइव' के प्रशांत इस बारे में कहते हैं कि एक फीचर फिल्म के लिए कुछ खूबियां जरूरी हैं. उनका कहना है कि एक नाटक को कैमरे के जरिए रिकॉर्ड कर लेना फिल्म बनाना नहीं है. इसके अलावा इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि इस फिल्म को एक विदेशी कैमरामैन ने रिकॉर्ड किया था. और निगेटिव की प्रोसेसिंग भी लंदन में हुई थी. कुछ भी हो लेकिन ये मानना ही पड़ेगा, कि दादा साहब तोरने का नाटक को रिकॉर्ड करने का ये छोटा सा कदम ही था, जिसने भारतीय सिनेमा के लिए बड़ा सा दरवाजा खोल दिया.

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