मदर टेरेसा को संत कहने से पहले उनका पूरा सच जान लीजिए
मदर टेरेसा की ज़िंदगी के विवादित पहलू, जिनके कारण उन्हें नरक का फ़रिश्ता कहा गया.
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मदर टेरेसा का असली नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू था (तस्वीर: AFP)
‘मदर टेरेसा’, ये नाम दिमाग़ में एक तस्वीर बनाता है. नीली धारियों वाली सफ़ेद धोती में लिपटी हुई एक महिला. जो बीमार और गरीब लोगों की सेवा करती थी. अंग्रेज़ी की एक कहावत है,
“Give a man a reputation as an early riser and he can sleep till noon.”यानी
“किसी व्यक्ति को एक बार सुबह जल्दी उठने की ख्याति मिल जाए तो फिर वो दोपहर तक सो सकता है”और मदर टेरेसा की ख्याति का क्या ही कहना. जिस व्यक्ति को नोबेल शांति पुरस्कार और भारत रत्न से सम्मानित किया जा चुका हो, उसके किए का बखान करना बेमानी लगता है. आज ही के दिन यानी 7 अक्टूबर, 1950 में मदर टेरेसा ने कोलकाता में मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी नामक संस्था की स्थापना की थी. नाम में ही चैरिटी है, सो काम समझना सरल है.
1971 में जब बांग्लादेश युद्ध के हालात बने तो पूरा कलकत्ता शरणार्थियों से भर गया. बस स्टैंड, चौराहे, पार्क, ऐसी कोई जगह नहीं थी. जहां टेंट लगाकर लोग ना रह रहे हों. इनमें मासूम बच्चे, विकलांग और महिलाएं शामिल थीं. ऐसे हज़ारों यतीम बच्चों और बूढ़ों को मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी ने अपने यहां पनाह दी. ये संस्था रोमन कैथोलिक चर्च से जुड़ी हुई है और आज भी 133 देशों में इनकी शाखाएं हैं जहां समाज सेवा का काम होता है.
ये तो हो गई आधिकारिक बात. बात इतनी ही होती तो फिर कोई बात ही नहीं होती. आगे की बात क्या है, आइए जानते हैं. अल्बेनिया से आई एक नन 1950 का भारत. ग़रीबी और भुखमरी का मारा हुआ. जबकि पश्चिम में यूरोप और अमेरिका जैसे देश तब फल फूल रहे थे. शहद और दूध की नदियां ना भी बहती हों तो भुखमरी की हालत तो नहीं ही थी.

मदर टेरेसा के सेवा कार्यों को देखते हुए 1979 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया (तस्वीर: Getty)
ऐसे में अल्बेनिया से आई एक नन ने कलकत्ता में समाज सेवा का काम शुरू किया और पूरी दुनिया में मसीहा की तरह देखी जाने लगी. मिशन को चंदा मिलना शुरू हुआ. और इतना मिला कि एक बार रोमन चर्च का पूरा खाता इस चंदे के सामने बौना पड़ गया. समाज सेवा तक तो बात ठीक थी. लेकिन मदर टेरेसा की समाज सेवा धर्म से जुड़ी थी. और जहां धर्म का नाम जुड़ा, वहां कॉन्ट्रोवर्सी तो होनी ही थी.
1979 में जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला तो अवॉर्ड लेते हुए उन्होंने एबॉर्शन यानी गर्भपात को दुनिया में सभी बुराइयों की जड़ बताया. ईसाई धर्म में गर्भपात हमेशा से ही एक टैबू माना जाता रहा है. नोबेल पुरस्कार मिलने के अगले साल ब्रिटेन के एक चर्चित अखबार में लेख छपा. जिसे चर्चित नारीवादी पत्रकार जर्मेन ग्रीअर ने लिखा था. ग्रीअर ने मदर टेरेसा को एक धार्मिक साम्राज्यवादी बताया. और साथ ही लिखा कि सेवा के ज़रिए वो गरीबों में ईसाई धर्म फैलाना चाहती हैं.
1983 में मदर टेरेसा के इंडिया टुडे को दिए गए एक इंटरव्यू को लेकर भी विवाद खड़ा हुआ. जब उनसे पूछा गया कि अगर आप मध्यकालीन युग में पैदा हुई होतीं तो गैलीलियो वाले मामले में किसका साथ देतीं? चर्च या गैलीलियो? तो मदर टेरेसा ने जवाब दिया, चर्च.
इस उत्तर से तय था कि अच्छा होना तर्कशील होने की गारन्टी नहीं है और इसका वाइसे-वर्सा भी उतना ही सही है. कॉन्ट्रोवर्सी इसके बाद आने वाले सालों में मदर टेरेसा के साथ एक के बाद एक कॉन्ट्रोवर्सी जुड़ती चली गई. लैंसेट एक विश्वस्तरीय मेडिकल जर्नल है. इसके सम्पादक डॉ रॉबिन फॉक्स ने 1991 में मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी के कलकत्ता केंद्रों का दौरा किया. फॉक्स ने इस दौरान नोट किया कि इन केंद्रों में साफ़-सफ़ाई ना के बराबर थी. कैंसर के मरीज़ों तक को सिर्फ़ एक गोली देकर निपटा दिया जाता था. फॉक्स की रिपोर्ट के अनुसार, इन केंद्रों में बीमारों का इलाज नहीं किया जाता था, सिर्फ़ उनके मरने तलक़ उनकी कुछ सेवा की जाती थी.

क्रिस्टोफर हिचेंस (तस्वीर: Getty)
इसके बाद 1994 में मदर टेरेसा के ऊपर बनी एक डॉक्यूमेंट्री रिलीज़ हुई. नाम था ‘हैल्स एंजल’ यानी नर्क का फ़रिश्ता. इस डॉक्यूमेंट्री को मशहूर अंग्रेजी पत्रकार क्रिस्टोफर हिचेंस ने बनाया था. उन्होंने बाद में मदर टेरेसा पर एक किताब भी लिखी. नाम था द मिशनरी पोजिशन : मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस.
जिसमें उन्होंने मदर टेरेसा के बारे में लिखा,
“मदर टेरेसा ग़रीबों की नहीं, ग़रीबी की दोस्त हैं. वो कहती हैं कि कष्ट और पीड़ा ईश्वर का उपहार हैं. ज़िंदगीभर उनकी लड़ाई ग़रीबी से नहीं, बल्कि ग़रीबी के एकमात्र समाधान से रही. जो है, महिलाओं का सशक्तिकरण और जानवरों की तरह ज़बरदस्ती बच्चे पैदा करवाने से उनकी मुक्ति.”मदर टेरेसा: द फाइनल वर्डिक्ट मिशनरीज ऑफ चैरिटी में काम कर चुके डॉक्टर अरूप चटर्जी ने अपनी किताब : मदर टेरेसा : द फाइनल वर्डिक्ट में भी ऐसे ही कई दावे किए. ये किताब मदर टेरेसा की संस्था में काम कर चुके लोगों के साथ किए गए इंटरव्यू पर आधारित थी. किताब के अनुसार मदर टेरेसा ने समाज सेवा के अपने कामों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया था.
संस्था का दावा था कि वो सड़कों से बीमार लोगों को उठाती थीं. चटर्जी के अनुसार ये बात भी पूरी तरह सही नहीं थी. चटर्जी अपनी किताब में बताते हैं कि संस्था को बीमार लोगों के बारे में बताया जाता तो वो अधिकतर बहाना बनाया करते या दूसरी जगह से मदद लेने को कहते.
चटर्जी के अनुसार संस्था के पास बहुत सी एंबुलेंस भी थीं लेकिन बीमार लोगों के बजाय इनसे ननों को इधर-उधर ले जाया जाता. संस्था का एक और दावा था, कि वहां हर रोज़ हज़ारों लोगों को खाना खिलाया जाता है, जबकि डॉक्टर अरूप चटर्जी की किताब के अनुसार असल में केवल 2 से 3 किचन मौजूद थे जो लगभग 300 लोगों को खाना खिला सकने में समर्थ थे.

डॉक्टर अरूप चटर्जी (फ़ाइल फोटो)
एक टीवी शो के दौरान डॉक्टर चटर्जी ने संस्था को लेकर कई और खुलासे भी किए. उन्होंने बताया कि किस तरह संस्था में मरीज़ों के साथ क़ैदियों जैसा बर्ताव किया जाता था. किसी से मिलने या बाहर जाने पर रोक थी. इसी हालत में मरीज़ संस्था में अपने जीवन का अंतिम समय गुज़ारने पर मजबूर थे.
चटर्जी संस्था के बारे में बताते हैं कि वहां गरीब लोगों का ठीक तरीक़े से इलाज भी नही किया जाता था. मदर टेरेसा का विश्वास था कि पीड़ा सहकर ही मनुष्य ईश्वर के क़रीब पहुंच सकता है, इसलिए वो पीड़ा को ईश्वर का आशीर्वाद मानती थीं. अपनी इस मान्यता के विरुद्ध जब वो खुद बीमार होतीं तो देश विदेश के महंगे हॉस्पिटल में अपना इलाज करवाया करतीं. संस्था में बच्चों के इलाज के लिए उनके माता पिता को एक फ़ॉर्म भरना अनिवार्य था, जिसमें ये लिखा होता कि वो अपने बच्चों पर अपना अधिकार त्यागकर उन्हें संस्था के हवाले करते हैं. इस फ़ॉर्म के बिना किसी भी बच्चे का इलाज संस्था में सम्भव नहीं था.
चटर्जी ने अपनी किताब में संस्था को मिलने वाले चंदे पर भी सवाल उठाया. उन्होंने लिखा कि संस्था का कभी ऑडिट नहीं किया गया. और चंदे के एक बड़े हिस्से को समाज सेवा की बजाय रोमन कैथोलिक चर्च में जमा कर दिया गया. चंदा देने वाले लोगों पर भी सवाल उठे. इनमें हेती और अल्बेनिया के तानाशाह का नाम शामिल था. साथ ही मदर टेरेसा ने चार्ल्स कीटिंग से भी पैसा लिया था, जिनका नाम अमेरिका में एक बड़े आर्थिक घोटाले से जुड़ा था. संत की उपाधि इन सब विवादों के बावजूद मदर टेरेसा का नाम 1997 में उनकी मृत्यु तक महानता का परिचायक बना रहा. कहानी वहीं ख़त्म हो जाती. लेकिन धर्म की मृत्यु के बाद जीवन में आस्था है. इसलिए मृत्यु के बाद भी ये कहानी जारी रही.

मदर टेरेसा और पोप जॉन पॉल 2 (तस्वीर: Getty)
भारत में बनारस के घाट पर गेरुआ पहने कोई बैठा हो. मुंह से अनायास ही निकल जाता है, साधु महाराज. कबीर को भजता मिले कोई, या बुल्ले शाह की तान लगाता तो लोग पहचान लेते हैं कि कोई सूफ़ी संत होंगे. भारत में संत या साधु के लिए ना ही कोई ट्रेडमार्क रहा है, ना ही कोई टैग. ख़ालिस है या नहीं, इसकी कोई पहचान नहीं. सिर्फ़ आस्था की बात है. वेदांत में जो अहं ब्रह्मास्मि है वही सूफ़ियों में अनलहक हो जाता है.
इसके बरअक्स ईसाई धर्म में संत होना इतना आसान नहीं. 2016 में जब मदर टेरेसा को सेंटहुड की उपाधि मिली तो भारत के लोगों को पता चला कि यूं ही हर कोई संत नहीं हो जाता. बाक़ायदा पूरी प्रक्रिया का पालन होता है. रिज्यूमे भेजा जाता है, क्रेडेंशियल चेक होते हैं. और भी बहुत कुछ. चमत्कार को नमस्कार दुनिया में रहकर अच्छे काम किए हों, ये भी काफ़ी नहीं. दुनिया से चले जाने के बाद भी ज़रूरी है कि संतत्व की झलकियां मिलती रहें. कैसे- चमत्कार से. मदर टेरेसा के संतत्व को लेकर किसी को शक-ओ-शुबह नहीं था. लेकिन आधिकारिक ऐलान ज़रूरी था. चर्च को इंतज़ार था दो चमत्कारों का. जो कथित तौर पर हुए भी.
1.1997 में अपनी मौत के बाद मदर टेरेसा ने 2002 में मोनिका बेसरा नाम की एक लड़की का ट्यूमर ठीक कर दिया था. मोनिका को पेट में ट्यूमर था. उसने टेरेसा के फोटो की लॉकेट पेट पर रखी थी. उसके मुताबिक लॉकेट से तेज रोशनी निकली और धीरे-धीरे ट्यूमर ठीक हो गया.
2. 2008 में ब्राज़ील के एक आदमी ने कहा कि मदर टेरेसा के चलते उसके कई ट्यूमर ठीक हो गए.

चार्ल्स कीटिंग से मुलाक़ात करते हुए मदर टेरेसा (तस्वीर: Getty)
इन चमत्कारों की पुष्टि कैसे हुई, ये तो नहीं पता लेकिन इन्हीं के चलते 2016 में मदर टेरेसा को संत की उपाधि दे दी गई. क्रिस्टोफर हिचेंस से ये सवाल पूछा जाता तो वो कहते,
‘that which can be asserted without evidence, can be dismissed without evidence’यानी
“बिना किसी सबूत के जिस बात का दावा किया जा सकता है, उसे बिना सबूत के ही खारिज भी किया जा सकता है”मदर टेरेसा के साथ कितने ही विवाद जुड़े हों. चाहे उनका इरादा धार्मिक ही रहा हो. लेकिन हमारे लिए ये सिर्फ़ तर्क की बात है. भीख मांगते हुए बीमार व्यक्ति को फ़र्क नहीं पड़ता कि सहारा देने वाला जीजस की उपासना करता है या राम की.