केड़िया गांव, जहां गाय किसी और काम आती है
पॉलिटिक्स और जुर्म बहुत झेला. अब इस गांव की कहानी पढ़ो, तबीयत खुश हो जाएगी.
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kedia village
गांव, किसान, खेती-बाड़ी की लगातार बुरी खबरों को पढ़कर अगर आप दुखी हो गए हों, तो आपको आज एक अच्छी खबर सुनाता हूं. यह खबर है बिहार के एक छोटे से गांव की. गांव है केड़िया, जमुई जिले में. खबर है इसी केड़िया गांव के किसानों की, उनकी हिम्मत की और संगठन की बदौलत हासिल सफल खेती की कहानी की. इस कहानी में गाय भी है, लेकिन वो राजनीति वाली गाय नहीं, जो वोट दे. बल्कि उस शुद्ध भारतीय परंपरा की गाय की कहानी है, जो गोबर और पेशाब देती है. यह गोबर और पेशाब खेतों के लिये एकदम अमृत माफिक है.
इस कहानी में 70 साल के अनछ काका हैं, 16 साल की नीलम हैं, 25 साल के बहादुर यादव हैं, गाय है, पेड़, पौधे, पत्ते और बेसन, आदमी का पेशाब तक सब है. सबने मिलकर केड़िया की कहानी को रचा-गढ़ा है.
सबकी अपनी अलग-अलग कहानी है, लेकिन सबकी मंजिल एक - अपने गांव में एक ऐसी खेती-किसानी और जीवन को अपनाना, जो प्रकृति और परंपरा के करीब हैं. जो रासायनिक खेती की चपेट में आये देश में एक उदाहरण पेश कर सके, जो शहरी लोगों की थाली में स्वच्छ भोजन मुहैया करा पाए.
सबसे पहले फ्लैशबैक में चलते हैं. सन 1960 के भी थोड़ा सा पहले. गांव के बूढ़े पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि 1957 में जमुई में श्रम भारती खादी ग्राम शुरू हुआ. गांधीवादी लोग इलाके में आने-जाने लगे और खेती-किसानी के नये-नये तरीके बताने लगे. खुद आचार्य राममूर्ति नाम के बड़े गांधीवादी आये थे. उनकी पूरी टीम गांव-गांव घूम लोगों को जैविक खेती करने की सलाह देती थी. उस दौरान बताया जाता था कि गड्ढा खोद उसमें कूड़ा-करकट डाल दिया जाता था और उसी की खाद बनाई जाती थी. कुछ दिनों तक यह विधि खूब प्रचलन में थी. लेकिन 1964-65 आते-आते सल्फर आने लगा. बाजार से किसान सल्फर, पोटाश आदि मिलाकर खेतों में डालने लगे. 70-80 के दशक में हरित क्रांति का खूब प्रचार-प्रसार हुआ.
फिर डीएपी आया. खुद कॉपरेटिव ऑफिस से रासायनिक खाद खरीदने के लिये कर्ज मुहैया कराया जाने लगा. सरकार की चलाई इस योजना से किसान रासायनिक खेती की तरफ बढ़ने लगे. धीरे-धीरे रासायनिक खादों की मांग इतनी बढ़ गयी कि बाजार में भी बड़े पैमाने पर सप्लाई होने लगा. शुरू-शुरू में आधा किलो प्रति कट्टा रासायनिक खाद देने पर ही फायदा होने लगा. लेकिन आज स्थिति यह है कि तीन किलो देने पर भी फसलों को फायदा नहीं होता. इस तरह खेत खत्म होने लगे. मिट्टी कमजोर हो गयी. मिट्टी का रस चला गया. मिट्टी नमक की तरह सूखी और भुरभुरी हो गई. हद से ज्यादा रासायनिक खाद के इस्तेमाल से खेतों में केंचुए मरने लगे, जो मिट्टी को उर्वरक बनाते थे.
लेकिन 2016 में केड़िया की कहानी अलग है. अब यहां के किसान आधुनिक रासायनिक खेती से छुटकारा पाने की कोशिश में जुट गए हैं. पिछले दो सालों से केड़िया के किसान कुदरती खेती कर रहे हैं और अपनी मिट्टी और खेती को बचाने की कोशिश में सफल भी हो रहे हैं.
कुदरती खेती और जीवन की तरफ लौटने के प्रयास में गांव में कई प्रयोग हो रहे हैं. ऐसे पशु शेड बनाये गये हैं, जहां गोमूत्र और गोबर को इकट्ठा किया जाता है, सरकारी योजना की सहायता से वर्मी बेड बनाये गए हैं. जहां गोबर, पत्ते और खेती के दूसरे कचरे को कंपोस्ट करके खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे इकोसैन शौचालय बनाये गए हैं, जिसमें आदमी का पेशाब-मल भी खेती के लिये खाद बन सके. महिलाएं बायोगैस चूल्हे पर खाना बना रही हैं. उन्हें धुएं से आजादी तो मिली ही, साथ ही इससे निकलने वाले गोबर का इस्तेमाल खेतों में भी कर लिया जाता है.
पिछले दो सालों में केड़िया के लगभग सभी किसानों ने कुदरती खेती करना शुरू कर दिया है. गांव में 282 वर्मी-कंपोस्ट बेड लगाये जा चुके हैं. रासायनिक खाद के इस्तेमाल में 42.6 प्रतिशत कमी हुई है. 90 प्रतिशत से भी ज्यादा किसानों ने खेती लागत में कमी दर्ज की है और सबसे खास बात यह है कि अभी तक कुदरती खेती में किसी भी तरह का नुकसान दर्ज नहीं किया गया है.
ऐसा नहीं है कि केड़िया गांव के लोग अचानक ही दो साल पहले एक दिन रासायनिक खाद को नकार, जैविक खेती की तरफ बढ़ गए. यह एक पूरी प्रक्रिया थी. जिसमें पहले डर आया, फिर विश्वास और अंत में आत्मविश्वास. 25 साल के युवा किसान बहादुर यादव की कहानी भी पहले थोड़ा सा डर, फिर झिझक और अंत में आत्मविश्वास की कहानी है.
बहादुर बताते हैं, “पहले गांव के पुराने लोग जैविक खेती के लिये तैयार हुए. हालांकि हम लोग असमंजस में थे. धान की खेती के दौरान हमने जैविक खाद का सबसे पहले प्रयोग शुरू किया. गांव के बाकी लोग यूरिया दे रहे थे, लेकिन मैंने नहीं दिया. मन में एक डर भी था. धीरे-धीरे दिन बीतते गए. कुछ दिनों बाद देखा कि मेरे खेत की फसल में आस-पास के लोगों से ज्यादा हरियाली है. आज जैविक खेती से पैदा हुए धान को हमने खुद के इस्तेमाल के लिये रखा है. उसका स्वाद भी काफी अच्छा है. अब तो दूसरे गांव के लोग भी हमारी मीटिंग में आकर बैठते हैं.”
बहादुर बताते हैं कि अब हमारा पूरा परिवार खेत में ही पेशाब करता है. इससे मकई जैसी फसलों में अच्छा परिणाम देखने को मिला है.
