The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • The Story of Humayun who reclaimed Delhi throne after 15 years

रोज 3 दफा अफीम लेते हुमायूँ ने दिल्ली दोबारा कैसे जीत ली?

शेर शाह सूरी से चौसा की जंग में मिली हार का बदला हुमायूँ ने इस तरह से लिया.

Advertisement
Img The Lallantop
हुमायूँ (तस्वीर: बाबरनामा)
pic
कमल
23 जुलाई 2021 (Updated: 22 जुलाई 2021, 03:45 AM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
आज है 23 जुलाई और इस तारीख का संबंध है हुमायूँ के दोबारा दिल्ली तख़्त पर बैठने के किस्से से.
शुरुआत करते हैं बाबर से, जिसने हिंदुस्तान पर 1530 तक शासन किया. उसका एक शेर है,
गिरफ़्तेम आलम ब मर्दी व ज़ोर व लेकिन न बर्देम बा ख़ुद ब गोर
यानि
ताकत और साहस से दुनिया पर फतह पाई जा सकती है, लेकिन ख़ुद अपने आप को दफ़न तक नहीं किया सकता.
इसे लिखते वक्त बाबर को नहीं पता था कि ये शेर एक दिन खुद उसके अपने बेटे हुमायूँ पर ही मौजूं होगा, जिसकी मौत के बाद उसे एक-एक कर तीन कब्रों में दफनाया गया. जिन्दगी का भी हाल कुछ ऐसा ही रहा. कुल जमा 10 सालों तक दिल्ली पर शासन कर सका. और 15 सालों तक अफ़ग़ानिस्तान से लेकर पर्शिया तक भटकता रहा. किताबों से इतना लगाव था कि हर जंग से लौटकर पहला सवाल यही पूछता, ’मेरी किताबें तो ठीक है ना!’.
दिन में तीन टाइम अफीम नोश फरमाता था. ईमान का इतना पक्का कि वुज़ू किए बगैर खुदा का नाम लेना भी हराम समझता था. ऐसे में अगर कोई अब्दुल्ला नाम का शख्स मिल जाए तो केवल अब्दुल कहकर बुलाता था. आइये समझते हैं, तख़्त से लेकर ताबूत तक हुमायूँ की कहानी, बाबर के बाद सन 1530 में बाबर की मौत हो गई थी. उसके बाद हुमायूँ ने दिल्ली का शासन संभाल लिया. उस वक़्त उसकी उम्र 22 वर्ष रही होगी. मुग़ल ताकतवर थे, पर दोनों तरफ से दुश्मनों से घिरे थे. पूर्व में बिहार और पश्चिम में गुजरात पर अफ़ग़ानों का कब्ज़ा था.
मुगलों और अफ़ग़ानों के बीच पुरानी दुश्मनी थी. इसके चलते उसे दोतरफ़ा लड़ाई लड़नी पड़ रही थी. बिहार में शेर खां और गुजरात में बहादुर शाह से. दोनों अपनी शक्तियां बढ़ा रहे थे. मुग़ल सेना एक तरफ जाती तो उन्हें दूसरी तरफ से हमला झेलना पड़ता.
Untitled Design (2)
बाबर और हुमायूँ की पेंटिंग (तस्वीर: अननोन
)

1534 में बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर हमला किया. वहां की महारानी कर्णावती ने राखी भेजकर हुमायूँ से मदद माँगी. हुमायूँ मदद के लिए पहुंचा. लेकिन तब तक महारानी कर्णावती जौहर कर चुकी थीं. ये देखकर हुमायूँ को बहुत गुस्सा आया. उसने गुजरात पर हमला कर बहादुर शाह को खदेड़ दिया और वहां कब्ज़ा जमा लिया.
इस बीच पश्चिम में शेर खां ने बंगाल पर कब्ज़ा कर अपनी ताकत बड़ा ली थी ताकि वो हुमायूँ का सामना कर सके. दोनों का सामना हुआ चौसा के मैदान में. चौसा का युद्ध साल था 1539. चौसा, आज के बिहार में बक्सर से 10 किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्चिम में पड़ता है. मुग़ल और अफ़ग़ान सेनाएं गंगा नदी के दक्षिणी तट पर खड़ी थीं. दोनों के बीच एक और नदी बह रही थी, जिसका नाम था कर्मनासा. उसे आसानी से पार करना मुश्किल था. गंगा और कर्मनासा नदियों के संगम के पतले हिस्से पर अफ़ग़ान सेना खड़ी थी और चौड़े हिस्से पे मुग़ल सेना.
मुगलों की स्थिति अफ़ग़ानों से बेहतर थी क्योंकि अफ़ग़ान संगम के ऊपरी भाग में थे. अगर मुगलों ने संगम के बीच के हिस्से को घेरने की कोशिश की होती तो अफ़ग़ान चारों तरफ से घिर जाते. लेकिन दोनों सेनाएं 3 महीने तक अपनी ही जगह पर खड़ी रहीं. वजह थी कि इससे कुछ वक्त पहले ही मुग़ल सैनिक जौनपुर और चुनार में अफ़ग़ानों से हार के आए थे. खाने और चारे की कमी के कारण भी बहुत दिक्कत हो रही थी. जंग की स्थिति में हुमायूँ को जीत का पूरा भरोसा न था.
इसलिए हुमायूँ ने शेर खां के साथ संधि की कोशिश की. इसके लिए हुमायूँ ने शेर खां के पास शेख खलील नाम का दूत भेजा. शेख खलील प्रसिद्ध सूफी संत शेख फरीद के वंश का था. वो अफ़ग़ानों के खेमे में पहुंचा तो शेर खां जून की तपती गर्मी में बेलचा लिए खाई खोदने में व्यस्त था. शेख खलील को देख उसने एक छाता मंगवाया और उसके नीचे बैठ गया.
शेख खलील ने शेर खां से संधि को लेकर बात की. बातचीत के दौरान उसके मुंह से निकला,
'अगर तुम शांति नहीं चाहते तो युद्ध करो'
शेर खां ने जवाब दिया,
'आप जो कुछ भी कहेंगे, वो मेरे भले के लिए होगा.'
खलील को ये बात कुछ समझ नहीं आई. खैर, दोनों के बीच संधि की शर्तें तय हो गईं. संधि के अनुसार शेर खां हुमायूँ की अधीनता स्वीकार करता. इसके बदले उसे बंगाल और बिहार की रियासत मिलती.
Untitled Design (4)
शेर शाह सूरी (पेंटिंग: उस्ताद अब्दुल गफ़ूर)


संधि के बाद शेर खां ने शेख खलील को अकेले में मिलने के लिए बुलाया, और बोला,
'अफ़ग़ानों के दिल में शेख़ फ़रीद के लिए बहुत मान-सम्मान है. आप भी उन्हीं के वंश के हैं इसलिए उतने ही सम्माननीय हैं.'
ये कहकर शेर खां ने खलील को बहुत से तोहफे दिए. अपनी तारीफ़ सुनकर शेख खलील फूल कर कुप्पा हो गया. उसने शेर खां से कहा,
'अगर तुम अभी युद्ध करोगे तो जीत जाओगे क्योंकि हुमायूँ की सेना की हालत अभी बहुत ख़राब है.'
मुगलों की हालत जानकार शेर खां ने एक योजना बनाई. उसने मुगलों का भरोसा जीतने के लिए उनके राशन की आपूर्ति में खलल डालना बंद कर दिया. इसके अलावा उसने हुमायूँ को नदी पार करने के लिए पुल बनाने की मंजूरी भी दे दी.
शेर खां ने ऐसी खबर फैलाई कि झारखण्ड के चेरूह सरदार उस पर आक्रमण करने वाले हैं. वो रोज अपनी सेना लेकर पूर्व में बढ़ता और फिर वापस लौट जाता. इससे मुगलों को भरोसा हो गया कि वो चेरुह सरदारों से लड़ने पूर्व की तरफ जाने वाला है.
इसी बीच मानसून शुरू हो गया. संगम पर पानी बढ़ने लग गया. शेर खां ने खलील के हाथों हुमायूँ को एक चिट्ठी भेजी. चिट्ठी में लिखा था कि वो चहेरू सरदारों से लड़ने रवाना हो रहा है और मुग़ल भी चेरुहों से सतर्क रहें.
अगली रात जब हुमायूँ और उसकी सेना चैन की नींद सो रही थी. शेर खां ने हमला कर दिया. तारीख थी 26 जून, 1539. मुग़ल सेना बेखबर थी. अफ़ग़ान सेना ने उन्हें तीनों तरफ़ से घेर लिया था. दो तरफ नदी थी और एक तरफ शेर खां. अचानक हुए हमले से सेना में भगदड़ मच गई. उन्हें इतना वक्त भी नहीं मिला था कि घुड़सवार घोड़ों पर जीन कस पाएं.
Untitled Design (3)
चौसा की लड़ाई का नक़्शा (सोर्स: हुमायूँनामा)


हमले की खबर सुन हुमायूँ अपने तम्बू से बाहर आया. हालत देख कर उसे अंदेशा हुआ कि सेना कहीं भाग ना जाए. उसने आसपास के पुलों को तोड़ने का आदेश दिया. ये एक बड़ी भूल थी. पुल न तोड़ा होता तो वो भाग सकता था. पर अब लड़ाई के अलावा कोई चारा नहीं बचा. इस भगदड़ में वो कुल 3०० सैनिक इकठ्ठा कर पाया. उसने लड़ने की सोची पर ये कोशिश बेकार थी. स्थिति चिंताजनक थी और ये देखकर कि बादशाह मारा जा सकता है. हुमायूँ के साथियों ने उसे एक घोड़े पे बिठाया. उसकी लगाम पकड़ कर वो हुमायूँ को जंग के मैदान से बाहर ले गए.
जंग से बहार आ जाने पर भी भागने का कोई रास्ता न था. कोई चारा न देखते हुए हुमायूँ घोड़े सहित नदी में कूद गया. नदी की धार बहुत तेज़ थी. उसका घोड़ा नदी की धारा में बह गया. वह भी डूबने ही वाला था कि तभी एक भिश्ती ने उसे एक मसक थमा दी. मसक चमड़े की बनी हुई एक थैली होती है जो पानी भरने के काम आती है. हवा भर देने पर वो पानी में तैरने लगती है.
मसक पकड़कर हुमायूँ किसी तरह तैरकर नदी पार कर पाया. बाहर निकलकर उसने भिश्ती का नाम पूछा. भिश्ती ने अपना नाम निज़ाम बतलाया. हुमायूँ ने निज़ाम से कहा कि उसने एक बादशाह की जान बचाई है. इसके एवज में वो उसे आधे दिन का बादशाह बनाएगा. उसने अपना वचन निभाया भी. आगरा पहुंचकर उसने निज़ाम को आधे दिन का बादशाह नियुक्त किया. सिंध की ओर चौसा की जीत से शेर खां के हौसले बढ़ गए थे. उसने अपना नाम रखा ‘शेर शाह सूरी’. शेर शाह सूरी और हुमायूँ के बीच 1540 में एक और युद्ध हुआ जिसमें मुगलों का सफाया हो गया. और हुमायूँ दर-दर भटकने को मजबूर हो गया. जान बचाने के लिए वो सिंध की तरफ चला गया. सिंध की ओर जाते हुए एक रात उसे सपना आया,
सपने में हरी पोशाक पहने एक फ़कीर उसके पास आया. फ़कीर ने लाठी पकड़ी हुई थी. हुमायूँ को अपनी लाठी थमाते हुए वो बोला,
'उदास मत हो! खुदा तुझे एक बेटे से नवाज़ेगा जिसका नाम होगा अकबर’. वो पूरी दुनिया में तेरा नाम रोशन करेगा.'
इस सपने ने दोबारा उसके दिल को जोश से भर दिया.आगे की योजना बनाने वो सिंध में अपने सौतेले भाई हिंदाल के पास चला गया. गिरेबां और दामन सिंध में हुमायूँ ने हिंदाल के घर में शरण ले ली. हिंदाल की माँ का नाम दिलदार बेगम था. दिलदार बेगम ने हुमायूँ की अच्छी खातिरदारी की. बादशाह कहकर उसका मान बढ़ाया और आसपास के लोगों को उससे मिलने बुलाया. कुछ लड़कियां भी हुमायूँ से मिलने आईं. हुमायूँ सबसे मिल ही रहा था कि तभी उसकी नजर एक 14 साल की लड़की पर पड़ी. हुमायूँ ने हिंदाल से पुछा कि ये लड़की कौन है. हिंदाल ने जवाब दिया कि वो उसके उस्ताद की बेटी है, हमीदा बानो.
Untitled Design (6)
हमीदा बानो (तस्वीर: अननोन)


उस वक्त हुमायूँ की उम्र 33 साल थी. उसकी तीन शादियाँ हो चुकी थी. पर पहली नजर में ही वो 14 साल की हमीदा को दिल दे बैठा. अगले दिन उसने दिलदार बेगम को इस बारे में बताया और हमीदा से शादी करने की इच्छा जताई.
दिलदार बेगम ने हमीदा बानो को बुलाया तो उसने ये कहते हुए इनकार कर दिया कि
'किसी से भी एक बार मिलना जायज है. लेकिन एक जवान लड़की के लिए बार-बार किसी से मिलने जाना हराम है चाहे वो बादशाह ही क्यों न हो.'
दिलदार बानों ने उसे समझाया कि हुमायूँ उससे शादी करना चाहता है. उसे कभी न कभी तो शादी करनी ही है तो क्यों नहीं वो एक बादशाह से शादी करे. इस पर हमीदा ने जवाब दिया,
आरे ब कसे ख्वाहम रसीद कि दस्ते मन ब गरेबाने ऊ बरसद न आकि ब कसे बेरसम कि दस्ते मन मीदानम ब दामने ऊ न रसद (हुमायूँनामा)
यानि
मेरी ख्वाहिश है कि मैं शादी करूँ लेकिन किसी ऐसे आदमी से जिसके गिरेबान मेरे हाथ छू सके. न कि ऐसा जिसके दामन को भी मैं न छू सकूं.
दिलदार बेगम पूरे 40 दिन तक उसे मनाती रही और आखिर में हमीदा मान गयी. 26 अगस्त, 1541 को हुमायूँ और हमीदा की शादी हो गई. 14 महीने बाद एक बेटा पैदा हुआ तो हुमांयू को वो सपना याद आया जिसमें उसने एक फ़कीर को देखा था. और उसने अपने बेटे को नाम दिया जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर’.सरहिंद की लड़ाई सिंध से होते हुए हुमायूँ अफ़ग़ानिस्तान पहुंचा. जहाँ उसने दोबारा अपनी सेना बनाई. उधर 1545 में शेर शाह सूरी की मौत हो चुकी थी. जिसके बाद दिल्ली का तख़्त उसके बेटे इस्लाम शाह को मिला. 1554 में इस्लाम शाह को हराकर सिकंदर शाह सूरी ने दिल्ली की गद्दी पर कब्ज़ा कर लिया था. उस समय उत्तर भारत के हालात बहुत अस्थिर थे. अलग-अलग रियासतें दिल्ली पर अपना हक़ जता रही थीं. मौका देखकर हुमायूँ ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी. इस लड़ाई के लिए उसने बैरम खां को अपना सेना अध्यक्ष बनाया. 28 मई, 1555 को मुग़ल सरहिंद पहुंचे और उस पर कब्ज़ा कर लिया. सरहिंद आज के पंजाब में पड़ता है.
Untitled Design (1)
अकबर युवा अवस्था में (पेंटिंग: विंसेंट स्मिथ)


जब सिकंदर शाह को पता चला कि मुगलों ने सरहिंद में कब्ज़ा कर लिया है तो उसने उनसे जंग की ठान ली. अफ़ग़ान सेना ने अपना पड़ाव दिल्ली के रास्ते पर डाला. ताकि मुग़ल अगर दिल्ली की और बढ़ें तो उन्हें किसी तरह रोका जाए. मुग़ल सरहिंद में ही डटे रहे. अफ़ग़ान सेना मुग़ल सेना से चार गुना बड़ी थी. 25 दिनों तक दोनों खेमे इंतज़ार करते रहे. छोटी-मोटी लड़ाईयां होती रही. जिसमें मुगलों ने सिकंदर सूरी के भाई, जिसे काला पहाड़ के नाम से जाना जाता था, उस पर हमला कर उसे मार दिया.
अपने भाई की मौत से गुस्साए सिकंदर ने मुगलों पर भीषण आक्रमण कर दिया. रात का समय था. अफ़ग़ान सेना के खेमे के नजदीक ही एक गाँव था. बैरम खां ने सैनिकों की एक टुकड़ी भेज कर उसमें आग लगा दी. खप्पर और भूसे से बने मकान धूं-धूं कर जलने लगे. आग के नजदीक होने से अफ़ग़ान सेना साफ़ दिखाई दे रही थी. मुग़ल अँधेरे में होने के कारण छुपे हुए थे. तेज़ हवा चलने लगी, जिससे आग और उसकी रोशनी और तेज़ हो गई. मौके का फायदा उठाते हुए बैरम खां ने पीछे से जाकर सिकंदर सूरी की सेना को घेर लिया. और उसका सफाया कर दिया. कहते हैं बैरम खां ने मरे हुए अफ़ग़ान सैनिकों की खोपड़ियों से एक मीनार बनाई. जिसका नाम उसने रखासिर-ए-मंजिल’.
सरहिन्द की जीत ने हिंदुस्तान में अफ़गानों के राज को खत्म कर दिया. हुमायूँ सरहिन्द से दिल्ली की और बढ़ गया. और 23 जुलाई को हुमायूँ ने दिल्ली की गद्दी पर दुबारा कब्ज़ा कर लिया. ये दुनिया अगर मिल भी जाए साहिर लुधियानवी का लिखा प्यासा फिल्म का एक गीत है, जिसके बोल कुछ यूं हैं,
ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया,ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया,ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया,ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या
दिल्ली के तख़्त पर काबिज होने के बाद हुमायूँ की हालत भी ऐसी ही हो चली थी. जिन्दगी भर चली जंगों, लाखों लोगों की मौत ने उसे सल्तनत के प्रति उदासीन कर दिया था. ‘तजाकरा-ए-हुमायूँ’ में बायजीद बयात ने इस बाबत लिखा है,
'हुमायूँ अपने जीवन को लेकर कुछ निराश हो चला था. अकबर के पंजाब चले जाने के बाद वो हमेशा जिन्दगी और मौत की बातें करता रहता था. वो अक्सर सोचा करता कि इस दुनिया को त्याग दे. उसकी सौगंध पूरी हो चुकी थी. अपने भाइयों और अफ़ग़ानों के कारण जो राज उसके हाथ से निकल गया था, उसने उसे दुबारा पा लिया था. उसकी ख्वाहिश थी कि वो अपनी सारी सल्तनत अकबर को सौंप दे. और बाकी बची जिन्दगी दरवेशों के साथ बिताए.'
सजदे में मौत 24 जनवरी 1556 का दिन था. उस दिन मक्का से कुछ लोग हुमायूँ से मिलने आए थे. उनसे मिलने के बाद वो अपनी लाइब्रेरी की छत पर चला गया. कुछ देर वहां टहलने के बाद जब वो सीढ़ी से नीचे उतर रहा था. उसे पास की मस्जिद से अजान की आवाज सुनाई दी. उसका नियम था कि जब भी वो अजान सुनता तो घुटने के बल सजदे में झुक जाता.
Untitled Design (5)
हुमायूँ का मक़बरा (तस्वीर: फ़िल्म ऑफ़िस, भारत सरकार)


जाड़ों के दिन थे. उसने एक लम्बा पोस्तीन पहना हुआ था. जैसे ही वो बैठने के लिए झुका, उसका पैर उसके पोस्तीन में उलझ गया. वो सीढ़ी से लुढ़कता हुआ सीधे सिर के बल जा गिरा. 26 जनवरी, 1556 को उसकी मौत हो गयी.
मुग़ल अभी भी कमज़ोर थे. बादशाह की मौत की खबर से विद्रोह हो सकता था. इसके लिए एक तरकीब निकाली गई. दरबार में मुल्ला बेकसी नाम का एक आदमी था. जिसकी शक्ल हुमायूँ से मिलती थी. उसे हुमायूँ की तरह बादशाह की पोशाक पहना कर गद्दी पर बैठाया गया ताकि लोगों को ये गुमान रहे कि हुमायूँ जिन्दा है.
लोगों को बादशाह के नज़दीक नहीं जाने दिया जाता ताकि कोई मुल्ला को पहचान न सके. ऐसे ही तरीकों से 17 दिन तक हुमायूँ की मौत की खबर को छुपाया गया. जिसके बाद अकबर को उसका उत्तराधिकारी घोषित कर दिल्ली के तख़्त पर बैठा दिया गया.

Advertisement