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मौलाना आज़ाद, जिन्होंने 1946 में ही बांग्लादेश बनने की भविष्यवाणी कर दी थी

बंटवारे के सख़्त ख़िलाफ़ थे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद.

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आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलम आज़ाद (तस्वीर: Commons)
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कमल
11 नवंबर 2021 (Updated: 10 नवंबर 2021, 06:21 PM IST) कॉमेंट्स
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आज 11 नवंबर है और आज की तारीख़ का संबंध है मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से. इतना मुसलमान तो हूं साल 2018 में एक फ़िल्म आई थी, मंटो. फ़िल्म का एक सीन है, जब मंटो पाकिस्तान जाने का फैसला कर लेते हैं तो उनका दोस्त उनके कमरे में रखी शराब की बोतल उठाकर कहता है,
“तुम कौन से ढंग के मुसलमान हो, जो जा रहे हो?”
मंटो शांति से जवाब देते हैं, “इतना तो हूं कि मारा जा सकूं”
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मंटो फिल्म का एक सीन (तस्वीर: स्क्रीनशॉट )


इस एक लाइन में 1947 के भारत-पाकिस्तान के हालात बयान हो जाते हैं. ख़्याल को थोड़ा और उड़ान दें तो पाकिस्तान में कोई हिंदू तब कह रहा होगा, ‘इतना हिंदू तो हूं कि मारा जा सकूं.'जामा मस्जिद से तक़रीर भारत आज़ाद हो चुका था. लेकिन ये ऐसी आजादी थी मानो कैंसर से छुटकारा पाने के लिए अपना ही पैर कटवाना पड़ा हो. आजादी की ख़ुशी पर बंटवारे का दर्द भारी पड़ रहा था. भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ़ अल्पसंख्यक डर और संशय के साये में जी रहे थे. उसी साल अक्टूबर के महीने में ईद उल-अज़हा का मौक़ा आया. दिल्ली के जामा मस्जिद में लोगों की भीड़ इकट्ठा थी. नमाज़ के बाद मखमली टोपी और शेरवानी पहना एक शख़्स भीड़ से मुख़ातिब हुआ, धारदार आवाज़ में तक़रीर पेश की गई,
"मेरे अजीजो, खुद के अंदर एक बुनियादी बदलाव लाओ. कुछ अरसे पहले तुम जिस जोशोखरोश से भरे हुए थे, वो बेवजह था. और अब जो ख़ौफ़ तुममें भरा है, वो भी बिलावजह ही है. एक ही जगह पर मुसलमान और बुजदिली साथ हो, ऐसा हो नहीं सकता. ना ही ये सम्भव है कि मुसलमान और इश्तिआल (भड़कावा) एक साथ मौजूद रहें. असली मुसलमान को ना कोई शक्ति डरा सकती है, ना कोई ख़ौफ़ उन्हें हिला सकता है.”
तकरीर करने वाले इस शख़्स का नाम था, मौलाना अबुल कलाम आजाद. आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री. तब कांग्रेस में उनका क़द इतना बड़ा था कि वो चाहते तो कोई भी मंत्रालय ले सकते थे. लेकिन 22 की उम्र में उर्दू अख़बार के ज़रिए साइंस का प्रचार प्रसार करने वाला ये शख़्स इल्म से इश्क़ रखता था. और भारत में शिक्षा के प्रचार प्रसार पर काम करना चाहता था. कलकत्ता से काबा और वापसी अबुल कलाम आजाद के पुरखे बाबर के जमाने में हेरात (अफगानिस्तान) से कलकत्ता आए और यहीं बस गए. उनके पिता मौलाना खैरूद्दीन एक सूफ़ी पीर थे और कादरी व नक्शबंदी ऑर्डर से ताल्लुक रखते थे. मौलाना खैरूद्दीन का निकाह अरब मूल के शेख मोहम्मद जेहर वातरी की बेटी से हुआ था.
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जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी और मौलाना आज़ाद (तस्वीर: commons)


हिंदुस्तान में बदलाव के बादल मंडरा रहे थे. मुग़लों का सूरज ढलान पर था और फ़िरंगी आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र पर शिकंजा कसते जा रहे थे. 1857 की क्रांति हुई तो खैरूद्दीन अपने परिवार के साथ मक्का चले गए. आज ही के दिन यानी 11 नवंबर 1888 को मक्का में उनके घर एक बेटा पैदा हुआ. नाम रखा गया अबुल कलाम गुलाम मोइउद्दीन. मोइउद्दीन की उम्र सिर्फ़ दो साल थी जब खैरूद्दीन अपने परिवार के साथ कलकत्ता लौट आए.
पिता मौलाना थे इसलिए अबुल कलाम ने बचपन में ही इस्लामिक तालीम हासिल कर ली थी. बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे. पिता से खूब सवाल पूछते थे. सर सैयद अहमद खान के फैन थे और इस कारण उनके अब्बा उनसे चिढ़ते थे. सितार बजाते थे और अब्बा को ये भी गवारा न था. धीरे-धीरे अबुल कलाम भौतिकवादी और नास्तिक हो चले थे. हर चीज पर शक करते थे. बड़े हुए तो इस्लाम की ओर लौट आए. कहते थे धर्म में, साहित्य में, राजनीति में या दर्शन की तरफ, कहीं भी जाऊंगा तो अपने मन से जाऊंगा और अकेले जाऊंगा. आस्था के लिए भी रीजनिंग यानी तर्क की बात किया करते थे. अल हिलाल 22 साल की उम्र में इरादा किया कि एक अख़बार निकालूंगा. लिखने के लिए जो तख़ल्लुस यूज़ किया वो था ‘आज़ाद’. और इस तरह अबुल कलाम, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद हो गए. 1912 में कलकत्ता से एक उर्दू अख़बार की शुरुआत की. नाम था, ‘अल हिलाल’. अपनी कलम से अंग्रेज हुकूमत के ख़िलाफ़ लिखा. इतना लिखा कि सिर्फ़ दो सालों में अंग्रेजों ने अख़बार पर बैन लगा दिया. कारण दिया कि अख़बार के ज़रिए मुसलमान नौजवानों को आजादी की लड़ाई में शिरकत करने के लिए उकसाया जा रहा था. बात सच भी थी.
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22 वर्ष की उम्र में मौलाना आज़ाद में ने 'अल हिलाल' नाम का एक उर्दू अख़बार निकाला था (फ़ाइल फोटो)


‘अल हिलाल’ में ‘मुजाकिरा-ए-अलमिया’ नाम का एक ख़ास कॉलम भी शामिल होता था, जिसमें उर्दू में साइंस की जानकारी दी होती थी. 'अल हिलाल’ बंद हुआ तो मौलाना ने ‘अल-बलाग’ नाम का एक नया अख़बार निकाला. इसका ये असर हुआ कि उन्हें गिरफ़्तार कर रांची की जेल में भेज दिया गया.
1920 में जेल से रिहा हुए. और कांग्रेस में शामिल हो गए. इसी दौरान ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी के अध्यक्ष नियुक्त हुए और जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना भी की. कांग्रेस में महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए और उनके विचारों से प्रभावित होकर उनके फ़ॉलोअर बन गए. 1923 और 1940 में 2 बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और कई बार जेल भी गए. हिंदू-मुस्लिम 1920 के बाद की तस्वीरों में नेहरू और गांधी के साथ पटेल के बाद जो शख़्स सबसे ज़्यादा नज़र आया, वो मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ही थे. गांधी और नेहरू के लिए वो भी भारतीय मुसलमानों की आवाज़ थे. इसकी वजह थी धर्म को लेकर उनका रवैया. साल 1921 को आगरा में दिए अपने एक भाषण में उन्होंने कहा,
‘'मैं साफ़ कर दूं कि मेरा सबसे पहला लक्ष्य है, हिंदू-मुस्लिम एकता. मैं अपने मुसलमान भाइयों से कहना चाहूंगा कि वे हिंदुओं के साथ प्रेम और भाईचारे का रिश्ता कायम करें. केवल इसी तरह हम एक सफल राष्ट्र का निर्माण कर पाएंगे.’’
मौलाना आज़ाद के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल आज़ादी से भी ज़्यादा मायने रखता था. 1923 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में बतौर अध्यक्ष भाषण दे रहे थे. तब उन्होंने कहा,
''आज अगर कोई देवी स्वर्ग से उतरकर भी ये कहे कि वो हमें हिंदू-मुस्लिम एकता की कीमत पर 24 घंटे के भीतर स्वतंत्रता दे देगी, तो मैं ऐसी स्वतंत्रता को त्यागना बेहतर समझूंगा. स्वतंत्रता मिलने में होने वाली देरी से हमें थोड़ा नुकसान तो ज़रूर होगा, लेकिन अगर हमारी एकता टूट गई तो इससे पूरी मानवता का नुकसान होगा.’’
भविष्यवाणी सच साबित हुई 1946 में जब ये तय हो गया कि भारत का बंटवारा होगा, तब भी अबुल कलाम आजाद ने इसका पुरज़ोर विरोध किया. 15 अप्रैल को उन्होंने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा था-
‘मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो स्कीम बनाई है, उसे मैंने अच्छी तरह से जांचा-परखा है. एक भारतीय होने के नाते और एक मुसलमान होने के नाते भी मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ये फ़ैसला न सिर्फ़ भारत के लिए नुकसानदायक साबित होगा बल्कि पाकिस्तानी मुसलमानों को भी इसके दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे. अलग देश बनाने का ये फ़ैसला समाधान निकालने की बजाय और ज़्यादा परेशानियां पैदा करेगा.’'
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मौलाना आज़ाद ने 1946 में चेताया था कि नफ़रत की बुनियाद पर बना एक देश कभी स्टेबल नहीं रह पाएगा (तस्वीर: Getty)


टू नेशन थियोरी के विरोध में उन्होंने तर्क दिया कि पाकिस्तान की बुनियाद नफ़रत की ज़मीन पर डाली गई है. और जब ये नफ़रत ठंडी होगी पाकिस्तान और अलग-अलग टुकड़ों में बंटने लगेगा. 1971 में उनकी ये भविष्यवाणी सच साबित हुई. जब पाकिस्तान से अलग होकर एक नया मुल्क बांग्लादेश बना.
इसके अलावा पाकिस्तान को लेकर उन्होंने आगाह किया था कि धर्म के आधार पर बना ये नया देश कभी एकजुट नहीं रह पाएगा. सेना राजनीतिक नेतृत्व पर भारी पड़ेगी, अमीर अपना हित साधने के लिए लूट खसोट मचाएंगे और देश क़र्ज़ के तले डूब जाएगा. उन्होंने भारतीय मुसलमानों को ये हिदायत दी कि वो पाकिस्तान को अपना रहनुमा ना समझें. अगर भारतीय मुसलमान पाकिस्तान जाते हैं तो वहां के मूल निवासी उन्हें कभी नहीं अपनाएंगे और उनके साथ परायों सा बर्ताव किया जाएगा. ये सब सच साबित हुआ. आजादी के बाद मौलाना ने भारतीय मुसलमानों से कहा,
''भले ही धर्म के आधार पर हिंदू तुमसे अलग हों लेकिन राष्ट्र और देशभक्ति के आधार पर वे अलग नहीं हैं. वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान में तुम्हें किसी दूसरे राष्ट्र से आए नागरिक की तरह ही देखा जाएगा.''
आज़ादी के बाद सरकार बनी तो उन्होंने शिक्षा मंत्री का पद संभाला. संगीत नाटक, साहित्य ओर ललित कला अकादमियों की शुरुआत की. साइंस और टेक्नॉलॉजी को बढ़ावा देने के लिए आईआईटी जैसे संस्थानों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इतना ही नहीं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन किया. और सुनिश्चित किया कि 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा मिले.
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2008 में केंद्र सरकार ने मौलाना आज़ाद के जन्मदिन को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाने का फ़ैसला किया (तस्वीर: commons)


अबुल कलाम करीब 11 साल तक शिक्षा मंत्री रहे. इस दौरान उन्हें ‘भारत रत्न’ के लिए नामांकित किया गया तो उन्होंने ये कहकर नाम वापस ले लिया कि संवैधानिक पद पर रहते हुए वो ये सम्मान स्वीकार नहीं कर सकते. 22 फरवरी 1958 को हृदयाघात से उनका इंतकाल हो गया. और 1992 में मरणोपरांत उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया.
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने पाकिस्तान को लेकर जो-जो बातें कहीं आगे जाकर सब सही साबित हुईं. और आज भी भारतीयों के लिए प्रासंगिक हैं. शुरुआत की तरह अंत में भी आपको एक फिल्मी ट्रिविया बताते चलते हैं. वर्तमान में मशहूर फ़िल्म अभिनेता आमिर खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद के ग्रेट ग्रैंड नेफ़्यू हैं.

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