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1971 जंग के बाद पाकिस्तानी जनरल की डायरी में क्या मिला?

डायरी से ये पता लगा कि बांग्लादेश युद्ध में हार सामने देख पाकिस्तान ने कितनी कायराना हरकत की थी

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मेजर जनरल राव फ़रमान अली (बाएं) और जंग के बाद मिली पकिस्तानी जनरल की डायरी (दाएं) (तस्वीर : नैशनल हेराल्ड और commons)
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कमल
14 दिसंबर 2021 (Updated: 14 दिसंबर 2021, 10:47 AM IST) कॉमेंट्स
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शांति आदर्श है. लेकिन जंग असलियत. हालांकि शांति का आदर्श दिखाकर हर जंग को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन कई बार शांति की दिशा में जंग ज़रूरी हो जाती है. ऐसी ही एक जंग थी 1971 की. 1971 से पहले भारत 3 युद्ध लड़ चुका था. बंटवारे के तुरंत बाद 1948 में, 1962 में चीन से और 1965 में पाकिस्तान से दुबारा. इन तीनों युद्ध में भारत को निर्णायक जीत नहीं मिली. बल्कि 1962 में तो चीन से निर्णायक हार मिली थी और वो भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करके बैठ गया था.
1971 में बांग्लादेश की आज़ादी के लिए जो युद्ध हुआ. वो भारत की पहली निर्णायक जीत थी. कोई किंतु-परंतु नहीं. द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के सरेंडर के बाद ये पहली बार हो रहा था कि पूरी दुनिया के सामने एक सेना ने दूसरी सेना के सामने सरेंडर किया था. लिखित में. तस्वीर के साथ. 1965 और 1948 जंग के इतिहास में पाकिस्तान खुद की जीत बताता है. लेकिन 1971 के युद्ध के बाद ऐसी कोई संभावना नहीं बची.
इस हार को झुठलाया नहीं जा सकता था. सिर्फ़ इग्नोर किया जा सकता है. जो पाकिस्तान हमेशा करता रहा. 1971 की जंग ख़त्म हुई 16 दिसम्बर 1971 को. इस उपलक्ष्य में हर साल 16 दिसंबर को भारत में विजय दिवस मनाया जाता है. बांग्लादेश में भी इसे विजय दिवस के रूप में मनाते हैं, लेकिन बांग्ला में इसे ‘बिजोय दिवस’ बोला जाता है.
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लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी, लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह की उपस्थिति में ढाका में सरेंडर के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करते हुए (फाइल फोटो)


युद्ध से जुड़ी कुछ घटनाओं का ब्योरा हम 22 नवंबर और 6 दिसंबर के तारीख़ के आर्टिकिल्स में बता चुके हैं. अगले तीन कड़ियों में हम सिलसिलेवार तरीक़े से युद्ध की फ़ाइनल स्टेज के बारे में बताएंगे. पेश है पहली किश्त.
यहां पढ़ें- पाकिस्तान का अपना रिपोर्टर बना 1971 की हार का कारण

1971 बांग्लादेश युद्ध: जंग शुरू होने से पहले ही जीत चुका था भारत!


क़ौमी ज़बान 1947 में बंटवारे के बाद पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में कई मसलों पर उलझने थीं. इनमें से एक था भाषा का सवाल. पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला को आधिकारिक पहचान दिलाने की मांग ज़ोर पकड़ रही थी. 21 मार्च 1948. पाकिस्तान बने 7 महीने हुए थे. जब मुहम्मद अली जिन्ना ने एक आम सभा में तक़रीर की और बांग्ला को क़ौमी जुबान बनाए जाने की मांग को ठुकरा दिया. उन्होंने कहा,
"हम बंगाली ज़ुबान का एहतेराम करते हैं, मगर पाकिस्तान की क़ौमी ज़ुबान तो उर्दू ही होगी."
इस एक लाइन ने पूर्वी पाकिस्तान में हलचल मचा दी. जून 1949 में सुहरावर्दी ने मुस्लिम लीग से अलग होकर अवामी मुस्लिम लीग बना ली (ये वही सुहरावर्दी हैं, जो आजादी से पहले कोलकाता में दंगे करा रहे थे). इसके बाद पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला को क़ौमी भाषा बनाने की मांग ज़ोर पकड़ने लगी. आंदोलन शुरू हुआ. 1952 में इसी आंदोलन के चलते ढाका यूनिवर्सिटी में छात्रों पर गोलियां चलीं. जिसमें 6 छात्र मारे गए. इतिहास गवाह है कि दमन से आंदोलन दबा नहीं करते. बल्कि और मज़बूत होते हैं. ऐसा ही कुछ तब भी हुआ. छात्रों की मौत के बाद बांग्ला को क़ौमी ज़ुबान बनाने का आंदोलन और तेज हो गया.
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21 मार्च 1948 को ढाका में एक जनसभा में मुहम्मद अली जिन्ना का भाषण (तस्वीर: Wikimedia Commons)


1956 में बांग्ला को आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा तो मिल गया. लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में दमन का चक्र चलता रहा. 1956 में अवामी मुस्लिम लीग ने चुनाव जीतकर सूबाई सरकार बनाई. लेकिन पन्द्रह दिन भी नहीं हुए थे कि हुकूमत ने इस सूबाई सरकार को बर्खास्त कर दिया. कारण था पश्चिमी पाकिस्तान के सरमायों की छोटी सोच. गोरे चिट्टे नवाब पाकिस्तान थिंकर जनाब हसन निसार कई जगह लिखते हैं कि पश्चिमी पाकिस्तान के लंबे-चौड़े गोरे-चिट्टे सिंधियों-पंजाबियों ने पूर्वी पाकिस्तान के छोटे और काले-कलूटे बंगालियों को, हमेशा हिकारत की नज़र से देखा. एक मायने में वो उनसे नफरत करते थे. भला ये गोरे चिट्टे नवाब कैसे बर्दाश्त कर सकते थे कि काले कलूटे बंगाली आकर उनपर हुकूमत करें?
सूबे की सरकार बर्खास्त हुई तो इस कार्यवाही के खिलाफ अवामी मुस्लिम लीग ने अपना नाम बदलकर अवामी लीग कर लिया और मुस्लिम लीग से अपने सारे रिश्ते तोड़ लिए. पाकिस्तान के एक रिटायर्ड जनरल केएम आरिफ अपनी किताब ‘खाकी साये’ में लिखते हैं कि बंगाली लोग साफ़ तौर पर देख रहे थे कि पाकिस्तान की सत्ता पर पश्चिमी पाकिस्तान पूरी तरह क़ाबिज़ है.
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हुसैन सुहरावर्दी और जनरल अयूब ख़ान (तस्वीर: Getty)


1958 में अयूब खान ने तख्तापलट करते हुए सत्ता हथिया ली और सारी राजनैतिक पार्टियों को बर्खास्त कर दिया. अयूब खान के दौर में पूर्वी पाकिस्तान के साथ खूब पक्षपात हुआ, बंगालियों का जमकर शोषण किया गया. तब पूर्वी पाकिस्तान में लोकतंत्र की मांग को लेकर एक नए आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा. केंद्र दोबारा ढाका यूनिवर्सिटी थी. यहां छात्र आंदोलन रत थे. एक वक्त ऐसा भी आया कि जनरल अयूब खां ने अपने वजीर जस्टिस मुनीर के हाथों पूर्वी पाकिस्तान के वजीर रमीज़ुद्दीन को पैगाम भिजवाया,
“क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि आप बंगाली लोग हमारी जान छोड़ दें और अपना अलग मुल्क बना लें?"
रमीज़ुद्दीन ने जवाब दिया,
“जनाब मुनीर साहब, जनरल साहब को कहियेगा कि बराए मेहरबानी ज़रा होश की दवा करें. पाकिस्तान में हमारी तादाद आप लोगों से ज़्यादा है, हम मेजोरिटी में हैं, इसलिए पाकिस्तान तो हमारा है. अलग मुल्क बनाना है तो आप बनाइये.”
बाद में ‘द टेलीग्राफ’ को दिए एक इंटरव्यू में अयूब खां ने खुद माना कि एक वक्त ऐसा आया था कि उन्होंने बंगालियों को पाकिस्तान से अलग करने का फैसला ले लिया था. अयूब कितने संजीदा थे. ये तो नहीं पता. लेकिन इतना सच है कि शुरुआत से ही पश्चिम पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान नाम के लिए एक देश थे. दिल से नहीं. मुनीर चौधरी को जेल बहरहाल 1952 में जिन छात्रों को गोली मारी वो पूर्वी पाकिस्तान में लोकतंत्र के आंदोलन के सिम्बल बन गए. छात्रों ने उन पर कविताएं, लेख और नाटक लिखे. ऐसे ही एक नाटक का नाम था कब्र (कोबोर बांग्ला में). नाटक में भाषाई आंदोलन में शहीद हुए लोगों को ज़िंदा होते दिखाया गया था.
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मुनीर चौधरी अपनी पत्नी के साथ (तस्वीर: Wikimedia Commons)


इस नाटक को लिखने वाले थे मुनीर चौधरी. नाटक मशहूर हुआ तो अयूब ख़ान की सरकार ने मुनीर को जेल में डाल दिया. अयूब का शासन ख़त्म हुआ तब मुनीर जेल से बाहर आए. तब तक उनकी तबीयत काफ़ी बिगड़ चुकी थी. इस कारण जेल से निकलकर चौधरी साहब ने पॉलिटिक्स से खुद को दूर रखा. और शिक्षा और लेखन के कार्य में व्यस्त हो गए. उन्होंने बांग्ला भाषा में कीबोर्ड की रूपरेखा बनाई और लिंग्विस्ट के तौर पर ढाका यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे.
यूनिवर्सिटी के नज़दीक ही उनका घर था, जब 25 मार्च 1971 को याहया ख़ान ने सेना भेजकर ऑपरेशन सर्च लाइट की शुरुआत की. यूनिवर्सिटी में रहने वाले बहुत से प्रोफ़ेसर और स्कॉलर्स को गोली मार दी गई. क़िस्मत से मुनीर चौधरी की जान बच गई. लेकिन इस घटना के बाद उन्होंने अपना घर छोड़ दिया. और वो अपने माता-पिता के साथ रहने चले गए.
फिर आई आज की तारीख़. यानी 14 दिसंबर 1971. भारत ढाका तक पहुंच चुका था. याहया ख़ान को अहसास हो चुका था कि पूर्वी पाकिस्तान गया हाथ से. उन्होंने गवर्नर को संदेश भेजा, जिसका कुछ-कुछ आशय यही था कि जैसा तुम्हें ठीक लगे वैसा करो. इसके एक दिन पहले जनरल मानेकशॉ पूर्वी पाकिस्तान में मौजूद आर्मी जनरल को साफ़ शब्दों में कह चुके थे, ‘सरेंडर कर दो, वरना हम तुम्हारा नामों निशान मिटा देंगे.’पाकिस्तान की काली करतूत 14 तारीख़ तक पाकिस्तान के हौंसले टूट चुके थे. UN काउंसिल में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो तिकड़म भिड़ाने की कोशिश में थे. लेकिन उनकी भी मंशा यही थी कि हार का ठीकरा याहया ख़ान के सर फूटे और सत्ता उनके हाथ में आ जाए. जैसा हुआ भी.  14 दिसम्बर की दोपहर IAF ने ढाका स्थित गवर्नर हाउस पर बमबारी की. तब मुनीर चौधरी अपने घर में रेडियो सुन रहे थे. भारत और मुक्तिवाहिनी की जीत पक्की लग रही थी. मुनीर भी सोच रहे थे कि चलो, जल्द ही युद्ध ख़त्म होगा और हम आज़ाद होंगे.
दोपहर 1 बजे उनके घर के गेट पर खटखट हुई. मुनीर दरवाज़े पर पहुंचे. वहां 2-3 लड़के थे. सफ़ेद कुर्ते पायजामे में. पीछे एक वैन खड़ी थी. कैमाफ्लॉज की हुई. मुनीर अपने गेट से बाहर आए लेकिन फिर कहां गए किसी को पता नहीं चला.
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अल-बद्र, जमात-ए-इस्लामी और उसके छात्र मोर्चे के सदस्यों के साथ गठित एक अर्धसैनिक बल था, जो 1971 में पाकिस्तान की सेना के सहायक बल के रूप में काम करते थे (तस्वीर: ढाका ट्रिब्यून)


17 दिसंबर को नदी किनारे उनकी लाश मिली. और सिर्फ़ उनकी ही नहीं. बांग्लादेश के कई नागरिकों की. यूं तो पाकिस्तान सेना का 'मोडस ओपेरेंडि' ही यही था. लेकिन उस दिन जिन लोगों को मारा गया था. वो रैंडम नहीं थे. ये बांग्लादेश के नामी बुद्धिजीवी लोग थे. उस दिन बांग्लादेश के कई नामी शिक्षकों, लेखकों, वकीलों और डॉक्टरों को ग़ायब कर दिया गया. ये वो लोग थे, जो आगे जाकर एक नए राष्ट्र की नींव रखते. इनमें शामिल थे संतोष चंद्र भट्टाचार्य, एक संस्कृत स्कॉलर. नजमुल हक़, जिन्हें शेख़ मुजीब के ख़िलाफ़ गवाही देने के लिए पाकिस्तान ले ज़ाया गया था.
लिंग्विस्ट मुफ़ज़्ज़ल चौधरी, जिन्हें भारत स्थित टैगोर यूनिवर्सिटी में सम्मानित किया गया था. इतिहासकार घयासुद्दीन अहमद. डॉक्टर फ़ैजुल माही, जो मुक्तिबाहिनी की मदद कर रहे थे. ऐसे ही और भी बहुत से लोग. जिन्हें चुन-चुनकर एक ही दिन में किडनैप और बाद में क़त्ल कर दिया गया था.  जड़ में दही डालना युद्ध के बाद बांग्लादेश इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल ने इस मामले में एक ब्रिटिश बांग्लादेशी को ज़िम्मेदार ठहराया. लेकिन ये पूरी तस्वीर नहीं थी. मुनीर और बाकी लोग़ों को किडनैप करने वाले अल-बद्र और अल शम्स नाम के संगठनों से ताल्लुक़ रखते थे. इनका गठन पाकिस्तानी ईस्टर्न कमांड के जनरल नियाज़ी की देखरेख में किया गया था. साफ़ था कि ये सब पाकिस्तान के इशारे पर हो रहा था.
युद्ध के बाद मुक्तिवाहिनी के सदस्यों को ढाका के गवर्नर हाउस से एक डायरी मिली. ये ढाका के गवर्नर के मिलिटरी एडवाइज़र मेजर जनरल फरमान की डायरी थी. डायरी में लिखा था,
“बंगालियों को काट-काटकर बंगाल की इस हरी भरी ज़मीन को हम खून से लाल कर देंगे.”
साथ में बंगाली प्रबुद्ध जनों के नामों की एक लिस्ट भी थी. जिसमें से अधिकतर 14 दिसंबर को मारे गए थे. आगे जाकर पाकिस्तान के पूर्व पत्रकार अल्ताफ़ गौहर ने भी इस बात की पुष्टि की. उन्होंने बताया कि लिस्ट में उन्होंने अपने एक दोस्त का नाम देखा और जनरल फरमान से उसे काट देने की गुज़ारिश की.
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14 दिसंबर को बांग्लादेश के कई प्रबुद्धजनों को अगवा कर उनकी हत्या कर दी गई (तस्वीर: डेली बांग्लादेश)


जनरल फ़रमान अली हमेशा इस बात से इनकार करते रहे. लेकिन इतना तय था कि उन्हें ऊपर से क्या इशारा मिल रहा था. जंग की शुरुआत से ही पाकिस्तान के जनरल टिक्का खां ने अपनी फ़ौज को पूरी तरह से ज़ुल्म करने की खुली छूट दे रखी थी. उनका कहना था, 'हमें यहाँ के लोग नहीं चाहिए, हमें सिर्फ ये ज़मीन चाहिए.'
जंग थी, जिसमें हार के बिना जीत नहीं होती. कई बार आप जीतते हैं और कई बार हारते भी हैं. 1971 की जंग में पाकिस्तान के लिए इज्जत की बात होती कि स्थिति को स्वीकार करते हुए वो चुपचाप सरेंडर कर देता. या फिर उसके सैनिक युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो जाते. सरेंडर तो उसने किया, लेकिन साथ ही जाते-जाते बांग्लादेश में उसने जो किया, उसके लिए हमारे यहां एक कहावत है, ‘जड़ में दही डालना’.

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