सागरमल, जिन्होंने झुलसाती लू में घोली थी क्रांति की आग
जानिए उस क्रांतिवीर की कहानी, जिसने अपनी रियासत और अंग्रेजों से एक साथ की बगावत.
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फोटो - thelallantop
'क्रांति की आंधी न रुकेगी मुगर से सेकेंड की सलाह से शासन गंवाओगे नौ रत्न के पंजों से बचो भूप जवाहर तुम जैसाण के किले पर तिरंगा पाओगे'दरबार के लिए ये खारे आखर अमर शहीद सागरमल गोपा ने कहे थे. गोपा आज ही के दिन यानी 25 मई 1941 को जैसलमेर रियासत द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए थे. सुदूर रेगिस्तान में एक रियासत थी जैसलमेर. केंद्रीय हलचल से कटी हुई. देश पर उस वक्त अंग्रेज जुल्म ढा रहे थे और जैसलमेर पर महारावल जवाहर सिंह के कारिंदे. रियासत में पत्र-पत्रिकाओं के छपने और पढ़ने पर रोक थी. जनता इस निरंकुश शासन से त्रस्त थी. इसी वक्त में रियासत का एक जवान माड़ू शासन के खिलाफ उठ खड़ा हुआ. नाम था सागरमल गोपा. इनका जन्म 3 नवंबर 1900 को एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था. इनके पिता अखेराज गोपा महारावल के दरबार में उच्च पद पर आसीन थे. पर सागरमल तो आजादी के दीवाने थे. भिड़ गए अंग्रेजी शासन और दरबार से. जैसलमेर जो आजादी के इतने सालों बाद आज भी शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है. वहां सागरमल ने सौ साल पहले एक लाइब्रेरी की स्थापना की थी. उस वक्त उनकी उम्र थी 15 साल. सागरमल 1921 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन का हिस्सा भी बने थे और जैसलमेर से उन्होंने इस आंदोलन का हिस्सा बनने का आह्वान किया था. सागरमल ने किताबें भी लिखी.
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जैसलमेर में क्रांति की अलख जगाकर वो अमर शहीद हो गए. इस मृत्यु की जांच करने के लिए एक कमेटी बनाई गई. गोपाल स्वरूप पाठक कमेटी. कमेटी ने उनकी हत्या को आत्महत्या साबित कर दिया. लेकिन क्रांति यहां की झुलसाती लू में घुल चुकी थी. मीठालाल व्यास ने जैसलमेर में 1945 में प्रजामंडल की स्थापना कर दी.इन किताबों ने जैसलमेर रियासत के हुक्मरानों को डरा दिया था. महारावल सागरमल की इन हरकतों से क्रोधित हो गए. सागरमल को तंग किया जाने लगा. इससे परेशान होकर वो नागपुर चले गए. वहां पर रहकर भी उन्होंने संघर्ष जारी रखा. 1941 का साल था. उनके पिताजी का देहांत हो गया. पिंडदान करने के लिए सागरमल को लौटना पड़ा. महारावल उनसे खुन्नस खाए बैठे ही थे. आते ही गिरफ्तार करवा दिया. सागरमल को छह साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई. जेल में सागरमल को अमानवीय यातनाएं दी जाती थी. ऐसी यातनाएं कि सुनकर जी कांप उठे. ये सब कर रहे थे क्रूर थानेदार गुमान सिंह. उन्होंने माफी मंगवाने के सारे जतन कर लिए. लेकिन सागरमल तो आजादी के दीवाने थे. ऐसे ही थोड़े झुक जाते. सहते रहे और लड़ते रहे. उनको ये स्वीकार नहीं था कि सारा देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा है और जैसलमेर गोरों की जी हजूरी करे. जय नारायण व्यास को इन यातनाओं की खबर पहुंची. उन्होंने अपने पॉलिटिकल एजेंट से इसके बारे में जानकारी लेनी चाही. रेजीडेंट का 6 अप्रैल को जैसलमेर जाने का प्रोग्राम बना. रेजीडेंट के पहुंचने से पहले ही 3 अप्रैल को जैसलमेर की गर्म हवाओं में रुदन घुल गया. खबर आई कि सागरमल गोपा ने जेल में आत्महत्या कर ली. पर यह आत्महत्या नहीं थी. वो जिंदा थे. जेल में सागरमल को गर्म तेल डालकर जलाने की कोशिश की गई. किसी को उनसे मिलने नहीं दिया गया. 4 अप्रैल को उनकी दर्दनाक मौत हो गई. 30 मार्च 1949 को वह शुभ दिन था, जब जैसलमेर आजाद भारत का हिस्सा बन गया. भारतीय डाक विभाग ने 1986 में सागरमल गोपा की शहादत को जनमानस की स्मृतियों में जिंदा रखने के लिए उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया.
(ये स्टोरी दी लल्लनटॉप के साथ काम कर रहे सुमेर सिंह राठौड़ ने लिखी है)