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कहानी कोलकाता की खूनी काल कोठरी की

साल 1756 में नवाब सिराजुद्दौला ने 146 अंग्रेज़ों को कोलकाता की एक छोटी सी काल कोठरी में ठूंस दिया था. इन अंग्रेज़ों की दम घुटने से हुई मौत ने रॉबर्ट क्लाइव को बदला लेने के लिए उतारु किया

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black hole of calcutta
"वो साल की शायद सबसे गर्म और उमस भरी रात थी. ये सारे कैदी 21 जून की सुबह 6 बजे तक बिना खाना, पानी और हवा के उस कोठरी में बंद रहे.'
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कमल
20 जून 2022 (Updated: 16 जून 2022, 06:01 PM IST) कॉमेंट्स
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साल 1967 की बात है. जॉन व्हीलर न्यू यॉर्क में ऐस्ट्रोफ़िज़िक्स पर एक लेक्चर दे रहे थे. सितारों की बात करते हुए वो बार-बार ऐसे आब्जेक्ट्स की चर्चा कर रहे थे, जो अपनी ही ग्रेविटी में कोलेप्स हो जाते हैं. ऐसे आब्जेक्ट्स में ग्रैविटी उस सीमा तक पहुंच जाती है, जहां से प्रकाश भी बाहर नहीं निकल पाता. बार-बार इन आब्जेक्ट्स की बात करते हुए उन्हें एक लम्बे उलझे वाक्य का इस्तेमाल करना पड़ रहा था. ऐसे में ऑडीयन्स में से एक व्यक्ति उनसे बोला, आप इसे ‘ब्लैक होल’ क्यों नहीं बोल देते. बस यहीं से ब्लैक होल शब्द प्रचलित हो गया, और आज हम “ब्लैक होल” सुनते ही समझ जाते हैं किस चीज़ की बात हो रही है.

नासा में काम करने वाले एस्ट्रो फिजिसिस्ट होन्ग-यी चिउ के अनुसार ब्लैक होल को ये नाम देने वाले व्हीलर पहले व्यक्ति नहीं थे. बल्कि उन्होंने बताया कि रॉबर्ट डिकी नाम के एक दूसरे फिजिसिस्ट ने पहली बार इस शब्द का इस्तेमाल किया था. एक लेक्चर के दौरान समझाते हुए डिकी ने कहा, “ये तारे कुछ वैसे ही काम करते हैं, जैसे ‘कलकत्ता का ब्लैक होल’”.

इतना ही नहीं रॉबर्ट डिकी के घर में जब कोई चीज गुम हो जाती तो कहा करते, ‘जरूर उसे कलकत्ता के ब्लैक होल ने निगल लिया होगा’.

कोलकाता के जिस ब्लैक होल को एक संकेत के तौर पर डिकी ने इस्तेमाल किया. दरअस वो घटना इससे 200 साल पहले घटी थी. क्या था कोलकाता का ब्लैक होल और क्यों अमेरिका का एक वैज्ञानिक 1960 में एस्ट्रोफिजिक्स के लिए “कोलकाता के ब्लैक होल” की चर्चा कर रहा था?

नवाब सर रॉजर दौला

इस कहानी की शुरुआत होती है 17वीं सदी के अंत से. मुग़लों का सूरज डूब रहा था. अलग-अलग सूबों में ताकत नवाबों के हाथ में चली गयी थी. तब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के पास बस गिने चुने फोर्ट थे. इनमें से एक था, फोर्ट विलियम, कलकत्ता में. यहां फ्रेंच और ब्रिटिशर्स के बीच बंगाल के ट्रेडिंग पोर्ट्स पर कब्ज़े को लेकर जद्दो जहद चल रही थी. इसलिए 1756 की शुरुआत में अंग्रेज़ों ने फोर्ट विलियम की सुरक्षा और मजबूत कर दी.

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नवाब सिराजुद्दौला और  जॉन हॉलवेल (तस्वीर: Wikimedia Commons)

सिराजुद्दौला, जिन्हें अंग्रेज़ नवाब सर रॉजर दौला कहकर बुलाते, बंगाल के नवाब हुआ करते थे. उन्होंने अंग्रेज़ों से इस घेराबंदी का कारण पूछा. जब माकूल जवाब नहीं मिला तो 16 जून को सिराजुद्दौला 50 हजार की फौज, 50 तोपें, और 500 हाथी लेकर कलकत्ता पहुंच गए. 19 तारीख तक नवाब की फौज फोर्ट विलियम के गेट पर खड़ी थी. फोर्ट विलियम के गवर्नर जॉन ड्रेक हुआ करते थे. जान बचाने के लिए वो कुछ ख़ास लोगों, बच्चों और औरतों को लेकर हुगली में खड़े एक जहाज से भाग निकले.

अब कमान कमांडर जॉन हॉलवेल के हाथ में थी. हॉलवेल टैक्स कलेक्ट करने का काम किया करते थे और उन्हें लड़ाई का कुछ खास तजुर्बा नहीं था. 170 सैनिकों समेत उन्होंने कुछ देर मोर्चा संभाला लेकिन हालत पस्त थी. मोर्टार में यूज़ होने वाला गन पाउडर सीलन पकड़ चुका था. सामने थी नवाब की विशाल फौज. इसलिए आज ही के दिन यानी 20 जून की दोपहर उन्होंने नवाब के सामने सरेंडर कर दिया.

कोलकाता की काल कोठरी

इसके बाद जॉन हॉलवेल को नवाब के आगे पेश किया गया. जॉन हॉलवेल बताते हैं, नवाब ने उनसे वादा किया कि उनके लोगों के साथ नरमदिली से पेश आया जाएगा. इसके बाद दोनों में कुछ देर बातचीत हुई. और फिर सिराजुद्दौला वहां से उठकर चले गए.

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फोर्ट विलियम (तस्वीर: Wikimedia Commons)

शाम तक मामला ठीक रहा. ब्रिटिशर्स से हमदर्दी रखने वाले कुछ व्यापारियों को भी वहां लाया गया था, उन्हें भी आजाद कर दिया गया. लेकिन फिर नवाब और ब्रिटिश फौजियों में किसी बात को लेकर तनातनी बढ़ी. और इस दौरान एक ब्रिटिश फौजी ने नवाब के एक सैनिक पर पिस्तौल चला दी.

सिराजुद्दौला तक इस हुड़दंग की खबर पहुंची. उन्होंने अपने कमांडर से पूछा कि हुड़दंगियों के साथ क्या सुलूक किया जाए. तो कमांडर ने जवाब दिया कि इन लोगों को काल कोठरी में डाल दिया जाना चाहिए. ताकि सुबह होने पर देखा जा सके कि इनके साथ करना क्या है.

इसके बाद सिराजुद्दौला के आदेश पर ब्रिटिश सिपाहियों को एक काल कोठरी में डाल दिया गया. ये 18 गुणा 14 फ़ीट की एक कोठरी थी. जिसमें छोटे अपराधियों को रखा जाता था. एक वक्त में इस कोठरी में सिर्फ 2 या 3 लोगों को रखा जाता था. लेकिन उस दिन नवाब के कमांडर ने 146 लोगों को इस काल कोठरी में ठूंस दिया. इनमें दो औरतें भी थीं. और कैदी इस कदर ठुसे पड़े थे कि दरवाजा बंद करने में भी मशक्कत करनी पड़ी थी.

पानी ने प्यास को और बढ़ा दिया

हॉलवेल ने उस भयानक रात का विवरण दिया है. जून की गर्मी, भयानक उमस थी. कमरे में सिर्फ दो खिड़कियां थीं. वो भी एक ही तरफ. उनमें भी लोहे के सरिया लगे हुए थे. वेंटिलेशन का कोई जरिया नहीं था. शहर में जगह-जगह आगजनी हुई थी. जिसने माहौल को और भी गर्म बना दिया था.

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हॉलवेल के मुताबित एक ही रात में 100 से ऊपर लोग तड़प तड़प के मारे गए (तस्वीर: Getty)

शाम के 9 बजे तक लोग बेहोश होकर गिरने लगे. निगरानी में लगे सिपाहियों ने लोगों की ये हालत देखी. लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि दरवाज़ा खोल दे. इसके लिए नवाब की इजाजत चाहिए थी और रात को नवाब को जगाने का रिस्क कोई नहीं लेना चाहता था.

हॉलवेल लिखते हैं की उन्होंने सिपाहियों से मदद मांगी. लेकिन कोई सामने न आया. तब हॉलवेल ने उनसे कहा कि मैं तुम्हे हजार रूपये दूंगा अगर तुम आधे लोगों को एक बड़े कमरे में शिफ्ट कर दो. एक सिपाही ने ये सुनकर जवाब दिया कि ये अस्मभव है. हॉलवेल ने रिश्वत की रकम दो हजार कर दी. लेकिन फिर भी कोई न माना.

अगले कुछ घंटे में लोग घुटन से दम तोड़ने लगे थे. कोठरी से चीखने चिल्लाने की आवाजें आने लगी. लोग पानी मांग रहे थे. ऐसे में एक सिपाही एक बर्तन में पानी ले आया. हॉलवेल जो सलाखों के पास खड़े थे, उन्होंने अपनी हैट में पानी भरकर पीछे पहुंचाया. लेकिन अंदर इस कदर हाय तौबा मची थी कि अधिकतर पानी छलक गया. जिन होंठों तक पहुंचा वो भी बस भीग ही पाए. इस पानी ने प्यास बुझाने के बजाय और बढ़ा दी.

लोग किसी तरह हवा के लिए खिडकी के तरफ भागे. ऐसी भगदड़ मची कि कितने तो इसी में कुचले गए. चीखने-चिल्लाने और गिड़गड़ाने से फर्क न पड़ा तो अंदर लोगों ने गार्ड्स को गालियां देनी शुरू कर दी. इस उम्मीद में कि गार्ड उन्हें गोली मारकर इस नर्क से आजाद कर देंगें.

लोग तड़प-तड़प के मर गए

21 जून की सुबह करीब 6 बजे सिराजुद्दौला की नींद टूटी. आरामगाह से बाहर आकर नवाब देखते हैं कि एक खिदमतगार इंतज़ार में खड़ा है. उसकी आंखो में एक अजीब सी बेचैनी है. डरते-डरते वो नवाब को ब्रिटिश फौज का हाल बताता है.

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रॉबर्ट क्लाइव और नवाब सिराजुद्दौला (तस्वीर: Wikimedia Commons)

नवाब सिराजुद्दौला तुरंत कोठरी के दरवाजे खोलने का हुक्म देते हैं. वहां एक के ऊपर एक लाशें पड़ी थीं. सिर्फ 23 लोग जिन्दा बचे थे, वो भी अधमरी हालत में. इनमें से एक जॉन हॉलवेल भी थे. हॉलवेल ने अपनी आप-बीती लिखकर मद्रास तक पहुंचाई. वहां से बात ब्रिटेन तक पहुंची. रोबर्ट क्लाइव जो तब मद्रास में तैनात थे, उन्होंने एक ब्रिटिश सांसद को खत लिखकर कहा कि ब्रिटिश सिपाहियों के साथ हुए इस जुल्म का बदला लेना होगा.

ब्लैक हॉल ऑफ़ कलकत्ता के नाम से इस घटना को पूरे ब्रिटेन में प्रचारित किया गया. ताकि राष्ट्रवाद की भावना भड़काई जाए. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सिराजुदौला पर हमले और प्लासी के युद्ध की पटकथा भी यहीं से लिखी गयी.

अगली दो सदियों तक ब्लैक होल की घटना ब्रिटिश इतिहास का जरूरी हिस्सा बनी रही. ब्रिटेन का हर नागरिक, प्लासी की लड़ाई, 1857 का विद्रोह और कोकलता के ब्लैक हॉल के बारे में जरूर जानता था. भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार को जायज ठहराने के लिए इसे प्रोपोगेंडा की तरह भी इस्तेमाल किया जाता रहा.

ब्लैक होल हादसे में कितनी सच्चाई?

आगे चलकर कई इतिहासकारों ने इस घटना की सच्चाई पर सवाल भी उठाए. दरअसल ब्लैक हॉल का विवरण सिर्फ हॉलवेल के लिखे में मिलता है. इसलिए कई इतिहासकार मानते हैं कि इस घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था. इतिहासकार एस. सी. हिल बताते हैं कि हॉलवेल ने जिन 146 लोगों की बात कही थी, उनमें से सिर्फ 56 लोगों के रिकॉर्ड मिले.

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प्लासी के मैदान में मीर जाफर और रॉबर्ट क्लाइव आपस से मिलते हुए (तस्वीर: Wikimedia Commons)

भारतीय इतिहासकार यदुनाथ सरकार भी हिल की बात से इत्तेफाक रखते है. उनके अनुसार फोर्ट हिल की लड़ाई में अधिकतर अंग्रेज़ सिपाही मारे गए थे. इसलिए 146 लोगों की संख्या कहीं से भी जायज़ नहीं लगती.

एक जमींदार हुआ करते थे, भोलानाथ चंद्र. उन्होंने इस घटना की सत्यता की जांच के लिए एक एक्सपेरिमेंट भी कर डाला. उन्होंने 18 गुणा 15 फ़ीट का एक बांस का घेरा बनाकर उसमें लोगों को सटाने की कोशिश की. तब भी ये संख्या 146 से कहीं कम निकली. यदुनाथ सरकार के अनुसार हॉलवेल ने जिन लोगों के ब्लैक होल में मारे जाने की बात की थी, वो संभवतः लड़ाई के दौरान मारे गए थे.

मशहूर इतिहासकार विलियम डेलरिंपिल ने भी एक जगह लिखा है कि उनके शोध के अनुसार 65 लोगों को ब्लैक होल में डाला गया था. जिनमें से इक्कीस लोगों की जान बच गई थी.

बहरहाल सच्चाई जो भी है इतना तय है कि ब्लैक होल की घटना ने कलकत्ता पर हमले के लिए समर्थन जुटाने में खूब मदद की. इसके बाद 1757 में रॉबर्ट क्लाइव की अगुवाई में कलकत्ता पर हमला हुआ और बाद में प्लासी के युद्ध को जीतकर भारत में ब्रिटिश शासन की नींव डाल दी गयी.

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