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किस हिंदू धर्मशास्त्र का सहारा लेकर विधवा पुनर्विवाह क़ानून बनाया गया?

ईश्वर चंद्र विद्यासागर की कोशिशों के बाद 1856 में विधवाओं को दोबारा शादी का हक़ मिला

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1855 में ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए एक पिटिशन दाखिल की, जिसने हिंदू विधवा पुनर्विवाह एक्ट का रूप लिया (तस्वीर: Commons)
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7 दिसंबर 2021 (Updated: 6 दिसंबर 2021, 03:34 IST)
Updated: 6 दिसंबर 2021 03:34 IST
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1891 में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के निधन पर गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा,
“अचरज की बात है. ईश्वर ने 4 करोड़ बंगाली बनाते-बनाते कैसे एक आदमी बना दिया”
इस कथन से टैगोर बंगाल के जनमानस को उलाहना दे रहे थे. उनका आशय था कि एक आम बंगाली आस्था तो खूब रखता है , लेकिन उसे व्यवहार में नहीं लाता. विद्यासागर एक आम बंगाली से अलग थे. वो सिर्फ़ ज्ञान से ही नहीं, बल्कि अपने कर्म से भी महान थे. विधवा पुनर्विवाह को क़ानूनी सम्मति दिलाने में ईश्वर चंद्र विद्यासागर का बहुत बड़ा रोल था. उन्हीं के प्रयासों के चलते 1856 में हिंदू विधवा पुनर्विवाह एक्ट बना और कम से कम क़ानूनी रूप से विधवा महिलाओं को दुबारा विवाह करने की अनुमति मिल गई. विधवा पुनर्विवाह का मुद्दा कैसे उठा? कैसे ये क़ानून बना और सबसे बड़ा सवाल. ज़मीन पर इसे कैसे लागू किया गया? सती प्रथा के बाद शुरुआत 4 दिसंबर 1829 से. तब ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल, विल्यम बेंटिक हुआ करते थे. राजा राम मोहन रॉय और बाकी समाज सुधारकों की पहल पर बेंटिक ने एक क़ानून पास किया और सती प्रथा को गैर क़ानूनी बना दिया. क़ानून बना देने से स्त्रियों को जीने का हक़ तो मिला, लेकिन इज्जत से जीने का नहीं. औरतें सती ना भी होतीं, तो भी विधवा होकर जीना नर्क के समान ही था.
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गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक और राजा राम मोहन रॉय (तस्वीर: Wikimedia Commons)


समाज से अलग-थलग कर दिए जाने के अलावा, उन्हें अंडरगारमेंट्स पहनने जैसी बेसिक ज़रूरतों से भी मुहाल रखा जाता था. विधवाओं की स्थिति का मुद्दा उठा, जब 1834 में भारत में पहले लॉ कमीशन की स्थापना हुई. जिसके तहत इंडियन पीनल कोड का ड्राफ़्ट तैयार किया गया. इस पर बहस के दौरान एक मेम्बर ने नोट किया कि IPC में एक क़ानून तैयार किया जा रहा था. जिसमें अबॉर्शन के लिए कठिन सजा का प्रावधान था. मेम्बर ने इस बाबत को कहा, ‘विधवा पुनर्विवाह पर विचार-विमर्श किए बिना, अबॉर्शन को गैर क़ानूनी बनाना बेतुकी बात है. चूंकि अधिकतर अबॉर्शन विधवाओं के ही होते हैं’.
अब पहला सवाल तो ये कि अबॉर्शन को गैर-क़ानूनी क्यों माना गया? पहला उत्तर तो धर्म से सम्बंधित है. पश्चिम में ईसाई धर्म के प्रभुत्व के चलते ब्रिटिश कॉमन लॉ में ईसाई धर्म की कई मान्यताएं सम्मिलित की गई. इसके चलते उन्होंने अपने क़ानून में अबॉर्शन को ग़ैरक़ानूनी बनाया. साथ ही जब भारत में IPC का ड्राफ़्ट तैयार किया गया तो उसमें भी अबॉर्शन को गैर-क़ानूनी बना दिया गया. जबकि भारत में अबॉर्शन का पक्ष बिलकुल अलग था. यहां अबॉर्शन के मोटा मोटी दो कारण थे.
पहला कारण- बेटा पैदा करने की चाहत के चलते, कन्या भ्रूण हत्या. हालांकि, तब गर्भ में बच्चे का लिंग पता करने का कोई तरीक़ा नहीं विकसित हुआ था. लेकिन पत्ती सूंघ के ‘छींक आए तो लड़का होगा’ जैसे तिकड़म भिड़ाने वाले तब भी कम ना थे.
दूसरा कारण-  बाल विवाह और विधवा स्त्रियों की समाज में स्थिति. ये दोनों कारण आपस में परस्पर लिंक्ड थे. कम उम्र में लड़कियों की शादी उनसे कहीं ज़्यादा उम्र के लड़कों से कर दी जाती थी. तब भारत में औसत आयु 40 वर्ष से भी कम थी. ज़ाहिर था कि बड़ी उम्र के पुरुषों की मृत्यु पहले हो जाती. और इन लड़कियों के साथ विधवा शब्द जुड़ जाता. जो सिर्फ़ एक विशेषण ना होकर लांछन भी था. मानो पति के मर जाने पर स्त्री कुछ कम हो जाती हो. समाज में बिन ब्याही स्त्रियों का गर्भवती होना ही टैबू था, ऐसे में यदि कोई विधवा स्त्री गर्भवती हो जाए, तो उसके पास गर्भपात करने के सिवा कोई चारा नहीं बचता था. ईश्वर चंद्र विद्यासागर और वाचस्पति इन परस्थितियों को समझे बिना अबॉर्शन के ख़िलाफ़ क़ानून बना दिया गया. जो पहले से ख़राब हालत में रह रही विधवा स्त्रियों के लिए और मुसीबत बढ़ाने वाला था. ना वो दोबारा शादी कर सकती थीं, और ना ही अनचाहे गर्भ को गिरा सकती थीं. धर्म के ठेकेदार विधवा स्त्रियों के पुनर्विवाह के सख़्त ख़िलाफ़ थे. हिंदू समाज के लिए क़ानून बनाने में अंग्रेज भी हिंदू धर्म की प्रथा और व्यवस्था का ख़याल रखते थे. इसलिए विधवाओं को दुबारा विवाह करने का मसला ज्यों का त्यों रह गया था.
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पियरे सोननेरट (1748-1814) की एक पेंटिंग में एक भारतीय विधवा का चित्रण और भारत सरकार द्वारा जारी किया गया ईश्वर चंद्र विद्यासागर स्टाम्प (तस्वीर: Wikimedia Commons)


इन्हीं सब मसलों को देखते हुए तब कई समाज सुधारकों ने विधवा पुनर्विवाह को क़ानून सम्मत बनाने का प्रयास किया. इनमें सबसे अग्रणी थे ईश्वर चंद्र विद्यासागर. जो लड़कियों की शिक्षा के लिए कार्य कर रहे थे. उनके जीवन की एक घटना ने उन्हें विधवाओं की स्थिति पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया.
हुआ यूं कि विद्यासागर के एक शिक्षक थे, जिनका नाम था शंभूचंद्र वाचस्पति. वाचस्पति की पत्नी का निधन हुआ तो उन्होंने दूसरी शादी करने का इरादा किया. पैसों की कमी नहीं थी. और कम दहेज के नाम पर लोग कहीं बड़ी उम्र के पुरुष से अपनी बेटी की शादी करने के लिए तैयार हो ज़ाया करते थे. वाचस्पति को विद्यासागर से बहुत स्नेह था. इसलिए उन्होंने दूसरे विवाह की बात उन्हें बताई. विद्यासागर को जब पता चला कि लड़की की उम्र वाचस्पति से कहीं छोटी है तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया. विद्यासागर ने उन्हें चेताया कि कल तुम तो चल बसोगे, वो बेचारी लड़की छोटी उम्र में विधवा हो जाएगी. और उसकी जिंदगी नर्क हो जाएगी.
विद्यासागर ने वाचस्पति को समझाने का बहुत प्रयास किया. लेकिन वाचस्पति नहीं माने. उन्होंने एक गरीब लड़की से शादी कर ली. विद्यासागर ने हमेशा-हमेशा के लिए वाचस्पति से रिश्ता तोड़ लिया. जैसा कि विद्यासागर ने आगाह किया था, शादी के कुछ समय बाद ही वाचस्पति का निधन हो गया और उनकी पत्नी विधवा का जीवन जीने को मजबूर हो गई. इस घटना ने विद्यासागर पर इतना असर डाला कि उनकी जिंदगी के दो ध्येय बन गए. बाल विवाह पर रोक और विधवा लड़कियों का पुनर्विवाह. पराशर संहिता सबसे पहले उन्हें धर्म के एंगल से इस समस्या का हल ढूंढना था. चूंकि हिंदू धर्म शास्त्रों को आधार बनाकर विधवा स्त्रियों के पुनर्विवाह को नाजायज़ बताया जाता था. इसलिए ज़रूरी था कि धर्म शास्त्रों में इस तर्क की काट ढूंढीं जाए. विद्यासागर ने खुद को एक लाइब्रेरी में बंद किया और कई महीनों तक हिंदू धर्म शास्त्रों को खूब खंगाला. बहुत मेहनत के बाद उन्हें पराशर संहिता में एक श्रुति मिली. जिसके अनुसार विधवा औरतें दोबारा शादी कर सकती थीं.
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पराशर संहिता का वो श्लोक जिसमें विधवा पुनर्विवाह की शर्तें मेंशन हैं (फ़ाइल फोटो)


इस तर्क को आधार बनाकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने हिंदू विधवा पुनर्विवाह एक्ट की लड़ाई शुरु की. 1855 में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के पास एक पिटिशन डाली. ताकि विधवा पुनर्विवाह के लिए क़ानून बनाया जा सके. दूसरा धड़ा भी सामने आया. इस पिटिशन के ख़िलाफ़ हिंदू रूढ़ीवादी संगठनों ने एक और पिटिशन जमा की. इसके बावजूद विद्यासागर की पिटिशन स्वीकार की गई और 19 जुलाई 1856 को विधवा पुनर्विवाह एक्ट पास हुआ.
लेकिन ऐसे क़ानून का फ़ायदा क्या, अगर वो सिर्फ़ किताबों तक सीमित रहे. और ज़मीन पर ना उतर पाए. विधवा पुनर्विवाह क़ानून का भारी विरोध हो रहा था. धमकी दी जा रही थी कि जिसने भी विधवा विवाह कराया, उसे मार दिया जाएगा. इसके बावजूद क़ानून को अमल में लाने की ज़िम्मेदारी ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने कंधे पर ली. विद्यासागर के एक मित्र के बेटे थे श्रीचंद्र विद्यारत्ना. उन्होंने उन्हें एक विधवा स्त्री से शादी के लिए मनाया. जिसके बाद विद्यारत्ना और कालीमती की शादी करवा दी गई. इस तरह आज ही के दिन यानी 7 दिसंबर 1856 को पहली बार किसी विधवा का पुनर्विवाह कराया गया. समाज में सहमति बनाने के लिए 800 लोगों को निमंत्रण दिया गया.
बहुत सारे लोगों ने इस विवाह का विरोध किया. लोगों ने विद्यासागर को जान से मारने की धमकी तक दी. इसके चलते ये विवाह पुलिस की देखरेख में संपन्न करवाया गया. विद्यासागर को रुढ़िवादियों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा. लेकिन दूसरी तरफ ऐसे लोग भी थे, जो ईश्वरचंद्र के साथ मजबूती से खड़े रहे. ऐसे भी थे, जो उन्हें अपना मसीहा मानते थे. उनके साथ कदम से कदम मिलाकर खड़े रहते थे. ऐसे ही कुछ साड़ी बुनकरों ने उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए साड़ियों पर बंगाली में कविता बुनना शुरु कर दिया. जिनमें लिखा होता था,
बेचे थाको विद्यासागर चिरजीबी होए (जीते रहो विद्यासागर, चिरंजीवी हो)
ज़मीन पर इस क़ानून का कितना असर हुआ? 1881 की बंगाल जनगणना देखें तो, तब 14 वर्ष से कम उम्र की 50 हज़ार विधवा लड़कियां थीं. 93 हज़ार लड़कियां 15-19 साल के बीच की थीं. और 3 लाख 76 हज़ार विधवा औरतें 20-29 वर्ष की उम्र के बीच की थीं. 1856 में क़ानून पास होने के अगले 20 साल में इनमें से सिर्फ़ 80 लड़कियों के पुनर्विवाह हो पाए. उसमें से भी 60 तो ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने ही कराए थे. 1876 से 1886 के बीच क़रीब 500 विधवा औरतों के पुनर्विवाह कराए गए.
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वृंदावन भारत में विधवाएं (सांकेतिक तस्वीर: डेलीमेल)


इसका एक कारण तो ये था कि समाज में रूढ़िवाद का दबदबा था. दूसरी ओर एक दिक़्क़त 1856 के क़ानून में भी थी. इसके तहत विधवा दोबारा शादी तो कर सकती थी, लेकिन उन्हें रजिस्टर करने जैसा कोई प्रावधान नहीं था. इसके चलते विधवा लड़कियों के माता-पिता, जो इस क़ानून के समर्थक थे, वो भी दोबारा शादी को लेकर कतराते थे. भारी भरकम दहेज की रक़म चुकाने के बाद, कोई पुरुष किसी विधवा लड़की से शादी तो कर लेता, लेकिन शादी का कोई वैधानिक आधार न होने के चलते इन लड़कियों को शादी के बाद छोड़ दिया जाता था. और वो दोबारा अपनी हालत पर लौट जाती थीं.
पब्लिक सपोर्ट की कमी के चलते अपने जीवन के आख़िरी वर्षों में ईश्वर चंद्र विद्यासागर भी निराश हो चले थे. उन्होंने अपने जीवन के आख़िरी वर्ष झारखंड के संथल कबीले में रहकर बिताए और वहां लड़कियों की पढ़ाई पर ज़ोर देने का काम किया. उनकी मृत्यु से चार महीने पहले मार्च 1891 में सरकार ने 'ऐज ऑफ़ कंसेंट' पास किया. और बाल विवाह पर भी कम से कम क़ानूनी रूप से तो रोक लगा दी गई.

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