रामकिशन ग्रेवाल. बहादुर हिंदुस्तानी फौज का सिपाही. मगर उन्होंने 2 नवंबर 2016 को जो किया, वो बहादुरी नहीं कहलाएगा. आत्महत्या बहादुरी नहीं है. हालात कितने भी खराब क्यों न हों. और इसलिए रामकिशन ग्रेवाल शहीद नहीं हैं. उन्हें शहीद कहना इस शब्द के मायने बदलना है. आत्महत्या के मुझे कुछ ही मौके याद आते हैं, जिन्हें शहादत की श्रेणी में रखा जा सकता है. अंग्रेजों की जेल में यतीन्द्रनाथ दास की भूख हड़ताल. भगत सिंह का लाहौर असेंबली में बम फेंकने के बाद भी न भागना. इस तरह से अपनी मौत को चुनना शहादत है. क्योंकि मकसद बहुत बड़ा था. जहां अपनी जान से ज्यादा वो कॉज महत्वपूर्ण था, जिसे पूरा करने की जीवन में हसरत थी.
तो क्या ग्रेवाल की मौत जाया हो गई. नहीं. नरेंद्र मोदी सरकार उनकी मौत के इल्जाम से बरी नहीं हो सकती. उनके समर्थक कांग्रेस राज की दुहाई देना बंद करें. मुल्क उनसे परेशान था. बेतरह. इसीलिए आपको चुना. आपने चुनाव से पहले रेवाड़ी रैली में ओआरओपी देने का वादा किया था. तमाम किंतु परंतु के बाद दिया. मगर वैसे नहीं दिया, जैसे सिपाही मांग रहे थे. जैसे जायज था. कमीशंड अफसरों को तो आपने ओआरओपी दिया ही नहीं. जवान-अफसर अब भी संघर्ष कर रहे हैं. ये देश उनके लिए दिया तो जला रहा है, मगर इस दिए से सिपाहियों के घर का ईंधन नहीं आता. जनमत का दबाव हो तो सरकार 24 घंटे भी न ले आदेश पास करने में. सरकार को हर हाल में ओआरओपी पर फाइनल फैसला करना होगा. अभी करना होगा. ब्यूरोक्रेसी में चीजें बहुत उलझी हैं. प्रधानमंत्री जी. आपने हम युवाओं से वादा किया था. लाल फीताशाही से मुक्ति दिलाऊंगा. दिलवाइए न.
रही विपक्ष की बात. तो राजनीति है. वो कोई भी मौका क्यों जाने दें. मां अकसर एक कहावत दोहराती है. न उनमें कछू आओ, न इनमें कछू गओ. जब जिसको मौका मिलता है, जो प्रतिपक्ष में होता है, यही करता है. जब आम आदमी पार्टी की रैली में किसान गजेंद्र मरा था, तब केजरीवाल को भी यूं ही घेरा गया था. आशुतोष टीवी पर रोए थे. केजरीवाल की अच्छी याद आई. मिस्टर क्लीन. ये क्या पॉलिटिक्स है आपकी. नए किस्म की. 1 करोड़ रुपए दे आए. शहीद बता दिया. ये शहीद हैं तो अब्दुल हमीद और मेजर शैतान सिंह क्या थे. कैप्टन बत्रा क्या थे. बाटला हाउस एनकाउंटर में शहीद होने वाले मोहन चंद्र शर्मा को किस कैटिगरी में रखेंगे फिर आप.
इस देश की दिक्कत यही हो गई है. कोई मरता है तो उसकी बैकग्राउंड, उससे होने वाले फायदों के हिसाब से मातम मनाया जाता है. कुछ महीनों पहले हैदराबाद यूनिवर्सिटी में एक स्टूडेंट मरा. रोहित वेमुला. उसे शहीद कह दिया गया. आदर्श बता दिया गया. माफ कीजिए. हालात कितने भी खराब हों, आत्महत्या करने वाले को मैं अपना आदर्श और शहीद नहीं मान सकता. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर से ज्यादा हालात बुरे थे क्या. माता सावित्री बाई फुले से ज्यादा बेइज्जती हुई थी क्या. रोहित वेमुला परेशान था. गरीब था. संस्था का सताया हुआ था. उसके परिवार के साथ सहानुभूति है. मगर मैं किसी बच्चे को उसके जैसा करने की सलाह नहीं दे सकता. वो आदर्श नहीं हो सकता. वो एक उदाहरण है. कि कैसे सही सिस्टम, सही सुनवाई न होने के चलते एक संभावनाओं से भरा वैज्ञानिक देश को नहीं मिल पाया. उसकी मौत के बहाने यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में दलितों के साथ, बल्कि किसी भी जाति के छात्र के साथ हो रहे उत्पीड़न की सही सुनवाई न होने पर विचार होना चाहिए. रोहित की मौत के बाद इस पर भी बहस होनी चाहिए कि जाति कैसे तय हो. सवाल जाति का नहीं है. सवाल छात्र का है. हर छात्र इस देश के लिए एक संपदा है.
मगर सबकी सियासत. किसी के लिए रोहित वेमुला दलित नहीं है. यही मेन तर्क है. किसी के लिए रोहित दलित है और उसकी मौत के लिए मोदी जिम्मेदार हैं, इतना ही काफी है. सवाल ये है कि रामकिशन या रोहित वेमुला की मौत के बाद सरकार और समाज कैसे रिएक्ट करता है. कुछ मोमबत्तियां, बयान, टीवी बहसें और भावुक अपीलों से क्या होगा. पॉलिटिक्स होगी. करिए. टीवी कैमरे आपके पीछे भागेंगे. आपको फुटेज मिलेगी. तीन दिन बाद फिर कोई नया वीडियो आ जाएगा. सब भूल जाएंगे.
ये मुल्क भूलता बहुत है. सेल्फी एज है. अपनी शकल न भूल जाए, इसलिए तस्वीरें खींचता है. जगह बाद में देखता है. सेल्फी से याद आया नरेंद्र मोदी जी. कल आप रामनाथ गोयनका अवॉर्ड में गए थे. वहां इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर राजकमल झा ने एक मार्के की बात कही. जर्नलिस्ट वही दुरुस्त है, जिससे सत्ता प्रतिष्ठान डरे. ज्ञान को हमेशा सत्ता से एक हाथ दूर खड़ा होना चाहिए. जब संत की खड़ाऊं राजप्रसाद में आए तो सोने के सिंहासन पर बैठा राजा सचेष्ट हो जाए.
पर हो क्या रहा है. जर्नलिस्ट बड़े लोगों के साथ सेल्फी में मगन है. सेल्फिश होना है ये. आपको लोग सेल्फी के लिए बहुत चिढ़ाते हैं. मुझे फोटो खिंचवाने में कुछ गलत नहीं लगता. लोग लालायित हैं आपके साथ फ्रेम में आने के लिए. पर कुछ लोग सर कैमरे से दूर भी हैं. उन्हें भी आपसे बहुत आस है. नेताओं की छोड़िए. विरोधियों पर ध्यान मत दीजिए. मगर जिस सामान्य मानवी का आप रात दिन जिक्र करते हैं, उसकी मौत को यूं जाया मत होने दीजिए.