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भिखारी ठाकुर को 'बिदेसिया' के अलावा इन भोजपुरी नाटकों से भी समझना ज़रूरी है

10 जुलाई को भिखारी ठाकुर की बरसी है.

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भिखारी ठाकुर को उनके नाटकों 'बिदेसिया' और 'गबरघिचोर' के आस-पास ही देखा जाता है जबकि उनकी रचनाधर्मिता का फलक इन दोनों नाटकों से बहुत बड़ा है. फोटो: Wikimedia/YouTube
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10 जुलाई 2020 (Updated: 10 जुलाई 2020, 15:48 IST)
Updated: 10 जुलाई 2020 15:48 IST
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भोजपुरी संस्कृति, साहित्य, मिट्टी और इतिहास से जुड़ा शख्स भिखारी ठाकुर के नाम से परिचित होगा. भिखारी ठाकुर की 10 जुलाई को पुण्यतिथि होती है. उन पर यह लेख दी लल्लनटॉप के लिए मुन्ना के. पाण्डेय ने लिखा है. 1 मार्च 1982 को बिहार के सीवान में जन्मे डॉ. पाण्डेय के नाटक, रंगमंच और सिनेमा विषय पर नटरंग, सामयिक मीमांसा, संवेद, सबलोग, बनास जन, परिंदे, जनसत्ता, प्रभात खबर जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में तीन दर्जन से अधिक लेख/शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं. दिल्ली सरकार द्वारा ‘हिन्दी प्रतिभा सम्मान (2007)’ से सम्मानित डॉ. पाण्डेय दिल्ली सरकार के मैथिली-भोजपुरी अकादमी के कार्यकारिणी सदस्य भी हैं. उनकी हिंदी प्रदेशों के लोकनाट्य रूपों और भोजपुरी साहित्य-संस्कृति में विशेष दिलचस्पी है. वे वर्तमान में सत्यवती कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिंदी-विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं.




आमतौर पर भोजपुरी के सांस्कृतिक महानायक भिखारी ठाकुर को उनके नाटकों 'बिदेसिया' और 'गबरघिचोर' के आस-पास ही देखा जाता है, जबकि उनके रचनाधर्मिता का फलक इन दोनों नाटकों से कही अधिक व्यापकता से उनके अन्य नाटकों में भी उभरता है और अकादमिक तौर पर विमर्शों के निर्माण में ये सभी नाटक भी उतने ही सुगठित हैं. उनके नाटकों को भोजपुरी अंचल के बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध से अब तक के एक खास तरह के सांस्कृतिक-सामाजिक वातावरण के संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है, जिसके कुछ विशेष राजनीतिक-आर्थिक कारण भी रहे हैं. भिखारी ठाकुर के कुछ नाटकों से उनकी रचनाधर्मिता को समझते हैं.
'बिदेसिया'
भिखारी ठाकुर का ‘बिदेसिया’ केवल नाट्य अथवा नाट्यशैली भर नहीं है. अपने लिखे और खेले जाने के समय से ही बिदेसिया भोजपुरी अंचल के गभरू जवानों के पलायन और उनकी ब्याहता स्त्रियों के दर्द का दस्तावेज बन चुका था. इसका कथानक बस इतना है कि गांव का एक युवक अपने दोस्त से कलकत्ता की बड़ाई सुनकर स्वयं कलकत्ता जाना चाहता है, पर उसकी नवब्याहता पत्नी आशंकित हो मना कर देती है और न जाने का अनुरोध भी करती है. लेकिन पति चुपके से बहाना बनाकर कलकत्ता निकल जाता है.
कलकत्ते में उसका परिचय एक नवयुवती से हो जाता है. उधर नायक बिदेसी की पत्नी गांव में वियोग में रोती-बिलखती रहती है. उसकी चिंता यह भी है कि परदेस में पति की क्या दशा होगी, वह कैसे रहता होगा. लेकिन उसको उम्मीद है कि एक दिन उसका पति अवश्य लौटेगा. इसी बीच एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति ‘बटोही’ कमाने के लिए कलकत्ता की ओर जा रहा था. बिदेसी की पत्नी प्यारी सुंदरी को जब यह बात पता चलती है, तो वह उससे अपने पति तक संदेश पहुंचाने की मिन्नत करती है. कलकत्ता पहुंचने पर उसे बिदेसी मिल जाता है. वह बिदेसी से उसकी पत्नी की कारुणिक कथा कहता है, जिसे सुनकर बिदेसी को अपने घर और पत्नी की याद आने लगती है और वह वापस लौटने को उद्धत हो जाता है.
बिदेसिया की कहानी जितनी सरल और सहज दिखती है, उतनी है नहीं. इसमें आंतरिक प्रवसन की पीड़ा ही नहीं छुपी, बल्कि भोजपुरी अंचल में व्याप्त शोषण और अभाव की बहुस्तरीय परतों का बयान भी है. इस नाटक का एक गीत 'हे सजनी रे, हे सजनी पिया गईले कलकतवा हे सजनी' फिल्ममेकर सुधीर मिश्रा ने अपनी फिल्म 'हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी' में स्वानंद किरकिरे से गवाया है.
बिदेसिया नाटक प्रस्तुत करते भिखारी ठाकुर रंगमंडल के कलाकारश्री शिवलाल बारी एवं श्री लखिचंद मांझी
बिदेसिया नाटक प्रस्तुत करते भिखारी ठाकुर रंगमंडल के कलाकारश्री शिवलाल बारी एवं श्री लखिचंद मांझी

'बेटी बियोग/बेटी बेचवा'
औपनिवेशिक भारत में सती-प्रथा, विधवा विवाह जैसी समस्याओं के खिलाफ लोक-जागरण का कार्य ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे लोग कर रहे थे. आज़ादी के थोड़ा पहले और उसके बाद भोजपुरी अंचल में लोक-जागरण का कार्य भिखारी ठाकुर ने अपने नाच मण्डली के साथ किया. भिखारी ठाकुर यह जान चुके थे कि सामाजिक सुधार स्त्री-उद्धार के बिना संभव नहीं. उन्हें आसपास के परिवेश से यह पता चल चुका था कि हिन्दुओं की विवाह व्यवस्था लचर हो गयी है और इसमें सुधार की भरपूर गुंजाइश है.
बाल-वृद्ध विवाह (बेमेल विवाह) उन दिनों जोरों पर था. भिखारी ठाकुर का नाटक ‘बेटी वियोग’ लोक में ‘बेटी बेचवा’ के नाम से प्रसिद्ध है. बेटी वियोग केवल कमउम्र बेटी के किसी धनी बूढ़े से विवाह की कहानी नहीं है, बल्कि भारतीय समाजों में बेटी के जन्मते ही माथा पकड़ लेने वाली मानसिकता पर प्रहार भी है. समाज में स्त्रियों को संस्कृति और परंपरा के नाम पर ठगा जाता रहा है और ये उसकी भेंट चढ़ती भी रही हैं. परिवार नामक संस्था में आदर्श बेटी, आदर्श बहू, आदर्श मां, आदर्श बहन जैसे विशेषण लड़कियों के मानस को एक तरह की बंदिश में रखने का ही पितृसत्ता का चतुराई भरा प्रयास रहा है, जिसके प्रभाव में आकर बेटियां अपने अधिकारों तक के लिए नहीं लड़तीं. ‘बेटी बियोग’ की ‘उपातो’ भी तब आवाज उठाती है, जब देर हो चुकी है. पितृसत्ता ने अपना जाल इस तरह बिठाया है कि विवाह जैसे मसले में भी पिता और पति का निर्णय ही अंतिम होता है.
ग्रामीण पृष्ठभूमि में रचा गया यह नाटक ऊपरी तौर पर महज एक कमउम्र लड़की के वृद्ध पुरुष से जबरिया ब्याह कर दिए जाने और बेटी के रोते-कलपते रह जाने की कथा भर नहीं है, बल्कि इसमें भोजपुरी की लोकसंस्कृति और सामाजिक जीवन में व्याप्त सामंती गठजोड़, आर्थिक अभाव और अन्य पेचीदगियों के धागे बारीकी से पिरोये गए हैं. नाटक संवादों और गीतों के साथ दृश्य-दर-दृश्य खुलता जाता है और बेटी के वापस पति के घर भेजे जाने के परिणामस्वरुप आसन्न खतरा बेचैन करने लगता है, जिसके भविष्य में विधवा विलाप की पटकथा रच दी गई.
यह नाटक कोयलांचल में जब खेला गया था, तब हजारों की संख्या में लोगों ने भरे आंखों से बेटियों की कम उम्र में या बेमेल ब्याह न करने की कसम खायी थी. इस नाटक का एक गीत 'चलनी के चालल दूल्हा, सूप के फटकारल हे' भोजपुरी विवाह गीतों का प्रतिनिधि गीत है.
भिखारी ठाकुर (जन्म: 18 दिसंबर 1887, निधन: 10 जुलाई 1971)
भिखारी ठाकुर (जन्म: 18 दिसंबर 1887, निधन: 10 जुलाई 1971)

'विधवा विलाप'
बेटी बेचवा की बेटी उपातो की पीड़ा ‘विधवा विलाप’ के नींव की ईंट है. बेटी वियोग के उत्तरार्द्ध गीत “हम कहि के जात बानी, होई अबकी जीव के हानी; नाहीं देखब नइहर नगरिया हो बाबूजी”- बिधवा विलाप की पृष्ठभूमि रच देता है. भिखारी ठाकुर ने ‘विधवा विलाप’ का पहला ही चौपाई समाजी के मुंह से कहलाया है, वह इसी बात की सूचना है कि बालिका ‘उपातो’ को समाज, पंचों और पिता के कहने से ससुराल रो-कलपकर चली तो गयी, लेकिन शादी के फ़ौरन बाद उसके पति की मृत्यु के बाद वह लौट आती है -
“रोकसद होके घरे गइल. अब सुनहू जे आगे भइल ..
झांटू के मिरतू हो गइल. एक आइ अस खबर कइल ..
उपातो अकेली अपनी संपत्ति और खलिहानों की देख-रेख नहीं कर सकती, इसलिए वह अपने एक उदबास और उसकी पत्नी को अपने साथ रख लेती है. दोनों पति-पत्नी बड़े जतन से उपातो की सेवा करते हैं. उनकी सेवा-सुश्रुषा से खुश होकर बुढ़िया अपनी धन-संपत्ति और चाबियां उन दोनों को दे देती है. लेकिन यहां से विधवा जीवन की त्रासदी गहन हो जाती है.
भिखारी ठाकुर ने औरतों और उनकी पीड़ा पर केन्द्रित ‘बिदेसिया’, ‘बेटी बियोग’, ‘बिधवा विलाप’, ‘ननद-भउजाई’ जैसे नाटकों की रचना कर स्त्रियों की आवाज को अपनी रचना का आधार बनाया. यही वजह है कि उनके साहित्य का साठ फीसदी से ऊपर स्त्रियों से संबंधित है.
भिखारीनामा नाटक के एक दृश्य में जैनेन्द्र दोस्त एवं सरिता साज़
भिखारीनामा नाटक के एक दृश्य में जैनेन्द्र दोस्त एवं सरिता साज़

'कलयुग प्रेम'/ 'पियवा निसइल'
बेटी बेचवा की तरह ही कलयुग प्रेम भी आमजन में ‘पियवा निसइल’ नाम से मशहूर है. नाटक की पृष्ठभूमि बताते हुए भिखारी ठाकुर रचनावली में लिखा गया है कि “गांव के गृह-उद्योग नष्ट होते गए. खेतों में समय पर पानी नहीं बरसने, बाढ़ आ जाने या सुखाड़ हो जाने से खेती जीवन-यापन का पुख्ता आधार नहीं बन सकी. सिंचाई की व्यवस्था, उन्नत खाद-बीज की व्यवस्था तथा वैज्ञानिक संसाधन के आभाव में गांव के युवकों में खेती के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहा. समुचित शिक्षा-दीक्षा के बिना युवक मूर्खता के अंधेरे में भटकने लगे...उनकी नैतिक शिक्षा के अवसर भी क्षीण होते गए. दूसरी ओर नगरों और महानगरों से चलकर कुछ बुरी आदतें एवं कुटैव गांवों तक पहुँचने लगे. चोरी-डकैती, जुआ, नशाखोरी और पर-स्त्रीगमन के कुटेवों ने ग्रामीण संस्कृति की परंपरागत संस्कृति को ही विद्रूप कर दिया.” कलयुग प्रेम नशाखोरी और उसकी वजह से टूटते परिवारों की व्यथा-कथा है.
भिखारी ठाकुर के भीतर का कलाकार जानता था कि ‘नाच कांच हs बात सांच हs’. इसलिए उसने समाज के भीतर के सवालों को अपने नाट्य का विषय-वस्तु बनाना शुरू किया, जो भोजपुरी समाज की दैनंदिन समस्या थी. नशाखोरी के बढ़ते प्रचलन ने कई घरों की सुख, शांति को तबाह किया था. जुआखोरी, नशाखोरी लत प्रवासियों के साथ गांव में आ गयी थीं, जिसने धीरे-धीरे ग्रामीण नौजवानों को अपना शिकार बना शुरू कर दिया था. नशे के शिकार युवक काम-धंधे में जी नहीं लगा रहे थे और नए-नए शौक पाल रहे थे.
भिखारी ठाकुर भोजपुरी साहित्य में एवरेस्ट सा स्थान रखते हैं.
भिखारी ठाकुर भोजपुरी साहित्य में एवरेस्ट सा स्थान रखते हैं.

कलयुग प्रेम उर्फ़ पियवा निसइल मंगलाचरण या गणेश वंदना से शुरू नहीं होता, यह शायद भारतीय नाट्य परंपरा में पहला नाटक होगा, जिसकी शुरुआत गृहस्वामिनी के विलाप से होती है.
भिखारी ठाकुर के नाटकों की एक बड़ी विशेषता यह है कि इनके सभी नाटक किसी न किसी रूप में एक बिंदु पर आकर मिलते हैं. अगर बेटी वियोग का उत्तरार्ध बिधवा-विलाप है, तो बिदेसिया का एक दूसरा चेहरा गबरघिचोर. कलयुग प्रेम/पियवा निसइल में दो बड़े प्रसंग पिछले नाटक बिदेसिया से जुड़ते हैं. बड़ा लड़का पिता की नशाखोरी से और घर की दुर्दशा देखकर कलकत्ता पलायन कर गया है और इधर पिता दूसरी औरत को लेकर घर आ धमकते हैं. बिदेसिया की संस्कृति और प्रवसन परंपरा का दूसरा सूत्र यहीं पर आकर मिलता है, जब बड़ा बेटा कलकत्ते से बहुत सारा धन कमाकर लौटता है. प्रवास से लौटे बेटे के साथ बुढ़िया की उम्मीद ही नहीं लौटी थी, बल्कि गांव में सम्मान भी वापस मिला था. दरअसल, उन दिनों इस इलाके में गांव के जो लोग बंगाल की ओर यानी बाहर गए, उनके बारे में मान्यता थी कि उनके जीवन शैली में उन्नति हुई है.
कलियुग प्रेम में भिखारी ठाकुर ने व्यक्ति के विचलन और समाज विश्रृंखलताओं को उजागर ही नहीं किया है बल्कि भोजपुरी समाज में गहरे तक धंसी आर्थिक दुर्व्यवस्था का चुभन भरा चित्रण यथार्थ के धरातल पर किया है.
भिखारी ठाकुर ने ही सबसे पहले कलात्मक प्रतिभा वाले युवा पुरुषों को स्त्रियोचित वेशभूषा में मंच पर उतारा और ‘लौंडे के नाच’ का प्रचलन किया.उन्होंने साड़ी टिकुली, गहनों आदि साज-सज्जा के साथ पुरुष नर्तकों को मंच पर उतारा.
भिखारी ठाकुर ने ही सबसे पहले कलात्मक प्रतिभा वाले युवा पुरुषों को स्त्रियोचित वेशभूषा में मंच पर उतारा और ‘लौंडे के नाच’ का प्रचलन किया.उन्होंने साड़ी टिकुली, गहनों आदि साज-सज्जा के साथ पुरुष नर्तकों को मंच पर उतारा.

'गबरघिचोर'
‘गबरघिचोर’ भिखारी ठाकुर का वह नाटक है, जिसको पढ़ने-देखने के बाद समीक्षकों ने उन्हें महान नाटककार बर्टोल्ट ब्रेष्ट के समक्ष खड़ा कर दिया. यह अद्भुत संयोग है कि ब्रेष्ट का ‘कॉकेशियन चाक सर्किल’ (हिंदी में ‘खड़िया का घेरा) और गबरघिचोर में विस्मयकारी समानता है, पर दोनों का कथ्य एकदम जुदा है.
गबरघिचोर के सूत्र ‘बिदेसिया’ में छिपे हुए हैं. मगर बिदेसिया में जहां पुरुषोचित मानसिकता में स्त्री के यौनशुचिता/पवित्रता को ढंकने/बचाने की कोशिश की गई है, वही गबरघिचोर में स्त्रियों को पुरुष के समकक्ष खड़ा कर आने वाले भविष्य की उज्ज्वल राह निर्मित की गयी है.
इस नाटक में भारतीय और भोजपुरी लोक साहित्य, संस्कृति और समाज में भिखारी ठाकुर की नायिका अपने होने का सवाल कर रही है. अपने कोख पर अधिकार की बात कर रही है. भिखारी ठाकुर अपनी स्त्रियों को इसी मानसिक पाश से मुक्ति दिलाने का यत्न कर रहे हैं और प्रवसन की पीड़ा और अकेलेपन की उब से उत्पन्न गबरघिचोरों (पर पुरुष से पैदा हुए संतानों) को मानसिक, सामाजिक और नैतिक बल देते हैं. गबरघिचोर मातृत्व की महिमा का बखान है. भिखारी ठाकुर इस नाटक में ‘बिदेसिया’ से बहुत आगे निकल गए हैं. इसमें स्त्री के खुद के संघर्ष और मर्दवादी सोच से उसकी टकराहट का द्वंद्व है, जो नवजागरणकालीन भारत में स्त्री की नयी छवि प्रस्तुत करता है.
भिखारी ठाकुर के गीतों और नाटकों की यह विशेषता है कि वह जनजीवन की विकट समस्याओं और त्रासदियों में मरहम का काम करता है. उनके नाटक का ध्येय केवल अर्थोपार्जन नहीं, बल्कि लोकजागरण का भी था. उन पर मानस का गहरा असर था, इसलिए वह बार-बार जनता के सामने लोकमंगलकारी पुरुष ‘राम’ के आदर्श को ही ‘लेक्चर दिहीं जै कहिके रघुनाथा’ कहकर उपस्थित कर रहे थे. उनका राम, राजनीतिक राम नहीं, सामाजिक और पारिवारिक राम है, वह  लोक का नायक है.
भिखारी ठाकुर पर पुराने लेख: 
भिखारी ठाकुर: उस्तरे से नाच के उस्ताद तक का सफर

ये लौंडा नाच क्या है जिसे भिखारी ठाकुर के कारण पहचान मिली?

जब वह अपनी नाच मंडली लेकर असम गए तो वहां के सिनेमाघरों में ताला लटकने की नौबत आ गई थी



भिखारी ठाकुर के साथी राम चंद्र मांझी ने कहा, साड़ी पहनूंगा तो सब याद आ जाएगा

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