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मुग़ल बादशाह अकबर को ईसाई बनाने की कोशिश की तो क्या जवाब मिला?

जेसुइट पादरियों की बादशाह अकबर से पहली मुलाकात का किस्सा

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1580 में अकबर ने जेसुइट पादरियों को अपने दरबार, फ़तेहपुर सीकरी में न्योता दिया (तस्वीर: Getty)
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28 फ़रवरी 2022 (Updated: 28 फ़रवरी 2022, 12:10 IST)
Updated: 28 फ़रवरी 2022 12:10 IST
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दरबार सजा था. ज़िल्ल-ए-इलाही यानी ईश्वर की छाया समझे जाना वाला बादशाह दरबार में दाखिल हुआ. और पालथी मोड़ कर गद्दी पर बैठ गया. दरबार ठसाठस भरा था. और दरबारी इंतज़ार में थे कि सफ़हा खुलेगा तो इल्म की बात चलेगी. कुछ नए मेहमान भी आए थे. सुनहरे जिल्द चढ़ी आसमानी किताब खुली, तो बादशाह ने फ़रमान जारी किया. जिरह शुरू हो.
एक तरफ़ उलेमा थे, जो क़ुरान की एक एक आयत को घोट कर पी चुके थे. दूसरी तरफ़ ईसाई पादरी थे. जिनका मक़सद था बादशाह को ईसाइयत में दीक्षा दिलवाना. इसके अलावा हिंदू धर्म सहित बाकी धर्मों के जानकार भी मौजूद थे. लेकिन मुख्य जिरह उलेमा और पादरियों में ही होनी थी. ज़ोरदार बहस के बीच पादरी के मुंह से पैग़म्बर मुहम्मद का नाम निकला. जो कुछ तंज़ ओड़े हुए था. बादशाह ने आंखे तरेरी. कुछ देर पहले तक शोर-ओ-गुल से भरा दरबार बिलकुल ख़ामोश हो गया. ये किस्सा है मुग़ल बादशाह अकबर के दरबार का. जब पहली बार उनकी मुलाक़ात जेसुइट ईसाई पादरियों से हुई. दीन-ए-इलाही 1582 में बादशाह अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म की शुरुआत की. धर्म को लेकर अकबर में बहुत उत्सुकता थी. और वो अलग-अलग धर्मों के नियम क़ानून और दर्शन को लेकर बहुत कौतूहल से भरे रहते थे. चंद इतिहासकार मानते हैं कि दीन-ए-इलाही की शुरुआत धर्म का नहीं वरन एक राजनैतिक मसला था. अकबर चाहते थे कि लोग नए धर्म की छतरी के नीचे एक हो जाएं.
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मुग़ल बादशाह अकबर अबुल फ़ज़ल से मुलाक़ात करते हुए (तस्वीर: Wikimedia Commons)


चूंकि दीन ए इलाही के तहत भी बादशाह ही ईश्वर का प्रतिनिधि था. इसलिए इससे बादशाह को भी फ़ायदा होता. दीन-ए-इलाही की शुरुआत से पहले अकबर ने बहुत से धर्मों का अवलोकन किया. हिंदू- मुस्लिम धर्म से वो वाक़िफ़ थे ही. लेकिन दीन-ए-इलाही की शुरुआत हुई तो उसमें पारसी धर्म और ईसाईयत के पुट भी डाले गए.
ये सब शुरू हुआ 1576 से. साल 1576 में अकबर को एक खबर मिली. सुदूर बंगाल से. (तब तक बंगाल मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बन चुका था). वहां दो जेसुइट पादरी अचानक मुग़ल प्रशासन की नज़रों में आ गए थे. ऐन्थॉनी वाज़ और पीटर डायस नाम के ये दो जेसुइट पादरी गोवा से बंगाल पहुंचे थे. वहां इन्होंने पाया कि कुछ पुर्तगाली व्यापारी टैक्स की चोरी कर रहे थे. इससे मुग़ल ख़ज़ाने का नुक़सान हो रहा था. दोनों पादरियों को मुग़ल ख़ज़ाने से कुछ खास लेना-देना नहीं था. लेकिन वे दोनों ईसाई धर्म के प्रचारक थे. और धर्म में चोरी करना अपराध था. आगे बढ़ने से पहले ये जानते हैं कि जेसुइट कौन होते हैं. 
जेसुइट यानी सोसायटी ऑफ़ जीसस के सदस्य. यह कैथोलिक ईसाई धर्म के भीतर का एक समाज है, जिसे पोप पॉल तृतीय के अप्रूवल से साल 1540 में बनाया गया था. इनका काम ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार से जुड़ा होता है.
बहरहाल बंगाल से ये खबर बादशाह अकबर तक पहुंची. तो उन्हें कौतुहल हुआ इस धर्म के बारे में. जिसमें इतने ईमानदार लोग पाए जाते हैं. अकबर ने अपना राजदूत गोवा भेजा. साथ में भेजी एक चिट्ठी. चिट्ठी में लिखा था,

‘अपने राजदूत अब्दुल्ला को आपके पास भेज रहा हूं. आपसे दरख्वास्त है कि दो विद्वान पादरियों को अपनी धार्मिक किताब के साथ दरबार में भेजें. ख़ासकर वो किताब जिसमें गॉस्पल हों. ताकि मैं आपके धर्म के क़ानून से वाक़िफ़ हो सकूं.’

ईसाईयत से परिचयबादशाह का न्योता पाकर जेसुइट अधिकारी बड़े खुश हुए. वो तो अपने धर्म का प्रचार प्रसार करने ही भारत आए थे. सो मुल्क का बादशाह उनसे मिले, ये एक बड़ा मौक़ा था. इसके बाद तीन विद्वान जेसुइट मेंबर्स को चुना गया. मिशन को लीड करने के लिए फादर रूडोल्फ़ एक्वाविवा को चुना गया. इसके अलावा फादर ऐंटॉनी मांज़र्राटे और फ़्रांसिस हेनरिक्स को साथ में भेजा गया. गोवा से चलकर ये लोग सूरत और ग्वालियर होते हुए फरवरी 1580 में आगरा पहुंचे. और आज ही के दिन यानी 28 फ़रवरी 1580 के रोज़ बादशाह अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी में जेसुइट पादरियों का स्वागत किया.
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आंद्रे रेइनोसो द्वारा सेंट फ्रांसिस जेवियर के चमत्कार (1619-22)। सेंट फ्रांसिस जेवियर जेसुइट ऑर्डर के एक मिशनरी और सह-संस्थापक थे (तस्वीर: Aeon)


अकबर से मिलकर जेसुइट अभिभूत तो हुए ही. लेकिन उससे भी ज़्यादा अचरज उन्हें शहर को देखकर हुआ. फ़तेहपुर सीकरी के बाग, सड़कें और महल देखकर उन्होंने लिखा,

“ऐसा जादुई शहर पूरे यूरोप में कहीं भी नहीं है.”

आवभगत से बाद अकबर ने पादरियों को दरबार में बुलाया. जहां पहुंचकर जेसुइट सदस्यों ने बादशाह को एक बाइबल भेंट में दी. सुनहरे रंग के डिब्बे में खोलकर रखी हुई बाइबल दरबार में पेश की गई. फिर बात असल मुद्दे पर आई. अकबर ने अपने दरबार में उलेमाओं और अलग-अलग धर्म के जानकारों को इकट्ठा किया. उन्हें आदेश दिया गया कि वो जेसुइट डेलीगेशन से सवाल-जवाब करें.
पहला दिन तो इसी बहस में गुजर गया कि जो किताब पेश की गई है वो आसमानी है भी कि नहीं. ये सवाल भी उठा कि कहीं किसी आदमी ने तो अपनी मर्जी से कुछ छाप नहीं दिया है. फिर बात हुई खुल्द यानी स्वर्ग की. इस पर भी बहस पूरे दिन चली. ऐसे बाइबल के अलग-अलग पक्षों पर बात होते -होते चार दिन गुजर गए. बादशाह पूरे ध्यान से ये सब सुनते रहे.
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अकबर के दरबार में जेसुइट्स, काले लबादे में (तस्वीर: Wikimedia Commons)


अकबर ने जुर्रत की बात कही तो पादरी ने जवाब दिया,

“जनाब अभी कुछ देर पहले तो मुल्ला ने यीशू की तौहीन की थी. तब तो आपने कुछ नहीं कहा, फिर पैग़म्बर मुहम्मद पर हमारी बात से आप इतने नाराज़ कैसे हो सकते हैं”

ये सुनकर अकबर का ग़ुस्सा शांत हुआ और उन्होंने बहस जारी रखने को कहा. इसके बाद अकबर ने एक पारसी, एक यहूदी, मुस्लिम उलेमा और कुछ दार्शनिकों से आपस में बात करने को कहा. अकबर का चर्च इसके अगले तीन साल जेसुइट पादरियों ने आगरा में गुज़ारे. इस दौरान अकबर ने जब काबुल पर चढ़ाई की तो वो अपने साथ एक जेसुइट पादरी को भी ले गए. ताकि अकबर के बेटे मुराद को तालीम मिल सके. साल 1583 में जेसुइट डेलीगेशन गोवा लौट गया. जेसुइट पादरियों को यक़ीन था कि वो अकबर को ईसाई धर्म में दिक्षित करा लेंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अकबर ने ईसाइयत अपनाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई. हालांकि जाते-जाते अकबर ने एक फ़रमान ज़रूर पढ़वाया. जिसमें लिखा था कि ईसाई धर्म दिव्य रहस्यों का सामने लाता है.
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अकबर के दरबार में धार्मिक चर्चा (तस्वीर: Wikimedia Commons)


इस मिशन के अगले आठ साल तक अकबर की तरफ़ से जेसुइट्स को कोई संदेश नहीं गया. इस दौरान अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी को छोड़ दिया और वो परिवार सहित लाहौर जा पहुंचे. 1590 में अकबर ने गोवा में जेसुइट्स को एक और ख़त भेजा. और उन्हें लाहौर आने का न्योता दिया.
इस बार भी जेसुइट पहुंचे और उन्होंने अकबर को ईसाई धर्म में दीक्षित करवाने की कोशिश की. बादशाह माने तो नहीं लेकिन उन्हें अपने बेटों को पुर्तगाली भाषा सिखाने के काम पर लगा दिया. अब तक जेसुइट्स को समझ आ चुका था कि अकबर धर्म परिवर्तन नहीं करने वाले. और वो वापस गोवा लौट गए. इसके बाद साल 1595 में एक और जेसुइट डेलीगेशन लाहौर पहुंचा. इस बार उन्हें वहां एक चर्च बनाने की इजाजत मिल गई.  सितम्बर 3, 1595 को लिखे एक ख़त के अनुसार अकबर ने उन्हें चर्च बनाने की इजाज़त तो दी ही. साथ ही ये भी इजाज़त दी कि वो चाहे तो लोगों को अपने धर्म में दीक्षित कर सकते हैं.
इसके बाद अकबर ने शाही ख़ज़ाने से कुछ रक़म देकर चर्च बनवाने में सहयोग दिया. और 7 सितम्बर 1597 को लाहौर के चर्च में पहली बार प्रार्थना हुई. फिर 1598 में अकबर ने लाहौर छोड़ दिया. इसके बाद जेसुइट मिशनरियों को लाहौर में ज़बरदस्त विरोध झेलना पड़ा. अकबर की दरियादिली  लाहौर में कुल जमा 38 लोग ईसाई धर्म अपनाने को तैयार हुए. लेकिन इसके चलते आम लोगों जेसुइट्स के ख़िलाफ़ हो गए. लाहौर के गवर्नर कुलीज खान ने खुद बीड़ा उठाते हुए ईसाई धर्म अपनाने वाले लोगों का पुराने धर्म में वापसी शुरू कर दी.
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वर्तमान में आगरा में 'अकबर का चर्च' (तस्वीर: पीटर पोत्रोल )


ये सब देखकर जेसुइट बादशाह अकबर के पास पहुंचे. और उनसे मदद की गुहार की. अकबर ने फ़रमान जारी करते हुए कहा कि ज़बरदस्ती लोगों का धर्म परिवर्तन नहीं किया जाएगा.  ये मुद्दा शांत हुआ तो एक नई मुसीबत आ खड़ी हुई.
लाहौर में एक मकान था. पन्नू राम का. उसने टैक्स ना चुकाया तो मुग़ल अधिकारियों ने उसकी कुड़की कर डाली. ये मकान फिर मिला जेसुइट ईसाई पादरियों को. ईसाइयों के ख़िलाफ़ मामला गरमाया तो लाहौर के हिंदुओं ने 2 हज़ार रुपए इकट्ठे किए और मूल धन जमा कर दिया. कुलीज खान ने पादरियों से घर खाली करने को कहा. जेसुइट फिर अकबर के पास पहुंचे. जैसे-तैसे घर वापस जेसुइट पादरियों को मिला.
इसके बाद हिंदुओं ने गवर्नर को फिर मक्खन लगाया. उसे 9000 की रक़म और 9 घोड़े तोहफ़े में दिए. लेकिन तब दुबारा बादशाह ने दख़ल दिया और घर जेसुइट पादरियों के पास ही रहा. लाहौर के बाद अकबर ने आगरा में एक और चर्च का निर्माण करवाया. फ़तेहपुर सीकरी के पास ही. जिसे 'अकबर का चर्च'  के नाम से जाना गया. मुग़ल काल में क्रिसमस इसी दौरान इसके आगरा में पहली बार में ईस्टर और गुड फ़्राइडे मनाने की शुरुआत हुई. जिसमें बादशाह अकबर खुद शामिल हुआ करते थे. साथ ही एक नई प्रथा भी शामिल हुई. जो तब कहीं और नहीं होती थी.
आगरा में निकलने वाले जुलूस में घोड़े हाथी, और ऊंट शामिल रहते. लेकिन सबसे आगे होता एक पुतला. जूडस का. जूडस ईशा मसीह के उस शिष्य का नाम था जिसने उन्हें धोखा दिया था. तब दुनिया के बाकी हिस्सों में भी क्रिसमस का जुलूस निकलता था लेकिन जूडस का पुतला केवल आगरा में बनाया जाता. ये पुतला घूम फिर कर शाही महल के आगे पहुंचता. और वहां आतिश बाजी कर उसे आग के हवाले कर दिया जाता.
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यरूशलेम में मंदिर में शिशु यीशु की प्रस्तुति, उनके जन्म के 40 दिन बाद, c. 1600-1610. संभवतः बीजापुर में चित्रित( फोटो क्रेडिट: विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम)


जूडस के पुतले को जलाने की एक खास वजह थी. बादशाह को खुश करना. इससे ये संदेश दिया जाता कि सब लोग बादशाह के प्रति वफ़ादार रहें. क्योंकि जो बादशाह के प्रति ग़द्दारी करे वो जूडस की श्रेणी का होगा. 1605 में अकबर की मृत्यु  हो गई. इसके बाद जहांगीर ने भी पिता की परम्परा को निभाया और ईसाई धर्म को फलने फूलने दिया. आगरा के चर्च में ही जहांगीर ने अपने भतीजों को बैप्टाइज़ करवाया और उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित किया. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि ये सब जहांगीर ने एक पुर्तगाली महिला से शादी करने के लिए किया था. शादी नहीं हो पाई तो जहांगीर ने अपने भतीजों को दुबारा इस्लाम क़बूल करवा लिया.
1613 तक मुग़ल दरबार और जेसुइट के रिश्ते अच्छे रहे. फिर गोवा में हुए एक घटनाक्रम से तब्दीली आई. हुआ यूं कि 1613 में एक पानी का जहाज़ मक्का की यात्रा कर लौटे हज यात्रियों को लेकर भारत आ रहा था. इस जहाज़ पर पुर्तगालियों ने अपने कब्जे में ले लिया. जहांगीर ने ये सुना तो वो इतना ग़ुस्सा हुआ कि उसने लाहौर और आगरा के चर्च खाली करवा दिए. इसके अलावा उसने जेसुइट पादरियों को भी कैद में डलवा दिया. दो दशक तक इन लोगों को कैद में रहना पड़ा.
साल 1635 में शाहजहां ने इन लोगों को कैद से रिहा किया. लेकिन एक शर्त पर. बादशाह ने आगरा का चर्च तुड़वा दिया. लेकिन एक ही साल में ये चर्च दुबारा बना दिया गया.  साल 1752 में अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर हमला किया तो उसने आगरा के चर्च को गिरा दिया. बाद में अंग्रेज आए तो उन्होंने आगरा के चर्च का दुबारा निर्माण करवाया. जेसुइट मिशनरीज़ को अब्दाली अपने साथ बंधक बनाकर काबुल ले गया. और 1580 में शुरू हुआ जेसुइट्स और मुग़लों का रिश्ता 1752 में आकर ख़त्म हो गया.

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