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वो देशभक्त हकीम, जिसने खादी को बुरा कहने पर रानी का इलाज नहीं किया!

पहले स्वामी भक्त कहा गया, फिर विद्रोही. जामिया के चांसलर बने. 29 दिसंबर को दिल की बीमारी से मौत हो गई.

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29 दिसंबर 2020 (Updated: 28 दिसंबर 2020, 03:49 IST)
Updated: 28 दिसंबर 2020 03:49 IST
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सुबह होते ही हवेली का दर खुलता. दीवानखाना में मरीज जमा होने लगते. वहां एक तख़्त हकीम साहब से सज जाता. मरीज आते और हकीम साहब चेहरा देखते ही बता देते कि उसे क्या मर्ज है. मर्ज की इतनी शिनाख्त की उनकी नजरों से बच नहीं पाता. कौन हकीम था ये जो इतनी क़ाबलियत रखता था. कौन है ये हकीम जो मसीहा-ए-हिंद कहलाया. कौन था ये जो इंडियन नेशनल कांग्रेस का प्रेसिडेंट बना. कौन था ये हकीम जिसको आज भुला दिया गया.

उनकी खासियत में उनकी जबान की मिठास भी शुमार होती है. कभी भी किसी को कड़वी बात नहीं कही. हां, जब वे किसी पर नाराज होते थे तो मुस्कारते हुए सिर्फ़ इतना ही कहते थे, 'तुम बड़े बेवकूफ हो.'  यूनानी इलाज में माहिर होने के लिए भारत सरकार ने उन्हें 1907 में उन्हें हाजिम-उल-मुल्क की उपाधि से नवाजा.

इस हकीम का नाम था अजमल खान. इंडिया में यूनानी चिकित्सा का डंका बजाने वाले. उनकी पहचान महज एक यूनानी हकीम की नहीं थी. बल्कि वो लेक्चरर भी रहे और आज़ादी के मतवाले भी. इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने और मुस्लिम लीग से भी जुड़े. असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया और खिलाफत मूवमेंट का भी नेतृत्व किया. हकीम अजमल खान 11 फ़रवरी 1863 को दिल्ली में उस फैमिली में पैदा हुए जो मुग़ल सम्राट बाबर के टाइम भारत आई थी. उनके दादा परदादा मुग़ल बादशाहों की फैमिली का इलाज किया करते थे. उनकी फैमिली में सभी यूनानी हकीम थे. हकीम अजमल खान की पढ़ाई शुरू हुई. कुरान को हिफ्ज़ कर लिया यानी जबानी याद कर लिया. यूनानी डॉक्टरी की पढ़ाई कर डाली. जब उनकी पढ़ाई मुकम्मल हो गई उन्हें 1892 में रामपुर के नवाब का मेन हकीम तैनात कर दिया गया. अपने पुरखों की तरह उनके इलाज में भी बेहद असर था और ऐसा कहा जाता था कि उनके पास कोई जादुई खजाना था, जिसका राज़ केवल वे ही जानते हैं. इलाज करने में इतने माहिर हो गए थे कि यह कहा जाने लगा था, वो सिर्फ मरीज का चेहरा देखकर उसकी बीमारी का पता लगा लेते हैं. तभी तो वो अपने दीवानखान में तख़्त पर बैठे हुए एक दिन में 200 मरीजों को देखकर दवाई दे दिया करते थे.

ये वजह रही अंग्रेजों के खिलाफ जाने की

इंडियन नेशनल कांग्रेस की वेबसाइट के मुताबिक, अजमल खान अभी छिटपुट राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति की तरफ बढ़ ही रहे थे कि 1910 में भारत सरकार यानी अंग्रेज हुकुमत ने हकीमों और वैद्यों की प्रोफेशनल मान्यता को वापस लेने का प्रस्ताव सामने रख दिया. हकीम अजमल खान को लगा कि हुकुमत का यह फैसला भारत के डॉक्टरी सिस्टम को खत्म कर देगा. उन्होंने हकीमों और वैद्यों से सरकार के पेश किए गए बिल के खिलाफ एकजुट होने की अपील की. ये पहला मौका था जब वो अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ खुलकर सामने आए. उसी दौरान इटली ने त्रिपोली पर अटैक कर दिया. त्रिपोली नार्थ लेबनान का बेयरुत के बाद सबसे बड़ा शहर है. अंग्रेजों ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया और उदासीन रुख अपनाया. इस पर भारतीय मुसलमानों ने नाराजगी दिखाई और एकजुट होना शुरू कर दिया. अजमल खान ने खुद को इस आंदोलन में झोंक दिया. इसी दौरान फर्स्ट वर्ल्ड वॉर शुरू हो गया. और इंडियन पॉलिटिक्स पर विराम लग गया. लेकिन तुर्की के इस वॉर में शामिल होने से हालात बदल गए. बहुत से मुस्लिम लीडरों को गिरफ्तार कर लिया गया. हकीम अजमल खान बहुत से अन्य इंडियंस की तरह वॉर में अंग्रेजी हुकुमत का साथ दे रहे थे. लेकिन मुस्लिम नेताओं की बड़े लेवल पर हुई गिरफ़्तारी ने उनको सरकार का साथ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. 1918 में हकीम अजमल खान कांग्रेस में शामिल हो गए. हकीम साहब के पॉलिटिक्स में शामिल होते ही पुश्तैनी घर, जो आज भी बल्लीमारान में शरीफ मंज़िल के नाम से मौजूद है, पॉलिटिक्स का अड्डा बन गया. और हकीम आजादी के दीवाने बनते गए. हकीम साहब की प्लानिंग के मुताबिक 30 मार्च, 1919 को दिल्ली में सबसे बड़ी हड़ताल हुई थी. इस कामयाब बनाने के लिए बाकी नेताओं ने उनकी तारीफ की. आजादी के संघर्ष ने 'स्वामीभक्त' अजमल खान को 'विद्रोही' अजमल खान में बदल कर रख दिया. 1920 में उन्होंने अपनी उस उपाधि को ठुकरा दिया, जो अंग्रेज हुकुमत ने दी थी. इस फैसले का भारतीय लोगों सम्मान किया और उनको मसीह-उल-मुल्क (देश को बीमारी से बचाने वाला) की उपाधि से नवाजा.

खादी को बुरा कहा तो इलाज ही नहीं किया

हकीम साहब की गांधीजी से पहली मुलाकात 1919 में हुई. और वो असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए. 1921 में कांग्रेस का अहमदाबाद में अधिवेशन हुआ. जहां उन्हें इंडियन नेशनल कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया. वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बनने वाले पांचवें मुस्लिम थे. उसी दौरान ख़िलाफ़त मूवमेंट का नेतृत्व भी किया.
अध्यक्ष बनाए जाने पर अहमदाबाद में उन्होंने अपनी स्पीच में कहा, 'असहयोग की भावना पूरे देश में फैली है. इस महान देश में कोई भी सच्चे दिल वाला भारतीय नहीं होगा, जो भले ही देश के सुदूर कोने में हो और जिसने खुशी से स्वराज्य पाने के लिये और जिसने पंजाब और खिलाफत पर अन्यायों का प्रतिकार करने के लिये, कष्टों को ना झेला हो. स्वयं का बलिदान ना दिया हो.'
असहयोग आंदोलन के वक्त का एक किस्सा उनके बारे में सुनाया जाता है कि एक बार राजा ने अपने महल में अपनी बीमार रानी को दिखाने के लिए हकीम साहब को बुलाया. हकीम अजमल खान जब रानी के कमरे में पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि रानी विदेशी कपड़े पहने हुए थी. पूरा कमरा विदेशी सामान से भरा हुआ था. हकीम साहब ने रानी की नब्ज़ को देखते हुए कहा, 'वक्त बदल रहा है. अब तो आप लोगों को विदेशी कपड़े नहीं पहनने चाहिए. सिर्फ खादी का ही इस्तेमाल करो.' रानी ने कहा कि, 'हकीम साहब खादी पहनने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन वह इतनी मोटी और खुरदरी होती है कि जिस्म में गड़ती है.' यह सुनते ही हकीम साहब ने रानी की नब्ज़ को छोड़ दिया और खड़े होकर कहने लगे, 'फिर तो मैं आपकी नब्ज़ नहीं देख पाऊंगा. जब खादी आपके जिस्म में गड़ती है, तो मेरी उंगली भी आपके हाथ में चुभती होंगी, क्योंकि मैं भी हिन्दुस्तानी हूं. हकीम साहब की बात सुनकर महाराजा बड़े शर्मिंदा हुए. उन्होंने हकीम साहब से माफी मांगते हुए कहा कि अब वे अपने घर में एक भी विदेशी चीज़ नहीं रखेंगे. अजमल खान ने जहां अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाया वहीं वे जामिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के संस्थापकों में से एक थे और 1920 में जामिया के चांसलर बने और 1927 तक अपनी मौत होने तक उस पद पर बने रहे. 29 दिसंबर को दिल की बीमारी की वजह से मरीजों को सही करने वाला इस दुनिया से रुखसत हो गया. भारत के बंटवारे के बाद हकीम ख़ान के पौत्र हकीम मुहम्मद नबी ख़ान पाकिस्तान चले गए. हकीम नबी ने हकीम अजमल ख़ान से तिब्ब (औषधि) सीखी और लाहौर में 'दवाखाना हकीम अजमल ख़ान' बना लिया. जिसकी ब्रांच पूरे पाकिस्तान में हैं.

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