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'युगांडा का एक कसाई' भारतीयों के पीछे क्यों पड़ गया?

1972 में युगांडा से सारे भारतीयों को निष्कासित कर दिया गया था

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1971 में ईदी अमीन ने तख्तापलट कर सत्ता हासिल की और अगले ही साल वो एशियाई मूल के लोगों को युगांडा की सारी परेशानियों की जड़ बताने लगा (तस्वीर: Getty)
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9 दिसंबर 2021 (Updated: 8 दिसंबर 2021, 04:34 IST)
Updated: 8 दिसंबर 2021 04:34 IST
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इवॉल्यूशन के रास्ते पर इंसान ने अपने पूर्वज जानवरों से एक गुण सीखा. इकट्ठे होकर रहो तो बचने के चांस ज़्यादा हैं. लेकिन द्वैत का नियम कहता है कि अगर घेरे के अंदर कुछ है तो बाहर भी कुछ ना कुछ रहेगा ही. इसलिए घेरे को कितना ही सीमित कर लो. एक इनग्रुप और एक आउटग्रुप हमेशा बना रहेगा. और चूंकि इनग्रुप बना ही इसलिए था कि उसके बाहर ख़तरा है, इसलिए इस इनग्रुप को जितना टाइट करते जाओ, उतना ही ख़तरा बढ़ता जाता है.
कहने का आशय ये है कि बाहरी ख़तरे से बचाव के चक्कर में दीवार पर दीवार खड़ी करते जाएं, तो अंत में सिर्फ़ एक जेल बचेगी. और कुछ नहीं. अपने ही देश में एक ऐसी जेल का निर्माण करने वाले बहुत हैं. देश के लिए. देशवासियों के लिए. लेकिन देशवासी वही नहीं है जो सरहद की सीमा में है. देश से बाहर रहने वाले ऐसे लाखों भारतीय हैं. जिनके किए पर हम गर्व करते हैं. जो भारत में अपने परिवार के लिए भेजते हैं. और भारत की सॉफ़्ट पावर में इज़ाफ़ा भी करते हैं. भारत से बाहर रहने वाले ऐसे ही लोगों के लिए 1972 में एक बयान जारी हुआ था, 'खून चूसने वाले इन खटमलों को देश से निकाल बाहर करो.’
इंसान ने कहा होता, तब भी लोग मान लेते. यहां तो दावा किया गया कि ये ईश्वर का आदेश है. और इस एक आदेश ने 90 हज़ार भारतीय मूल के लोगों को अपना सब कुछ बेचकर भाग जाने पर पर मजबूर कर दिया था. किसने जारी किया था ये बयान. कौन थे ये लोग जिन्हें खटमल की संज्ञा दी गई. और क्या था पूरा किस्सा. चलिए जानते हैं. भारतीय कैसे पहुंचे युगांडा युगांडा. पूर्वी अफ़्रीका का एक देश है. 20वीं सदी के मध्य तक ब्रिटिश साम्राज्य का एक उपनिवेश हुआ करता था. ख़ूबसूरती इतनी कि विंस्टन चर्चिल ने इसे ‘पर्ल ऑफ़ अफ़्रीका' का नाम दिया था. 1895 में यहां ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने एक रेलवे लाइन बनाने का काम शुरू किया. इस काम के लिए लेबर मुहैया कराने का कॉन्ट्रैक्ट मिला कराची के अलीभाई जीवनजी को. जीवनजी ने पंजाब से मज़दूरों को रिक्रूट किया और पहली खेप में कुल 350 भारतीय युगांडा पहुंचे.
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युगांडा रेलवे लाइन के निर्माण में पहली बार भारतीय मज़दूरों ने युगांडा में कदम रखा और कई वाहीं बस ग़ए (तस्वीर: Commons)


अगले 6 सालों में रेलवे लाइन बनकर तैयार हो गई. तब तक काम करने वाले भारतीयों की संख्या 32 हज़ार हो चुकी थी. काम ख़त्म हुआ तो ‘आ अब लौट चलें’ कि तर्ज़ पर इनमें से कुछ वापस लौट गए. लेकिन बहुत से वहीं रुक गए. आगे आने वाले सालों में भारत से बहुत से ट्रेडर युगांडा पहुंचे. काम की तलाश में. इनमें से गुजराती ट्रेडर्स की संख्या सबसे ज़्यादा थी. जो युगांडा के भारतीय डिस्पोरा की मांग को देखते हुए व्यापार करने पहुंचे थे.
इन लोगों ने यहां व्यापार किया. खूब फले-फूले. इतना कि 1960 तक आते आते भारतीय युगांडा में 40% व्यापार के मालिक हो चुके थे. जबकि गिनती में वो सिर्फ़ 1% थे. लोकल लोगों में इन लोगों के प्रति ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था. वे मानते थे कि एशियाई मूल के लोग (जिनमें से अधिकतर भारतीय थे) युगांडा के लोगों को दबाते हैं. युगांडा के लोगों का ऐसा मानना कोई अनूठी बात नहीं थी. दुनिया के तमाम देशों में ये माना जाता है कि प्रवासी लोगों के चलते पुराने निवासियों का हक़ छिनता है.
जबकि इसका कारण सोशल साइंस का एक बेहद मामूली फिनोमिना है. किसी देश राज्य या शहर में प्रवासी लोग पहले से मौजूद लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा तरक़्क़ी कर पाते हैं. क्योंकि प्रवासी व्यक्ति के लिए ये सर्वाइवल की लड़ाई होती है. वो ही बात है कि शेर और हिरन की रेस में ज़्यादा बार हिरन ही जीतता है. चूंकि हिरन के लिए ये जीवन और मृत्यु का मसला है. और शेर के लिए केवल भूख का. इसीलिए दुनिया के समस्त देशों राज्यों का शहरों में ये देखा जाता है कि पहले से रहने वाले लोगों के अनुपात में प्रवासी ज़्यादा सफल हो पाते हैं. बहरहाल किस्से पर लौटते हैं. ‘युगांडा का कसाई’ युगांडा के स्थानीय लोगों के ग़ुस्से का फ़ायदा उठाया एक आदमी ने. गुमनामी से निकला एक सिपाही. एक बॉक्सिंग चैंपियन. जो पहले ब्रिटिश आर्मी में कुक बना. कद-काठी मज़बूत थी तो, प्रमोट कर सीधे लड़ाई के मैदान में भेजा गया. और बाद में अफ़सर भी बना दिया गया. नाम था ईदी अमीन डाडा. जिसे युगांडा के लोग पहले ‘बिग डैडी’ कहकर बुलाते थे. और बाद में ‘युगांडा का कसाई’.
साल 1962 में युगांडा को आजादी मिली. नई सरकार में ईदी अमीन के ऊपर वॉर क्राइम्स का आरोप लगा. तब प्रधानमंत्री मिल्टन ओबोटे ने उसका साथ देते हुए, ना केवल उसके गुनाह माफ़ कर दिए. बल्कि उसे आर्मी में कैप्टन बना दिया.
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मिल्टन ओबोटे जिन्होंने खुद तख्तापलट कर सत्ता हथियाई थी, ईदी अमीन ने उसके साथ भी यही किया (तस्वीर: AFP)


कुछ साल बाद ईदी अमीन की मदद से ओबोटे ने तख्तापलट किया और राष्ट्रपति बन गए. ओबोटे के राज में ईदी अमीन की ताक़त में और इज़ाफ़ा हुआ. 1970 में उसे तीनों सेनाओं का कमांडर नियुक्त कर दिया गया. इस दौरान उसने सेना के फंड में इतना घालमेल किया कि ओबोटे को उसकी बर्ख़ास्तगी का निर्णय लेना पड़ा. इससे पहले कि ये हो पाता, ईदी अमीन ने तख्तापलट करते हुए खुद सत्ता पर कब्जा जमा लिया. 25 जनवरी 1971 को युगांडा में सैन्य तख्तापलट के बाद ईदी अमीन देश का राष्ट्रपति बन गया. उसने खुद को एक नई उपाधि दी,
“महामहिम, आजीवन राष्ट्रपति, फील्ड मार्शल अल हदजी डॉक्टर ईदी अमीन दादा. धरती के सारे प्राणियों और समुद्र की मछलियों का मालिक और युगांडा में ब्रिटिश साम्राज्य का विजेता”.
शीत युद्ध के दिन थे. पुरानी सरकार की सोवियत संघ से नज़दीकी थी. इसलिए ब्रिटेन और अमेरिका ने ईदी का खूब स्वागत किया. उसे बकिंघम पैलेस में आने का न्योता दिया गया. लेकिन एक तानाशाह कब तक अपने असली इरादे छुपा पाता. सत्ता सम्भालते ही उसने तंजानिया पर आक्रमण की योजना बनाना शुरू कर दी. फ़ासीवाद का पहला लक्षण. देश से बाहर एक दुश्मन खोजो. ब्रिटेन ने हथियार देने से इनकार किया तो ईदी ने ब्रिटेन के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी शुरू कर दी. तंजानिया के ख़िलाफ़ लोगों को अपनी तरफ़ करने के लिए वो एक मंत्र खोजने की कोशिश में था. भारतीयों को तीन महीने की मोहलत दी गई 1969 तक युगांडा में केन्याई लोगों को दुश्मन बताकर देश से भगा दिया जा चुका था. तब 30 हज़ार केन्याई नागरिकों को युगांडा छोड़कर भागना पड़ा था. ऐसे में एक नए दुश्मन की खोज़ ज़रूरी थी. तंजानिया एक अलग मुल्क था. लोगों को रैली करने के लिए ज़रूरी था कि युगांडा के अंदर ही दुश्मन खोजा जाए. फिर सामने आया फ़ासीवाद का दूसरा लक्षण. जो फ़ासीवाद का एसेंशियल एलिमेंट भी है, एक वर्ग विशेष या समूह के प्रति दुश्मनी का बिगुल फूंकना. ईदी अमीन ने एशियाई मूल के लोगों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलना शुरू किया.
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ईदी अमीन को इंसानी इतिहास के सबसे क्रूर तानाशाहों में से एक माना जाता है. उसके कार्यकाल में 5 लाख लोगों की हत्या हुई या उन्हें ग़ायब कर दिया गया (तस्वीर: AFP)


पुरानी सरकार ने भी एशियाई मूल के ख़िलाफ़ छोटे मोटे क़ानून बनाकर उनके व्यापार पर बंदिश लगाने की कोशिश की थी. और ईदी अमीन भी उसी नीति को आगे बढ़ा रहा था. लेकिन किसी क़ानून के बल पर नहीं, बल्कि अपने सपनों के बल पर. अगस्त 1972 में उसने एक ऐलान किया. उसने कहा कि ईश्वर उसके सपने में आए और उससे कहा,
“इन खून चूसने वाले विदेशियों को देश से निकाल बाहर करो.”
उसने कहा,
“एशिया के लोगों ने हमें गाय समझ रखा है. उनकी रुचि गाय का दूध लेने में तो है लेकिन उसे चारा खिलाने में नहीं.”
इसके बाद उसने एशियाई मूल के लोगों को देश निकाला दे दिया. इनमें से अधिकतर भारतीय थे. आदेश जारी हुआ कि एशियाई मूल के सभी लोगों की सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया जाएगा. और उन्हें मात्र 55 पाउंड देकर देश से बाहर निकाल दिया जाएगा.
देश छोड़कर जाने के लिए लोगों को सिर्फ़ 90 दिन का वक्त दिया गया. और आख़िरी तारीख़ तय की गई आज ही की. यानी 9 दिसम्बर 1972. शुरुआत में एशियाई मूल के इन लोगों को लगा कि ईदी अमीन सिर्फ़ बयानबाजी कर रहा है. लेकिन जब सेना ने लोगों की सम्पत्ति पर कब्जा ज़माना शुरू किया तो लोगों को असलियत का अहसास हुआ. लोगों ने अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर देश से बाहर जाना शुरू कर दिया.
इसमें से अधिकतर लोग भारतीय थे. लेकिन भारत तब बांग्लादेश शरणार्थियों की समस्या से जूझ रहा था. भारत की सरकार ने इसे युगांडा का आंतरिक मामला बताते हुए कोई ख़ास कदम नहीं उठाए. सरकार ने अपने प्रतिनिधि युगांडा भेजे लेकिन सिर्फ़ 10 हज़ार लोगों को भारत लौटने दिया. नतीजतन पूर्वी अफ़्रीका में रहने वाले भारतीय समुदाय का भारत से मोहभंग हो गया. हमेशा उनकी शिकायत रही कि उनके ही अपने देश ने मुश्किल में उनका साथ नहीं दिया. युगांडा में भारतीय सम्पत्ति का क्या हुआ? युगांडा से निष्कासित अधिकतर लोगों ने ब्रिटेन और कनाडा में शरण ली. ब्रिटेन के एक शहर लीसेस्टर में युगांडा से आने वाले भारतीयों का विरोध हुआ. लेस्टर काउंसिल ने युगांडा के एक अख़बार में इश्तिहार दिया कि वो लोग लेस्टर ना आएं. लेकिन इसका उल्टा असर हुआ. इश्तिहार से लोगों को लेस्टर नाम के शहर का पता चला. लंदन में रहना महंगा था. इसलिए बहुत से लोग लेस्टर पहुंच गए. इन लोगों ने यहां भी तरक़्क़ी की. और आगे जाकर ब्रिटिश इंडियन समाज के रसूखदार लोगों में शामिल हुए.
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लीविया के तानाशाह (सबसे दाएं) कर्नल गद्दाफ़ी के साथ ईदी अमीन (तस्वीर: AFP)


दूसरी ओर युगांडा में जिन सम्पत्तियों और दुकानों पर कब्जा हुआ था, भ्रष्ट मंत्रियों और सैनिक अधिकारियों ने उसमें बंदर बांट कर ली. आम लोगों के हिस्से तब भी कुछ ना आया. सैनिक अधिकारियों को व्यापार का कोई अंदाज़ा तो था नहीं. नतीजा हुआ कि सब धंधा चौपट होने लगा और इकॉनमी का सत्यानाश हो गया.
भारतीय और एशियाई मूल के लोगों को देश से निकालने के बाद युगांडा को लोगों को अपनी गलती समझ आई. फ़ासीवाद का तीसरा चरण शुरू हुआ और ईदी ने अपने ही लोगों के दमन के शुरुआत कर दी. जिन लोगों ने उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, उन्हें ग़ायब कर दिया गया. अगले कुछ सालों में लगभग 5 लाख लोगों को मार दिया गया. उसने अपने घर के अंदर ही टॉर्चर चेंबर बनवाए और अपने राजनैतिक दुश्मनों को टॉर्चर किया. उसके बारे में मशहूर था कि वो हथौड़े से दुश्मनों का सर फोड़ दिया करता. इतना ही नहीं मारे गए लोगों के शवों के साथ भी छेड़छाड़ की गई. युगांडा के मेडिकल समुदाय के बीच ये बात आम थी कि मुर्दाघर में रखे बहुत से शवों से गुर्दे, लिवर जैसे अंग ग़ायब मिलते थे. उसके घर में एक फ्रिज में मानव सरों के मिलने की बात भी पता चली थी. पूछा गया तो उसने कहा,
‘मुझे मानव शरीर के मांस का स्वाद पसंद नहीं. ये बहुत नमकीन होता है’
युगांडा से सऊदी अरब 6 साल तक युगांडा पर आइरन फ़िस्ट से रूल करने के बाद 1978 में ईदी अमीन ने तंजानिया के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया. फ़ासीवाद का आख़िरी चरण आ चुका था. शुरुआत में उसे सफलता भी मिली. जब उसने तंजानिया के कगेरा पर कब्ज़ा कर लिया. लेकिन यह दांव उसके लिए उल्टा पड़ गया. 1979 में तंजानिया की सेना और उसके देश के निर्वासित नागरिकों की फ़ौज युगांडा नेशनल लिबरेशन आर्मी ने जवाबी हमला शुरू कर दिया.
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युगांडा के लोगों को ईदी अमीन की मृत्यु की खबार अख़बार से मिली (तस्वीर: AFP)


लीबिया के तानाशाह गद्दाफी की सैन्य मदद से भी कोई फायदा नहीं हुआ. राजधानी कंपाला पर कब्ज़ा होने के बाद वो जान बचा कर लीबिया भाग गया. इसके बाद सऊदी अरब के शाह ने उसे राजकीय अतिथि का दर्जा दे कर अपने देश में शरण दी. 1980 से ले कर अपनी मौत तक वो सऊदी अरब के जेद्दा में निर्वासित के तौर पर 24 साल वो यहीं रहा. 4 अगस्त 2003 को किडनी की बीमारी के चलते उसकी मौत हो गई.
न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए गए अपने इंटरव्यू में जब उससे पुछा गया कि क्या उसे अपने किए पर कोई अफ़सोस होता है तो उसका जवाब था, “नहीं, केवल नॉस्टेल्जिया.” जब उससे पूछा गया कि उसकी क्या इच्छा है कि लोग उसे किस तरह याद रखें. उसका जवाब था, “सिर्फ एक महान एथलीट.”एपिलॉग तारीख़ बताती है कि जर्मनी में जब यहूदियों का नरसंहार हुआ तो शुरुआत गैस चेम्बर से नहीं दुकानों से हुई. छोटे-छोटे ऐसे कई क़ानून बनाए गए जिनसे यहूदियों को सामाजिक ज़िंदगी से अलग कर दिया. शुरुआत में लोगों को लगा, पूरी दुनिया को लगा कि बात इतने तक ही सीमित रहेगी. जब तक असलियत से पाला पड़ा, 60 लाख यहूदी गैस चेम्बर की भेंट चढ़ चुके थे.
जर्मनी में जो हुआ, तब से फ़ासीवाद को लेकर पॉलिटिकल डिसकोर्स में एक कहावत ने जन्म लिया ‘बॉइलिंग फ़्रॉग’. यानी अगर एक मेंढक को उबलते पानी में डाल दो तो वो मर्तबान से कूद कर भाग जाएगा. जबकि दूसरी तरफ़ अगर उसे ठंडे पानी में डालकर पानी धीमे-धीमे गर्म करो तो भागने की बजाय मेंढक सामंजस्य बना लेगा, और उसी पानी में उबलकर उसकी मौत हो जाएगी.
वैसे तो ये बात झूठ है, मेंढक ऐसा व्यवहार नहीं करता. लेकिन मुहावरे से जो संकेत दिया जा रहा है. वो शत प्रतिशत सही है. तानाशाही और फ़ासीवाद की शुरुआत बहुत छोटे छोटे कारणों से होती है. और अगर उन्हें शुरू में नहीं पहचाना जाता तो जब तक फ़ासीवाद अपने असली रूप में आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

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