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इस क्रांतिकारी ने फांसी के बजाय 63 दिन तक घुट कर मरना क्यों चुना?

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जिसे दधीचि कहा, उस क्रांतिकारी की कहानी रुला देगी.

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जतींद्रनाथ दास 16 साल की उम्र तक आंदोलन के चलते दो बार जेल जा चुके थे (तस्वीर: wikimedia)
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कमल
13 सितंबर 2021 (Updated: 13 सितंबर 2021, 01:46 PM IST)
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आज 13 सितम्बर है और आज की तारीख़ का संबंध है एक भूख हड़ताल से.
क़िस्से की शुरुआत इतिहास की बजाय माइथोलॉजी से.
पुराणों के हिसाब से एक बार देवलोक के राजा इंद्र की लड़ाई वृत्रासुर नाम के असुर से हुई. वृत्रासुर ने इंद्र को हराकर देवलोक पर क़ब्ज़ा कर लिया. इंद्र के सारे अस्त्र-शस्त्र वृत्रासुर के सामने फेल हो गए. कारण कि उसे एक वरदान प्राप्त था. वो मेटल यानी धातु के बने किसी भी अस्त्र से पराजित नहीं हो सकता था. महर्षि टू द रेस्क्यू मेटल से नहीं मारा ज़ा सकता था तो बचे नॉन-मेटल. जैसे लकड़ी, कार्बन आदि. लेकिन तब आइरन मैन तो था नहीं कि कार्बन नैनो टेक जैसी किसी नॉन-मटैलिक टेक्नॉलजी से कोई हथियार बना दे. ये दुविधा लेकर इंद्र पहुंचे ऑरिजिनल आर्किटेक्ट के पास. मेट्रिक्स मूवी में जैसे नियो पहुंचा था आर्किटेक्ट के पास, बिलकुल वैसे ही. इस आर्किटेक्ट ने ही पूरी मेट्रिक्स या कहें की दुनिया का निर्माण किया था. ये थे ब्रह्मा जी. जिन्हें भूत, भविष्य और वर्तमान का सारा ज्ञान था. उन्होंने इंद्र से कहा कि नेनो टेक की खोज तो 21 वीं सदी में होगी. अभी तो सिर्फ़ एक ही नॉन-मेटल है जिससे वृत्रासुर को मारा जा सकता है. वो थी हड्डियां.
होने को तो जानवरों की हड्डियां भी अवेलेबल थी. लेकिन शायद ब्रह्मा जी को इंसानों से ज़्यादा जानवरों से प्रेम था. हो भी क्यों ना. बिल्ली-कुत्ता पालने वाला हर व्यक्ति इस बात से इत्तेफ़ाक रख सकता है. चाहे मुर्गियों को उधेड़ने में थोड़ा बहुत गिल्ट होता भी हो. तब भी बिल्ली और कुत्तों से प्यार पर कौन उंगली उठा सकता है.
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महर्षि दधीचि की कहानी विष्णु पुराण में उल्लिखित है. (तस्वीर: रामनारायण दत्ता)


इंद्र को ब्रह्मा जी की बात एकदम सटीक जान पड़ी. लेकिन किसी आम इंसान की हड्डियों में वो कैल्शियम कहां. ऊपर से अधिकतर लोग शुद्ध शाकाहारी. मतलब B12 और प्रोटीन की भारी कमी. सो कोई ऐसा व्यक्ति चाहिए था जिसकी हड्डियों में दम हो. तब ब्रह्मा ने महर्षि दधीचि का नाम सुझाया. महर्षि दधीचि वर्षों से तपस्या कर रहे थे. और कहा जाता था कि उनके बराबर शक्ति पूरे संसार में किसी के पास नहीं थी.
इंद्र ने जाकर महर्षि से प्रार्थना की. कारण जानकर महर्षि ने अपना शरीर त्याग दिया ताकि उनकी अस्थियों से एक अस्त्र बनाया जा सके. इसी अस्त्र को वज्र के नाम से जाना जाता है. जिस से इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया और देवलोक पर दुबारा शासन करने लगे. जतिन की राह पे एक और जतिन अब आप कहेंगे हम आज ये पुराणों और अस्त्रों-शस्त्रों की बात क्यों कर रहे हैं? उसके लिए हमें आज की तारीख़ पर जाना होगा यानी 13 सितंबर 1929.
लाहौर का अनारकली बाज़ार. यहां से कुछ दूर बोर्स्टल जेल के बाहर लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा है. भीड़ किसी को घेरे खड़ी है. इससे एक साल पहले यही शख़्स अगर इस बाज़ार में खड़ा होता शायद ही कोई उस पर दूसरी नज़र डालता. लेकिन आज ये शख़्स जब यहां पर लेटा हुआ है तो हर कोई उसके अंतिम दर्शन कर लेना चाहता है. 9 सितम्बर के एपिसोड में आपको बाघा जतिन की स्टोरी सुनाई थी.
यहां पढ़ें: बंगाल का शेर, जिसने अंग्रेजों को दिल्ली तक खदेड़ दिया

उस दिन आज़ादी में सफ़र में बाघा जतिन के पीछे-पीछे विडाल वंश का एक और जतिन चल पड़ा था. ये थे जतींद्रनाथ दास. जिन्हें भगत सिंह प्यार से जतिन दा बुलाया करते थे.
जतिन को गुलाब की पंखुड़ियों से बने बिस्तर पर लिटाया गया था. उनका सर एक बड़े से तकिए पर रखा हुआ था. सिर भी क्या था, उसके नाम पर सिर्फ़ हड्डी का एक कपाल बचा था. सफ़ेद पड़ चुके चेहरे पर आंखें सॉकेट में अंदर तक धंस चुकी थीं. जिससे पता चलता था कि मृत्यु से पहले इंच दर इंच ख़ाक होते हुए जतिन कितनी असीम यातना से गुजरे होंगे. उस दिन अनारकली बाज़ार की एक भी दुकान नहीं खुली थी. जतिन की अर्थी को लाहौर स्टेशन ले ज़ाया जाना था. ताकि उन्हें फिर आगे बंगाल, उनकी जन्मभूमि तक पहुंचाया जा सके. आधुनिक भारत के युवा दधीचि सुभाष चंद्र बोस से तब 3 हज़ार रुपए इकट्ठा कर एक ट्रेन का इंतज़ाम करवाया था. ताकि बंगाल तक जतिन की अंतिम यात्रा हो सके. जतिन का शव लेकर ट्रेन लाहौर से कलकत्ता की ओर रवाना हुई. जिस-जिस स्टेशन पर ट्रेन रुकी, उन्हें देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा. कलकत्ता रूट के बीच में ट्रेन कानपुर में रुकी, जहां जवाहरलाल नेहरू और गणेश चंद्र विद्यार्थी ने उन्हें श्रद्धांजलि दी. कलकत्ता में खुद सुभाषचंद्र बोस ट्रेन को रिसीव करने आए थे. जतिन की उम्र तब सिर्फ़ 25 वर्ष थी. इसके दो साल बाद जब भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया गया तो उनकी उम्र भी मात्र 23 साल थी. मानों आज़ादी के दीवानों में होड़ लगी थी कि कौन कितनी जल्दी फांसी पर चढ़ता है.
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जतिन की अंतिम यात्रा की तस्वीर (फ़ाइल फोटो)


उनकी शहादत पर सुभाष चंद्र बोस ने कहा था,
‘जिस तरह महर्षि दधीचि ने वज्र बनाने के लिए अपनी अस्थियां दान कर दी थीं. उसी तरह जतिन ने भी अपना शरीर दान कर दिया है. वो आधुनिक भारत के युवा दधीचि हैं.’
जतिन की शहादत से जो अस्त्र तैयार हुआ वो किसी भी मेटल, नॉन-मेटल के हथियार से कहीं ज़्यादा ताकतवर था. ये शस्त्र था आज़ादी के विचार का. जिससे एक भरोसा, एक आमंत्रण उपजा. देश की आज़ादी के लिए जान न्योछावर करने का. लाला लाजपत राय का बलिदान, सैंडर्ज़ की हत्या, दिल्ली बम असेम्ब्ली पर बम फेंका जाना. उस दौर में लगातार एक के बाद एक घटनाएं हो रही थीं, जिनसे जनमानस में आज़ादी की चेतना का संचार हो रहा था. लेकिन जतिन की शहादत ने जैसे इस भावना की बारिश कर दी थी. जिसमें भीगने से कोई भी खुद को बचा ना सका.
दी ट्रिब्यून अख़बार के हिसाब से जतिन की अंतिम यात्रा में 7 लाख लोग शामिल हुए थे.
इसका असर ऐसा हुआ कि अंग्रेज ख़ौफ़ ख़ा गाए. उन्होंने इसके बाद किसी भी क्रांतिकारी का शव उनके परिजनों को सौंपे जाने पर रोक लगा दी. इसी कारण भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को भी तय वक्त से पहले फांसी देकर उनके शवों को चुपके से जला दिया गया था. जतिन की शुरुआत 27 अक्टूबर 1904 को जतिन का जन्म कलकत्ता में हुआ था. आगे चलकर वो बंगाल की रेवोलुशनरी पार्टी अनुशीलन समिति से जुड़े. और गांधी जी के आवाहन पर असहयोग आंदोलन में भी शामिल हुए.
1925 में अंग्रेजों ने उन्हें देश विरोधी गतिविधियों के इल्जाम में गिरफ्तार कर लिया. इस दौरान वो कलकत्ता के विद्यासागर कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे. जेल पहुंचे तो देखा वहां क़ैदियों की हालत ख़राब थी. ना सोने को ढंग की जगह थी ना नहाने की. खाना भी एकदम सड़ा हुआ मिलता था. इसको लेकर उन्होंने जेलर से शिकायत की.
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लाहौर षड्यंत्र केस में पकड़े गये क्रांतिकारियों में से एक थे जतिन दास (फ़ाइल फोटो)


कोई हल ना होता देख उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी. 20 दिन तक उन्होंने रोटी का एक कौर भी नहीं खाया. अंत में जेल अथॉरिटी को जतिन के सामने झुकना पड़ा. ये 20 दिन की हड़ताल आने वाले भविष्य की तैयारी थी.
जेल से बाहर आकर उनकी मुलाक़ात भगत सिंह के साथ हुई. उत्तर भारत में में भगत सिंह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) का नेतृत्व कर रहे थे. उन्होंने जतिन को उत्तर भारत में आने का न्योता दिया. जतिन बम बनाने में माहिर थे. और वो HSRA में शामिल हो गए. 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली असेम्ब्ली में जो बम फेंका था. उसे भी जतिन दा ने ही तैयार किया था. लाहौर में भूख हड़ताल 14 जून 1929 में जतिन इस मामले में अरेस्ट कर लिए गए. उन्हें लाहौर ज़ेल में डाल दिया गया. वहां उन्होंने देखा कि अंग्रेज क़ैदियों को तमाम तरह की सुविधाएं मिल रही थीं. लेकिन भारतीय क़ैदियों के लिए नरक जैसा माहौल था. ना कपड़े धुले होते थे. ना खाने के बरतन. किचन एरिया में भी कॉकरोच घूमते रहते थे. दूषित खाना खाकर आए दिन क़ैदियों की तबीयत ख़राब होती रहती थी.
इसे देखते हुए उन्होंने 13 जुलाई 1929 को भूख हड़ताल शुरू कर दी. उनकी देखा-देखी बाकी क़ैदी भी हड़ताल पर बैठ गए. शुरुआत में अंग्रेजों को लगा जब गांधी ने कभी 21 दिन से ज़्यादा की भूख हड़ताल नहीं की. तो ये लोग भी कितने दिन तक सहन कर पाएंगे. लेकिन जतिन और बाकी क़ैदियों का हौंसला नहीं टूटा.
एक कमाल की बात ये हुई कि जो काम बम धमाके ने नहीं किया था, वो भूख हड़ताल ने कर दिखाया. हड़ताल 30 वें दिन पहुंची तो बात बाहर आने लगी. क़ैदियों की हालत और भूख हड़ताल की खबर देशभर के अखबारो की सुर्ख़ियां बनने लगी.
हिंसा के नाम पर अंग्रेज किसी भी कार्रवाई को जायज़ ठहरा सकते थे. लेकिन भूख हड़ताल एक पैसिव रेज़िस्टन्स था. जतिन और बाकी क्रांतिकारियों के प्रति लोगों की सहानुभूति बढ़ती जा रही थी. तब ब्रिटिश सरकार को लगा कि भूख हड़ताल तुड़वाना ज़रूरी हो गया है. साम-दाम-दंड -भेद सब अपनाया गया. सबसे पहले तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान बनाकर क़ैदियों के पास भिजवाए गए. ताकि क़ैदियों लालच में आकर खाना ख़ा लें.
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लाहौर जेल में नेहरू जतिन दास और उनके साथियों से मिलने गए थे (द ट्रिब्यून)


जब इससे भी बात नहीं बनी तो पानी के घड़ों में दूध भरवा दिया गया. भूख तो इंसान सहन कर सकता है. लेकिन प्यास को सहन करना लगभग असम्भव है. जेल अधिकारियों को लगा कि प्यास तो लगेगी ही. और तब दूध पीना पड़ेगा. इससे भूख हड़ताल टूट जाएगी. तरकीब कुछ हद तक सफल भी रही. प्यास के मारे कुछ क़ैदियों ने बीच में ही हार मान ली.
लेकिन जतिन का आत्मबल इससे भी नहीं टूटा. अंत में अंग्रेजों ने ज़बरदस्ती करना शुरू कर दिया. चार लोगों ने जतिन को पकड़ा. और उनकी नाक में नली डालकर दूध भर दिया. जतिन ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की और इस बीच दूध फेफड़ों में चला गया. अगले कुछ दिनों में उनकी हालत और बिगड़ती गई. अनशन के 63 वें दिन 13 सितम्बर 1929 को जतिन को अस्पताल भर्ती करवाया गया. जहां उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली और इस दुनिया को अलविदा कह दिया. एपिलॉग पूछा जाए कि इंसान और जानवर में क्या अंतर है. तो बचपन से हमें पढ़ाया गया है कि इंसान एक रैशनल जीव है. भूख लगी तो ख़ा लिया, नींद लगी तो सो गए. सिम्पल मेंटोस ज़िंदगी. लेकिन ये काम तो जानवर भी करते हैं. जो चीज़ हमें जानवरों से अलग करती है. वो इसकी ठीक उल्टी बात है. यानी भूख लगने पर भी ना ख़ा पाने का निर्णय. नींद लगने पर भी जागे रहने की हिम्मत.
ये सब थोड़ा बहुत हम भी कर लेते हैं. यहां तक कि अगर पूछा जाए कि क्या आप देश के लिए जान दे सकते हो, तो शायद अधिकतर लोग हां में ही जवाब देंगे. लेकिन गोली खाकर या फांसी चढ़कर मर जाना एक बात है, और तिल-तिल, घुट-घुट कर जान देना दूसरी बात. ऊपर हमने जानवरों की बात की थी. उनके मामले में भी माना जाता है अगर कोई जानवर गहन पीड़ा में हो और उसकी मदद ना की जा सकती हो, तो बेहतर है उसे मुक्ति दे दी जाए.
टॉर्चर करके मारने की बारे में भी हमने सुना है. लेकिन एक इंसान खुद ये निर्णय ले सकता है कि वो खाना ना खाए और भूख से अपनी जान दे दे. ये मानवीय संकल्प और साहस की पराकाष्ठा है. जतिन जब अनशन पर बैठे थे तो उनसे पूछा गया,
‘ऐसे तो तुम मर जाओगे.’
जतिन ने इस सवाल का जो जवाब दिया था जो हम सभी लोगों को सुनना चाहिए.
‘गोली खाकर या फिर फांसी पर झूलकर मरना तो बहुत आसान है. आदमी के मनोबल का पता तभी चल सकता है जब वो धीरे-धीरे मरना क़बूल कर सके.’

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