नागालैंड में चल रहे सियासी घमासान के पीछे इस महिला का हाथ है
इन्होंने ही दाखिल की थी महिला आरक्षण के लिए याचिका
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फोटो - thelallantop

रोजमैरी ज़ुविचु
ये है मुद्दा
#1. 1963 में नागालैंड असम से अलग होकर देश का 16वां राज्य बना. राज्य बनाते वक्त देश के संविधान में आर्टिकल 371 A जोड़ा गया. इसमें ये छूट दी गई कि भारत की संसद का कोई ऐसा कानून जो ‘नागा परंपराओं’ के खिलाफ जाता हो, बिना नागालैंड की विधानसभा की मर्ज़ी (बिना संकल्प पारित हुए) के नागालैंड में लागू नहीं होता. ये नियम सिविल और क्रिमिनल दोनों तरह के मसलों से जुड़े हो सकते हैं.
#2. फिर आया 1993. इस साल संविधान में आर्टिकल 243 – T जोड़ा गया. इसके मुताबिक देश भर के म्यूनिसिपल काउंसिल (नागरिक निकाय) के लिए होने वाले चुनावों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण होगा. नागालैंड में वैसे तो मातृसत्ता की परंपरा है, जेंडर जस्टिस को लेकर भी माहौल बाकी देश से बहुत बेहतर है, लेकिन यहां के मर्द औरतों को राजनीति में पसंद नहीं करते. इसलिए आर्टिकल 243 T उनके गले नहीं उतरा.
फिर शुरू हुआ असली कांड
2012 में यहां की विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया, जो महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण के खिलाफ था, लेकिन नागालैंड में नागा मदर्स असोसिएशन (NMA) नाम की संस्था ने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई. वो मामला गुआहाटी हाई कोर्ट ले गए. वहां बात नहीं बनी, तो सुप्रीम कोर्ट तक गए. 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नागालैंड में लोकल बॉडी के लिए होने वाले चुनाव 243 -T के तहत हो सकते हैं.
सरकार को मजबूरी में अपना 2012 वाला प्रस्ताव वापस लेना पड़ा. नागालैंड के सीएम ज़ीलियांग ने कहना शुरू किया कि महिलाओं को आरक्षण देना नागा परंपराओं का उल्लंघन नहीं है क्योंकि म्यूनिसिपल काउंसिल का कांसेप्ट ही नया है. 2017 फरवरी में चुनाव की डेट तय हुई. इससे नागा जनजातियों की पैरेंट बॉडी नागा होहो की टेंशन बढ़ने लगी. धमकी दी गई कि नागालैंड चुनाव होने पर राज्य व्यापी बंद होगा.

टिआर ज़ीलियांग
नागालैंड में चर्च का बहुत जोर है और लोग उनकी सुनते भी हैं. तो 30 जनवरी, 2017 को नगालैंड बैपटिस्ट काउंसिल ने नागालैंड सरकार और ज्वाइंट कोऑर्डिनेशन कमेटी की एक मीटिंग हुई. जिसमें ये तय हुआ कि होहो अपने बंद का फैसला वापस लेगी और सरकार भी चुनाव की डेट आगे बढ़ाएगी. इसके बाद नागालैंड बंद तो नहीं हुआ, मगर एनपीएफ (नागालैंड पीपल्स फ्रंट) अपनी बात से पलट गया. उसने चुनाव करवाने का अपना फैसला जारी रखा. इस पर मामला ठन गया. पार्टी के इस रवैए से नाराज़ जनजातीय लोगों ने नागालैंड में हिंसा शुरू कर दी.

नागालैंड में हो रही हिंसा का एक दृश्य
अब ज़ुविचु का इन सब से क्या लेना-देना?
लेना-देना है. रोजमैरी ज़ुविचु नागालैंड यूनिवर्सिटी में इंग्लिश की प्रोफेसर हैं. सिर्फ आंदोलन के बारे में ही नहीं, बल्कि उसे छेड़ने और जिंदा रखने के बारे में भी वो पढ़ाती हैं. प्रैक्टिकल करके भी दिखाती हैं! ज़ुविचु की जिंदगी में इसकी शुरुआत उनकी शादी के बाद हुई. उनके ससुराल वालों और पति ने उन्हें भी नागा लड़कियों की तरह ही जीने को मजबूर कर दिया. उन्हें घर पर रहकर घर-बार संभालने को कहा जाने लगा. बाहरी काम और अपना जॉब करने से मना कर दिया गया. लेकिन ज़ुविचु को अपने परिवार और पति की ये शर्त मंजूर नहीं थी. तो उनका तलाक हो गया.

प्रोफेसर ज़ुविचु
अपने तलाक़ के बाद वो फ्री होकर महिलाओं के लिए काम करा शुरू कर दिया. उन्होंने नागालैंड की महिलाओं को उनके हक़ के बारे में बताना शुरू किया. समाज में महिलाओं की हालत में बेहतरी उनका पहला ध्येय था. सुप्रीम कोर्ट में महिला आरक्षण के लिए पिटीशन डालना, इस कड़ी में उठा गया उनका कदम था.
नॉर्थ-ईस्ट की महिलाएं
हमारे यहां पर आमतौर पर ये माना जाता है कि नॉर्थ-ईस्टर्न महिलाएं अपनी जिंदगी बड़े आराम से और मन माफ़िक तरीके से गुजारती हैं. कहने का मतलब है कि वहां के पुरुष महिलाओं पर ज़्यादा पाबंदी या रोक-टोक नहीं लगाते, जिससे वो ढंग से, खुल कर बिना किसी प्रेशर के जीती हैं. नागालैंड के 'गारो' और 'खासी' ट्राइब्स में तो मां के वंश से ही समाज चलता है. माने मातृवंशीय है. लेकिन सिर्फ दो ट्राइब्स 8 नॉर्थ-ईस्टर्न राज्यों के चेहरे या प्रतिनिधि नहीं हो सकते. अन्य ट्राइब्स या जनजातियां इसके ठीक विपरीत तरीके से चलती या काम करती हैं.

गारो ट्राइब के लोग
ये बात सही है कि नॉर्थ-ईस्ट बाकी भारत से उलट, मूर्खतापूर्ण रिवाजों से बरी रहा है. वहां पर कभी भी 'दहेज़' या 'सती' जैसी प्रथाओं का चलन नहीं रहा. लेकिन बहुत से रिवाज ऐसे भी हैं, जो उससे ज़्यादा खतरनाक हैं. पितृसत्तात्मकता उसमे से ही एक है. इन क्षेत्रों में परुषों को महिलाओं से ज़्यादा श्रेष्ठ माना जाता है. और ये कोई हवा-हवाई बातें या राकेट साइंस नहीं है. 1963 में असम से अलग होने के बाद से अबतक इस राज्य से सिर्फ एक महिला सांसद चुनी गईं हैं. नागालैंड के इतिहास में उसकी महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व महज एक महिला तक सीमित है. और वो महिला थीं स्व.रानो.एम.शाज़िया, जिन्हें इमरजेंसी के बाद जनता दल के समय में लोक सभा में जगह मिली थी.

नागालैंड की सांसद रानो एम शाज़िया
ज़ुविचु की कोशिशें जारी हैं
नागा समाज के लिए जो कागजों पर लिखा गया है और जो असल में हो रहा है, ज़ुविचु उस अंतर को पाटने के लिए दिन-रात काम कर रही हैं. उनकी जिंदगी पर उनकी दादी ज़ेलिज्हू का बहुत प्रभाव है क्योंकि वो भी अपनी दादी की तरह ही हठी और खुले विचारों वाली हैं. आपको बता दें कि ज़ुविचु की दादी ज़ेलिज्हू नागा राष्ट्रीय काउंसिल की पहली महिला लीडर थीं. ज़ुविचु उन्हें ही अपना आइडल मानती हैं. ज़ुविचु बताती हैं कि उनकी दादी लोकल काउंसिल और नागा पीपल्स फ्रंट की पहली महिला सदस्य थीं. जुविचु ने भले ही राज्य की शांति के लिए अपना पिटीशन वापस ले लिया हो, लेकिन अभी भी वो मैदान में डटी हुई हैं. उन्होंने संकल्प लिया है कि वो इस लड़ाई को उसके अंजाम तक पहुंचा कर ही छोड़ेंगी. चाहे इसके लिए उन्हें अकेले ही क्यों न लड़ना पड़े.
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