सिर पर रखा इनाम दोस्त को मिल जाए इसलिए सरेंडर करने को तैयार हो गए थे चंद्रशेखर आज़ाद
ब्रिटिश पुलिस के हाथों कभी न गिरफ्तार होने की कसम खाने वाले आज़ाद जब इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में घिरे तो खुद को गोली मार ली, पढ़ें उनकी जिंदगी के रोचक किस्से.

सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर 23 जुलाई 1906 को एक बच्चा पैदा हुआ. उसका नाम रखा गया चंद्रशेखर. मध्य प्रदेश के भाबरा में पैदा हुए चंद्रशेखर का नाम आज़ाद कैसे पड़ा उसके पीछे कहानी है. आजाद की मम्मी उन्हें संस्कृत का विद्वान बनाना चाहती थी. पर आज़ाद का प्लान तो देश को अंग्रेजों से आज़ाद कराने का था. हम लाए हैं उनकी जिंदगी के कुछ रोचक किस्से.
1. चंद्रशेखर तिवारी से चंद्रशेखर आज़ाद
जलियांवाला बाग कांड के बाद सारे बड़े क्रांतिकारी प्रोटेस्ट पर उतर आए थे. चंद्रशेखर ऐसे ही किसी प्रोटेस्ट का हिस्सा बने थे. जिसमें अंग्रेजों ने उन्हें अरेस्ट कर लिया. उस वक्त वो केवल 16 साल के थे. धरे गए थे तो कोर्ट में पेशी हुई. मजिस्ट्रेट ने जब नाम, पता, औऱ बाप का नाम पूछा तो चंद्रशेखर ने जवाब में कहा कि, मेरा नाम आज़ाद है, पिता का नाम स्वतंत्र और पता जेल है. चंद्रशेखर के इस जवाब को सुनकर मजिस्ट्रेट चौंक गया. उसने चंद्रशेखर को 15 दिनों तक जेल में रहने की सजा सुनाई. जेल में उन्हें अंग्रेजों ने बहुत पीटा. हर मार के बाद वो और सख्त होते गए. जेल से बाहर निकलते ही लोगों ने आज़ाद का स्वागत फूल और मालाओं से किया. अखबार में फोटो उनकी फोटो छपी वो भी धांसू कैप्शन के साथ. इसके बाद से लोग उन्हें आज़ाद के नाम से जानने लगे.

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2. काकोरी कांड
आजाद काकोरी कांड में शामिल थे. उनके अंडर में 10 क्रांतिकारियों ने काकोरी में ट्रेन लूटी जिसमें फिरंगियों का पैसा जा रहा था. सारे पैसे अंग्रेज सिपाहियों के कंधे पर गन तानकर लोहे के उस बक्से से निकाल लिया. और वहां से निकल लिए. जो पैसे आज़ाद और उनके साथियों ने लूटे थे वो बहुत थे. और अंग्रेजी हुकूमत के थे. तो जाहिर सी बात है उसके लिए अंग्रेज खून देने और लेने दोनों पर उतारू हो गए थे. जिन लोगों ने ट्रेन को लूटा था उनको गोरे सिपाहियों ने खोज-खोज कर मारना शुरू किया. 5 उनकी पकड़ में आ गए. गोरों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया. आजाद भेस बदलने में माहिर थे. वो एक बार फिर से अंग्रेजों से बच निकले. नंगे पैर विंध्या के जंगलों और पहाड़ों के रास्ते चलकर वो जा पहुंचे कानपुर. जहां उन्होंने एक नई क्रांति की शुरुआत की. इस काम में भगत सिंह भी शामिल थे.
3. दोस्त रुद्रनारायण
काकोरी कांड के बाद अंग्रेजी पुलिस उनके पीछे पड़ गई थी. वे सांडर्स की हत्या, काकोरी कांड और असेंबली बम धमाके के बाद फरार होकर झांसी आ गए थे. उन्होंने अपनी जिंदगी के 10 साल फरार रहते हुए बिताए. जिसमें ज्यादातर समय झांसी और आसपास के जिलों में ही बीता. इसी बीच उनकी मुलाकात मास्टर रुद्रनारायण सक्सेना से हुई. वे स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे. दोनों के बीच में दोस्ती का बीज डालने के लिए ये वजह काफी थी. चंद्रशेखर आजाद कई सालों तक उनके घर पर रहे. अंग्रेजों से बचने के लिए वे अक्सर एक कमरे के नीचे बनी गुप्त जगह (इसे तालघर कहा जाता था, अब ये बंद कर दिया गया है) में छिप जाते थे. इतना ही नहीं, वे साथियों के साथ मिलकर वहीं पर प्लान भी बनाते थे.

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रुद्रनारायण क्रांतिकारी होने के साथ-साथ अच्छे पेंटर भी थे. एक हाथ में बंदूक और दूसरे से मूंछ पकड़े चंद्रशेखर आज़ाद का फेमस वाला पोट्रेट उन्होंने ही बनाया था. इसे बनाने के लिए रुद्रनारायण ने आज़ाद को काफी समय तक उसी पोज में खड़ा रखा था. बताया जाता है कि अंग्रेज आज़ाद को पहचानते नहीं थे. जब उन्हें इस तस्वीर की जानकारी हुई तो वे मुंहमांगी रकम देने को तैयार हो गए थे. इसके अलावा एक और फोटो भी है, जिसमें वे रुद्रनारायण की पत्नी और बच्चों के साथ बैठे हैं. ये वक्त ऐसा था जब रुद्रनारायण के घर की स्थिति अच्छी नहीं थी. आज़ाद से ये देखा न गया. वो सरेंडर के लिए तैयार हो गए ताकि जो इनाम के पैसे मिलें उससे उनके दोस्त का घर अच्छे से चल सके. चंद्रशेखर आज़ाद का अंदाज और साहस आज भी मास्टर रुद्रनारायण के घर में बसा हुआ है. वो पलंग आज भी यहां है, जिस पर आज़ाद बैठा करते थे.
4. जब क्रांति की राह में मां बाप आएं
आज़ाद यहां वहां छिपते फिरते थे. घर की हालत बहुत खराब थी. अंग्रेज सरकार के पैसे लूटने के अलावा क्रांतिकारियों के पास चंदे का पैसा भी आता था. उनके घर में फांके हो रहे थे. साथियों ने सलाह दी. कि इसमें से कुछ रकम निकाल कर घर भेज दो. आज़ाद भड़क गए. कहा कि मेरे अकेले के मां बाप तो हैं नहीं. बाकी सबके भी हैं. अगर मेरे मां बाप आजादी के सपने की राह में आते हैं. और सचमुच तुम उनकी सेवा करना चाहते हो. तो लो पिस्टल, उनको गोली मार दो. उनकी सेवा हो जाएगी.
5. और फिर कुर्बानी
सब जानते हैं आज़ाद ने अपने आप को गोली बस इसलिए मारी थी ताकि अंग्रेज उनको जिंदा न पकड़ ले. ब्रिटिशर्स हाथ धो कर उनके पीछे पड़े थे. कई कोशिशें कर चुके थे आज़ाद को पकड़ने के लिए पर सब बेकार. रूप बदलने और चकमा देने में आजाद माहिर तो थे ही. उनकी काबिलियत के किस्से हर घर में बात करने का टॉपिक बना हुआ था.

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काफी मेहनत के बाद वो दिन आया पर अंग्रेज आज़ाद को फिर भी जिंदा नहीं पकड़ पाए. 27 फरवरी 1931 को आज़ाद प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में छिपे थे. मीटिंग के लिए वो अपने बाकी दोस्तों का वेट कर रहे थे. आज़ाद की अपने ही एक साथी से किसी बात को लेकर बहस हो गई थी. इसका बदला लेने के लिए आज़ाद के साथी ने उनसे गद्दारी की और आज़ाद के पार्क में छिपे होने की बात अंग्रेजों को बता दी. इतना काफी था उनके लिए. पूरी फौज ले कर पहुंच गए और बाहर से पार्क को घेर लिया. और दनादन फायरिंग शुरू कर दी. अचानक हुए इस हमले औऱ साथी की गद्दारी दोनों से आज़ाद बेखबर थे. उनके पास एक ही पिस्तौल थी और गिनी हुई गोलियां. वो लड़ते रहे. सिर्फ अंग्रेजों पर गोलियां दागीं ताकि उनके साथी को चोट न पहुंचे और कम गोलियों में अंग्रेजों को ढेर कर सकें. अंत में उनके पिस्तौल में सिर्फ एक गोली बची. जिसे उन्होंने अपने आप को मार ली. और जिंदा न पकड़े जाने की कसम को पूरा किया. जाते-जाते वो एक शेर बोल गए.
दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे,आज़ाद ही रहे हैं, आज़ाद ही रहेंगे.
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