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कॉमनवेल्थ की असली कहानी

कॉमनवेल्थ क्या है? और, इसकी अहमियत क्या है?

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What is Commonwealth? And, what is its importance?
कॉमनवेल्थ क्या है? और, इसकी अहमियत क्या है?
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29 जून 2022 (Updated: 29 जून 2022, 23:52 IST)
Updated: 29 जून 2022 23:52 IST
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कॉमनवेल्थ या राष्ट्रमंडल सुनकर सबसे पहले क्या ख़याल आता है? कॉमनवेल्थ गेम्स. भारत में आख़िरी बार 2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन हुआ था. राजधानी दिल्ली में.
कॉमनवेल्थ के बारे में एक सामान्य समझ चलती है. इसे ऐसे देशों का गुट माना जाता है, जो अतीत में ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहे. लेकिन ये पूरा सच नहीं है. कॉमनवेल्थ का हर सदस्य ब्रिटेन का उपनिवेश नहीं था. इसका उलटा भी उतना ही सच है. यानी, ब्रिटेन का हर उपनिवेश कॉमनवेल्थ का सदस्य नहीं है. थोड़ा पेचीदा मामला है. आज के ऐपिसोड में हम इसी पहेली को सुलझाएंगे.

वैसे, आज हम कॉमनवेल्थ की चर्चा कर क्यों रहे हैं? वजह अफ़्रीका से जुड़ी है. अफ़्रीकी महाद्वीप के दो देश, गबॉन और टोगो’ कॉमनवेल्थ का हिस्सा बनने जा रहे हैं. दिलचस्प ये है कि इन दोनों देशों पर ब्रिटेन का शासन कभी नहीं रहा. गबॉन और टोगो, फ़्रांस के उपनिवेश थे. हालिया समय तक यहां पर फ़्रांस का प्रभाव था. ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने फ़्रांस से दूरी बनाने की शुरुआत कर दी है. इसके बारे में विस्तार से समझेंगे.
साथ में जानेंगे,

- कॉमनवेल्थ क्या है? और, इसकी अहमियत क्या है?
- गबॉन और टोगो का औपनिवेशिक इतिहास क्या कहता है?
- और, दोनों देशों ने कॉमनवेल्थ का सदस्य बनने का फ़ैसला क्यों किया?

यूरोप की औपनिवेशिक ताक़तों में ब्रिटेन का किरदार सबसे प्रबल रहा है. 19वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य अपने पीक पर था. दुनिया के 20 प्रतिशत हिस्से पर उसका नियंत्रण था. इसमें भारत, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे बड़े मुल्क़ शामिल थे. इसके अलावा, कई छोटे मुल्क़ ब्रिटेन का शासन झेलने के लिए अभिशप्त थे.

फिर आया साल 1864. उस समय कनाडा अलग-अलग कॉलोनियों में बंटा हुआ था. कनाडा के दक्षिण में है, अमेरिका. उसने पहले ही ब्रिटेन से आज़ादी हासिल कर ली थी. वो मज़बूत स्थिति में था. कनाडा की कॉलोनियों को डर हुआ कि अमेरिका उनके ऊपर हमला कर सकता है. नोवा स्कॉटिया, न्यू ब्रून्सविक और कनाडा साथ मिलकर अपनी सेना बनाना चाहते थे. वे अमेरिका के साथ अपनी शर्तों पर व्यापार भी करना चाहते थे. उन्होंने ब्रिटेन के साथ बातचीत शुरू की. ब्रिटेन को लगा कि अगर शर्त नहीं मानी तो विद्रोह हो सकता है. इससे बचने के लिए एक बीच का रास्ता निकाला गया. जुलाई 1867 में ब्रिटेन ने कॉलोनियों की शर्तें मान ली. लेकिन यूनाइटेड कनाडा को उसने अपना डोमिनियन बना लिया. इससे कनाडा को स्वशासन का अधिकार मिल गया. अब वो अपना हिसाब से कानून बना सकता था. लेकिन ब्रिटिश क्राउन ने अपना वीटो पावर बरकरार रखा था. इन कानूनों को क्राउन की मंज़ूरी ज़रूरी थी. कालांतर में ऑस्ट्रेलिया, न्यू ज़ीलैंड, न्यूफ़ाउंडलैंड, साउथ अफ़्रीका और फ़्री आयरिश स्टेट को भी डोमिनियन का स्टेटस मिला.

हालांकि, ये देश इतने से ही खुश नहीं थे. 1914 में पहला विश्वयुद्ध शुरू हुआ. इसमें डोमिनियन स्टेट्स ने ब्रिटेन की तरफ़ से हिस्सा लिया था. उन्होंने बराबर अनुपात में नुकसान झेला था. विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद उनमें राष्ट्रवाद की भावना पनपी. वे अपने मामलों में कोई बाहरी दखल नहीं चाहते थे.

इस मांग के बीच अक्टूबर 1926 में लंदन में इम्पीरियल कॉन्फ़्रेंस शुरू हुई. इन मीटिंग्स में डोमिनियन स्टेट्स के प्रधानमंत्री हिस्सा लिया करते थे. आर्थर बाल्फ़ोर लॉर्ड प्रेसिडेंट ऑफ़ काउंसिल थे. इस नाते प्रिवी काउंसिल की मीटिंग्स की अध्यक्षता की ज़िम्मेदारी उनकी थी. 1926 की मीटिंग में डोमिनियन स्टेट्स को और अधिकार देने का फ़ैसला लिया गया. उनके बीच इस बात पर सहमति बनी कि सभी देश एक बराबर होंगे. वे अपने मसलों पर फ़ैसला लेने के लिए आज़ाद होंगे. बस वे ब्रिटिश क्राउन के प्रति वफ़ादार बने रहेंगे. चूंकि ये निर्णय आर्थर बाल्फ़ोर के नेतृत्व में हुई बैठक में लिया गया था. इसी वजह से इसे बाल्फ़ोर डिक्लैरेशन के नाम से भी जाना जाता है. 1931 में बाल्फ़ोर डिक्लैरेशन को औपचारिकता का अमलीजामा पहना दिया गया. इसी साल ‘ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ऑफ़ नेशंस’ की आधिकारिक तौर पर स्थापना हुई.

एक तथ्य और. भारत भी 1926 वाली मीटिंग का हिस्सा था. लेकिन उसने समझौते पर दस्तख़त नहीं किए. दरअसल, भारत में पूर्ण आज़ादी का आंदोलन चल रहा था. भारत किसी भी तरह से ब्रिटेन का दखल नहीं चाहता था. इसलिए, उसने ख़ुद को इससे दूर रखा.

15 अगस्त 1947 को भारत पूरी तरह आज़ाद हो गया. उसने राजशाही की बजाय गणतंत्र का रास्ता चुना. भारत ब्रिटिश क्राउन को कॉमनवेल्थ का प्रेसिडेंट मानने के लिए तैयार था. लेकिन हेड ऑफ़ द स्टेट के तौर नहीं. उस समय भारत के प्रधानमंत्री थे, पंडित जवाहरलाल नेहरू. उन्होंने संसद में दिए भाषण में कहा,

“आज के समय में दुनिया में हर तरफ़ विनाश का काम हो रहा है. हम हर समय युद्ध के करीब पहुंच रहे हैं. जो सामूहिकता पहले से चली आ रही है, उसे तोड़ना मेरे ख़याल से ठीक नहीं होगा.”

पंडित जवाहरलाल नेहरू (AFP)

भारत अपनी शर्तों पर कॉमनवेल्थ का हिस्सा बनना चाहता था. 1949 में उसकी शर्त मान ली गई. सदस्य देशों ने लंदन डिक्लैरेशन पर दस्तख़त किए. इसके तहत, पाकिस्तान, भारत और सीलोन, जिसे अब श्रीलंका के नाम से जाना जाता है, को आज़ाद और बराबरी के सदस्य के तौर पर स्वीकार कर लिया गया. नए सदस्यों के शामिल होते ही ‘ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ऑफ़ नेशंस’ से ब्रिटिश शब्द हटा लिया गया. इस तरह कॉमनवेल्थ ऑफ़ नेशंस या कॉमनवेल्थ की स्थापना हुई.

इस बदलाव ने नए सदस्यों की एंट्री को और आसान बना दिया. अब वे ब्रिटिश क्राउन के प्रति निष्ठा की शपथ लिए बिना भी कॉमनवेल्थ का हिस्सा बन सकते थे.
सेकेंड वर्ल्ड वॉर खत्म होने के बाद ब्रिटेन की कॉलोनियों में आज़ादी की मांग ज़ोर पकड़ने लगी थी. ब्रिटेन की अपनी स्थिति भी कमज़ोर हो रही थी. वो देश से बाहर शासन चलाने में सक्षम नहीं रह गया था. इसके चलते उसके हाथ से देश एक-एक कर बाहर निकलने लगे. हालांकि, आज़ादी मिलने के बाद भी उन्होंने ब्रिटेन का साथ पूरी तरह नहीं छोड़ा. वे कॉमनवेल्थ का हिस्सा बन गए.

फिलहाल क्या स्थिति है?

- वर्तमान में 54 देश कॉमनवेल्थ के सदस्य हैं. टोगो और गबॉन के आने के बाद ये संख्या 56 हो जाएगी. इन देशों की कुल आबादी ढाई करोड़ से अधिक है. यानी दुनिया की आबादी का लगभग 30 प्रतिशत.
- कॉमनवेल्थ के सदस्य देशों की कुल जीडीपी 10 ट्रिलियन डॉलर है. ये दुनिया की कुल जीडीपी का लगभग 14 प्रतिशत है. ब्रिटेन और भारत के पास इसका आधा हिस्सा है.
- कुल 15 देशों में ब्रिटिश क्राउन को हेड ऑफ़ द स्टेट का दर्ज़ा मिला है. इनमें ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देश भी हैं. 05 देशों के पास अपना राजतंत्र है. जबकि 36 देशों में गणतंत्र है.

कॉमनवेल्थ की अहमियत क्या है?

कॉमनवेल्थ का स्वरूप बाकी अंतरराष्ट्रीय संगठनों से काफ़ी अलग है. ये सदस्य देशों के बीच आर्थिक विकास, लोकतंत्र, फ़्री ट्रेड, ग़रीबी और हेल्थ से जुड़ी योजनाओं को बढ़ावा देता है. समय के साथ कॉमनवेल्थ की उपयोगिता पर सवाल उठाए जाते रहे हैं. संगठन के ऊपर सदस्य देशों में मानवाधिकार उल्लंघन को दरकिनार करने के आरोप भी लगते हैं. इसके बावजूद इसने अपना अस्तित्व बचाए रखा है.

कॉमनवेल्थ का मुख्यालय लंदन में है. रूटीन काम सेक्रेटरी-जनरल के जिम्मे होता है. इन्हें कॉमनवेल्थ देशों के नेताओं के द्वारा दो साल के लिए अपॉइंट किया जाता है.

कॉमनवेल्थ की सबसे बड़ी बॉडी है, द कॉमनवेल्थ हेड्स ऑफ़ गवर्नमेंट मीटिंग (CHOGM). इसकी हर दो साल पर मीटिंग होती है. इसमें संगठन से जुड़े सभी अहम फ़ैसलों पर चर्चा होती है. इस बार की बैठक रवांडा में 22 से 25 जून के बीच हुई. भारत की तरफ़ से विदेशमंत्री एस. जयशंकर ने इसमें हिस्सा लिया.

कॉमनवेल्थ हर चार साल पर सदस्य देशों के खिलाड़ियों के बीच गेम्स का आयोजन भी करता है. इस साल का आयोजन बर्मिंघम में होना है.

अब गबॉन और टोगो की सदस्यता के बारे में जान लेते हैं.
गबॉन और टोगो, दोनों कभी ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन नहीं रहे. उनके ऊपर फ़्रांस का शासन था. इससे पहले 1995 में मोज़ाम्बिक़ और 2009 में रवांडा ने कॉमनवेल्थ की सदस्यता ली थी. मोज़ाम्बिक़ में पुर्तगाल की कॉलोनी थी, जबकि रवांडा पर पहले जर्मनी और बाद में बेल्जियम ने शासन किया था.

सवाल ये आता है कि दोनों देशों ने कॉमनवेल्थ की सदस्यता क्यों ली?
दरअसल, गबॉन और टोगो में लंबे समय से फ़्रांस के ख़िलाफ़ माहौल बन रहा है. अफ़्रीका के साहेल में फ़्रांसीसी सैनिकों की मौजूदगी के ख़िलाफ़ भी प्रदर्शन चल रहे हैं. उनके लिए कॉमनवेल्थ एक विकल्प की तरह उभरा है.

अगर विकास के पैमाने पर देखें तो दोनों देशों के सामने रवांडा का उदाहरण है. सदस्यता लेने के 13 सालों के भीतर ही रवांडा को कॉमनवेल्थ समिट होस्ट करने का मौका मिला है. यहां पर एक विडंबना भी सामने आती है. कॉमनवेल्थ का सदस्य बनने के लिए डेमोक्रेसी सबसे बड़ी शर्त है. रवांडा में पिछले 22 सालों से पॉल कगामी का शासन है. उनके ऊपर तानाशाही बरतने के आरोप लगते हैं. इसके बावजूद कॉमनवेल्थ उन्हें नज़रअंदाज़ करता आता है. गबॉन और टोगो में भी तानाशाही शासन का लंबा इतिहास रहा है. क्या कॉमनवेल्थ और गबॉन और टोगो एक-दूसरे की अपेक्षाओं पर खरे उतर पाएंगे, ये देखने वाली बात होगी.

अब सुर्खियों की बारी.

पहली सुर्खी नेटो से है. तुर्किए ने फ़िनलैंड और स्वीडन पर लगाया वीटो हटा लिया है. दरअसल, फ़िनलैंड और स्वीडन नेटो का हिस्सा बनना चाहते हैं. इसके लिए सभी मौजूदा सदस्यों का अप्रूवल ज़रूरी है. नेटो में फिलहाल 30 देश हैं. बाकी देश तो रज़ामंद हो गए, लेकिन तुर्किए ने उनकी सदस्यता का विरोध किया. उसका कहना था कि दोनों देश तुर्किए के दुश्मनों को अपने यहां पनाह दे रहे हैं. इससे हमारी सुरक्षा को ख़तरा है. नेटो में शामिल करने का मतलब ये होगा कि हम अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता कर रहे हैं.

तुर्किए के विरोध के बाद समझाइश शुरू हुई. एक हफ़्ते तक रुठने-मनाने का दौर चलता रहा. आख़िरकार, 28 जून को तीनों देशों का समझौता हो गया. तुर्किए का दावा है कि उसने अपनी सभी शर्तें मनवा लीं है. समझौते के मुताबिक,

- फ़िनलैंड और स्वीडन तुर्किए को हथियार बेचने पर लगाया एम्बार्गो हटा लेंगे. अब तुर्किए इन देशों से हथियार खरीद सकेगा.

- दोनों देश कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (PKK) और पीपुल्स डिफ़ेंस यूनिट (YPG) से सपोर्ट हटा लेंगे. तुर्किए ने PKK और YPG को आतंकी संगठनों की लिस्ट में रखा है. स्वीडन में एक लाख से अधिक कुर्द शरणार्थी रहते हैं. तुर्किए का कहना है कि जो लोग PKK या YPG से जुड़े हैं, उन्हें हमारे हवाले किया जाए. स्वीडन और फ़िनलैंड ऐसे लोगों के प्रत्यर्पण के लिए भी तैयार हैं.

- दोनों देश आतंकवाद से जुड़े कानूनों में बदलाव करेंगे.

- स्वीडन, फ़िनलैंड और तुर्किए एक-दूसरे के साथ खुफिया जानकारियां साझा करने के लिए भी राज़ी हैं.

- तीनों देश मिलकर जस्टिस, सिक्योरिटी और इंटेलिजेंस पर साझा मैकेनिज़्म बनाएंगे.

- इसके अलावा, फ़िनलैंड और स्वीडन यूरोपियन यूनियन में तुर्किए के लिए लॉबिंग करेंगे.

ये तो हुई शर्तें, स्वीडन और फ़िनलैंड कब तक नेटो के सदस्य बन जाएंगे? और, इससे जियो-पॉलिटिक्स पर क्या असर पडे़गा?

29 जून को स्पेन की राजधानी मैड्रिड में नेटो की बैठक शुरू हुई. इसमें आधिकारिक तौर पर स्वीडन और फ़िनलैंड को सदस्य बनने का इन्विटेशन दिया जाएगा. इसके बाद दोनों देश नेटो में मिलने के लिए समझौते पर दस्तख़त करेंगे. अब से नेटो में सिर्फ़ यूरोप के देशों को ही सदस्यता मिल सकती है. इसके अलावा, नए आवेदक देश को हरेक मौजूद सदस्य की हामी ज़रूरी है. स्वीडन और फ़िनलैंड ने दोनों अहर्ताएं पूरी कर लीं है. अब बस कागज़ी कार्रवाई बाकी रह गई है. इसके लिए कोई समयसीमा निर्धारित नहीं है. जितनी जल्दी दोनों देश नेटो की बाकी शर्तें पूरी कर देंगे, उतनी जल्दी उन्हें सदस्य बना लिया जाएगा.

स्पेन की राजधानी मैड्रिड में नेटो की बैठक (AP)
नए मेंबर्स को जोड़ने से असर क्या पड़ेगा?

जानकारों की मानें तो नेटो रूस को सबसे बड़े ख़तरे के तौर पर देख रहा है. फ़िनलैंड और स्वीडन अभी तक न्यूट्रल थे. लेकिन हालिया रूस-यूक्रेन के बाद से उनका मन बदल गया. फ़िनलैंड की 13 सौ किलोमीटर लंबी सीमा रूस से लगती है. फ़िनलैंड के बगल में स्वीडन है. रूस ने धमकी दी थी कि अगर इन्होंने अपनी न्यूट्रल स्थिति छोड़ी तो अंज़ाम बुरा होगा. हमले की आशंका के बीच दोनों देशों ने नेटो में शामिल होने का फ़ैसला किया है. इससे नेटो रूस की पश्चिमी सीमा पर अपना नियंत्रण बढ़ा सकता है. ये रूस के लिए बड़ी चुनौती बनेगा.

दूसरी सुर्खी सिविल वॉर से जुड़ी है. दो अपडेट्स हैं.

- पहली का संबंध सीरिया से है. यूनाइटेड नेशंस ने सीरिया के सिविल वॉर पर एक रिपोर्ट पब्लिश की है. रिपोर्ट के मुताबिक, सीरिया के सिविल वॉर में पिछले 10 सालों में तीन लाख से अधिक आम नागरिकों की जान गई है. ये सीरिया की कुल आबादी का डेढ़ प्रतिशत है. अगर औसत निकाला जाए तो हर दिन 83 लोगों की हत्या हुई है. इनमें से 18 बच्चे थे. ये आंकड़ा मार्च 2021 तक का है. सिविल वॉर अभी भी चल रहा है. रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ये आंकड़ा काफ़ी ऊपर जा सकता है. क्योंकि इसमें सिर्फ़ उन मौतों को शामिल किया गया है, जिसमें सीधे तौर पर युद्ध की वजह से हुई. मसलन, हवाई हमले, मुठभेड़, टॉर्चर आदि. सिविल वॉर के कारण सीरिया के लोगों तक बुनियादी चीज़ें नहीं पहुंच रहीं हैं. भुखमरी, अस्पताल की कमी, प्रदूषण जैसी समस्याओं के कारण हुई मौतों को यूएन ने अपनी रिपोर्ट में शामिल नहीं किया है. इसके अलावा, नॉन-सिविलियन मौतों को भी गिनती से अलग रखा गया है. ये आंकड़े सिविल वॉर की भयानकता की गवाही देते हैं.

- दूसरी अपडेट कोलोंबिया से है. ट्रूथ कमीशन ने कोलोंबिया के सिविल वॉर पर अपनी फ़ाइनल रिपोर्ट पेश कर दी है. रिपोर्ट में क्या है, ये आगे बताएंगे. पहले सिविल वॉर का इतिहास जान लेते हैं. कोलोंबिया में 1964 के साल में हिंसक मार्क्सवादी आंदोलन शुरू हुआ. इसका नेतृत्व रेवॉल्युशनरी आर्म्ड फ़ोर्सेस ऑफ़ कोलोंबिया (FARC) के हाथों में था. धीरे-धीरे ये आंदोलन पूरे देश में फैल गया. 1990 के दशक में इसमें ड्रग गैंग्स और हथियारबंद गिरोहों की एंट्री हुई. इसके चलते माहौल और बिगड़ा. 2016 में FARC और सरकार ने आपस में शांति समझौता कर लिया. इसी डील के तहत ट्रूथ कमीशन का गठन किया गया. इसको सिविल वॉर के दौरान हुए मानवाधिकार उल्लंघन की पड़ताल का काम सौंपा गया था. कमीशन ने छह बरस में 14 हज़ार से अधिक पीड़ितों, मिलिटरी ऑफ़िसर्स और पूर्व लड़ाकों से बात की. अब उनकी रिपोर्ट पूरी हो गई है. इसके मुताबिक, कोलोंबिया के सिविल वॉर में साढ़े चार लाख लोगों की जान जा चुकी है. 

1985 से 2018 के बीच एक लाख बीस हज़ार से अधिक लोग गुमशुदा हो गए. 50 हज़ार से अधिक लोगों का अपहरण किया गया. इसके अलावा, 77 लाख से अधिक लोग विस्थापन का शिकार हुए.
कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में 2016 की पीस डील को पूरी तरह लागू करने और बचे-खुचे विद्रोही गुटों से बातचीत की सिफ़ारिश की है. कोलोंबिया के अगले राष्ट्रपति गुस्ताव पेत्रो भी एक समय तक M-19 नामक विद्रोही गुट का हिस्सा थे. M-19 ने बाद में हथियार डाल दिए थे. उसके बाद ही पेत्रो राजनीति में आए थे. रिपोर्ट जारी किए जाने के समय पेत्रो भी मौजूद थे. कहा जा रहा है कि उनकी सरकार कमीशन की सलाहों को गंभीरता से लेगी. ये कोलोंबिया में शांति के लिए बेहद ज़रूरी है.

आज की तीसरी और अंतिम सुर्खी फ़िलिपींस से है. फ़िलिपींस की सरकार ने न्यूज़ साइट रैपलर को बंद करने का आदेश दिया है. ये आदेश 28 जून को आया. 29 जून को मौजूदा राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतर्ते का कार्यकाल खत्म हो रहा है. रैपलर ने दुतर्ते के वॉर ऑन ड्रग्स में मारे गए बेगुनाह नागरिकों के हक़ में ज़रूरी रिपोर्ट्स छापीं थी. उनके काम के लिए 2021 में रैपलर की को-फ़ाउंडर मारिया रेसा को नोबेल पीस प्राइज़ दिया गया था. जब मारिया को प्राइज़ मिला, तब दुतर्ते ने उन्हें बधाई भी दी थी. रेसा को नोबेल रूसी पत्रकार दमित्री मुराटोव के साथ संयुक्त मिला था. दिलचस्प ये है कि दोनों को अपनी-अपनी सरकार का विरोध झेलना पड़ा है. मुराटोव का अख़बार नोवाया गज़ेटा रूस में बंद किया जा चुका है. जबकि मारिया रेसा के सामने शटडाउन का आदेश रखा हुआ है.
आदेश आने के बाद उन्होंने कहा कि उनका संस्थान काम करता रहेगा. वो इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करेंगी. रैपलर पर विदेशी स्वामित्व में हेराफ़ेरी का आरोप है. संस्थान का कहना है कि उनके ख़िलाफ़ साज़िश रची जा रही है.

जहां तक रैपलर की बात है. इसका शाब्दिक अर्थ होता है, चर्चा के ज़रिए बदलाव का रास्ता तैयार करना. रैपलर की स्थापना 2012 में हुई थी. 2016 में दुतर्ते राष्ट्रपति बने. कार्यकाल की शुरुआत में ही उन्होंने वॉर ऑन ड्रग्स शुरू किया. इस ऑपरेशन के दौरान बड़ी संख्या में लोग गायब हो गए. इसमें सरकार के विरोधियों को भी निशाना बनाया गया. रैपलर ने इन्हीं घटनाओं का सच उजागर किया. उन्होंने दुतर्ते के भ्रष्टाचार का भी खुलासा किया. दुतर्ते इससे नाराज़ रहने लगे. उन्होंने रैपलर को फ़ेक वेबसाइट तक बता दिया. आरोप ये भी लगे कि रैपलर का मालिकाना हक़ विदेशियों के पास है. फ़िलिपींस के संविधान के मुताबिक, स्थानीय मीडिया में सिर्फ़ फ़िलिपींस मूल के लोग या उनके द्वारा संचालित कंपनियां ही निवेश कर सकतीं है.

शटडाउन के आदेश के बाद अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने सरकार से आदेश वापस लेने की अपील की है. 30 जून को फ़िलिपींस में सरकार बदल रही है. पूर्व तानाशाह फर्डीनेण्ड मार्कोस का बेटा मार्कोस जूनियर राष्ट्रपति बनेगा. जबकि दुतर्ते की बेटी सारा दुतर्ते उपराष्ट्रपति बनेगी. जानकारों का कहना है कि ऐसी स्थिति में रैपलर को राहत मिलने की संभावना कम ही है.

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