मेरे झूठे तज़्किरे - जुहू का किनारा, पंचम, मैं और शैलेन्द्र
मैं समंदर, चांद, पंचम और रह रहकर शैलेन्द्र को देख रहा था.


तारीख़ से मेरा तअल्लुक़ कड़वा सा ही रहा है. ना मैंने उसे कभी याद रखा, ना उसने मुझे. इन्हीं भूली तारीखों में भटका हुआ मैं, आपको इनसे जुड़े कुछ तज़्किरों से रूबरू करवाता हूँ. तज़्किरा अरबी में आत्मकथात्मक संस्मरण को कहा जाता है. अब कहने को तो मैं संस्मरण भी कह देता लेकिन मेरा बेचारा कमज़ोर संस्मरण, हिन्दी की किसी ना किसी नुक्ताचीं आँख से कुचला जाता. सो मैंने सोचा संस्कृत को सर पे बिठाने वाले अनपढ़, इस अरबी लफ्ज़ को सीने तक को चढ़ा ही लेंगे. संस्कृत का ख़ौफ़ बड़बड़ा के पंडितों ने सदियों लूटा, तो मैं अरबी के एक लफ़्ज़ के सहारे चंद दिन कुछ मोहब्बत नहीं लूट सकता? तो पेश-ए-ख़िदमत हैं, झूठी यादों और सच्चे ख्यालों के दो सिरे, "मेरे झूठे तज़्किरे"
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ज़ोर बहुत डालता हूँ दिमाग पर, लेकिन ना तारीख़ याद आती है और ना महीना. रह-रह के कुछ याद आता है तो बॉम्बे में मेरा मुश्किलों भरा दशक - 1950. वो दिन और उस जादुई किस्से की याद. बहुत उमस भरा दिन था वो. हवा, सड़क के बीचोंबीच बैठी गाय जैसी हो गई थी. चलने का नाम ही नहीं ले रही थी और मैं था कि मेरे पास चलने के सिवाय कोई और चारा ही नहीं था. जब से फ़िल्म राइटर बनने के लिए बंबई में कदम रखा था, जेब धीरे-धीरे अपना अपना अस्तित्व खोते जा रही थी. जब कभी जेब में हाथ डालता, तो समझ नहीं आता कि मेरी जेब छोटी हो रही है या हथेली बड़ी होती जा रही है. बमुश्किल जो इस मरमुई से निकलता उससे कुछ चने ख़रीद लेता, और उन्हें फाँकते हुए इसे फिर से गरम करने का तरीका खोजने निकल पड़ता. घर था जो मुझे बार-बार बुलाता था और याद दिलाता था कि इतनी दूर मैं क्या काम करनेको आया था. मैं फिर से दम भर के लग जाता लेकिन स्टूडियो के दरवाज़े थे, जो कभी मेरे लिए खुलते नहीं थे और मेरा पेट था जो बिना नागा भूख़ का हर्जाना माँगता था. उस दिन शाम के तकरीबन 6 बजे थे. मैं जुहू चौपाटी के सामने पहुँच चुका था. चना जोर गरम की ख़ुश्बू ऐसा नारा लगा रही थी कि पेट को रह-रह के नेहरू का समाजवाद याद आ रहा था. कोई भला मानस मिले तो कुछ भूख़ मिटे. अब चलना तो मुमकिन नहीं था. मैं जाकर ठंडी सी रेत पर बैठ गया. बैठ गया से मेरा मतलब लेट गया, यानि कि पसर गया या कह लीजिए कि थोड़े वक़्त के लिए मर गया. मरने के बाद सपने में मैंने देखा कि हवा ने, हल चलाकर आसमान को बिलकुल सपाट कर दिया है. सितारों के दाने छिड़क दिए गए हैं और बस अभी चारों तरफ़ चाँद की रोटियाँ उग आएंगी. तभी मेरे कूल्हे पर लात पड़ी और मैं पछाड़ खा कर जागा. मैंने देखा काफ़ी रात हो चुकी थी और एक हवलदार मेरे सर के ऊपर खड़ा था. मैं उसको टकटकी लगाए देखता रहा. हवलदार आँखों को गेट वे ऑफ़ इण्डिया से भी ज़्यादा चौड़ी कर के बोला, "क्या!" "क्या हुआ?" मैंने बड़े डरे हुए स्वर में पूछा. "दारु पी है?" "नहीं साहब." "झूठ बोलता है?" "साहब रोटी के लिए पैसा नहीं है, दारु के लिए कहाँ से आएगा? यकीन नहीं आए तो सूंघ के देख लो." मैं अब तक अपनी जगह पर ही पड़ा हुआ था. "तो क्यूँ पड़ा था यहाँ पर?" "बैठे-बैठे नींद लग गई तो सो गया" "ये चौपाटी तेरे बाप की है, जो बीचोबीच टाँग फैला के सो रहा है?" हवलदार इतनी ऊँची आवाज़ में बोला कि मेरे जैसे बेइज़्ज़त आदमी को भी इज़्ज़त की फ़िक्र होने लगी. मेरे तो होंठ ही ना खुले, खड़ा हुआ, बदन झाड़ा और वहाँ से निकलने लगा. तभी पीछे से एक आवाज़ आई. "रुको!" मुड़ के देखा तो एक दुबला पतला सा, गहरे साँवले रंग का आदमी, हाथ में गोल्ड फ्लेक का डब्बा लिए सिगरेट फूँकते हुए मेरी तरफ़ आ रहा था. उसके साथ एक गोल मटोल सा जवान लड़का भी था. आदमी मेरे पास आया और आते ही मेरे कंधे पे हाथ रख के हवलदार से बोला "किसके बाप की है ये चौपाटी?" हवलदार को इस सवाल की उम्मीद नहीं थी. उसे लगा सामने खड़ा ये कमज़ोर सा आदमी कोई तो है। फिर भी ठसक के उसने जवाब दिया। "सरकार की है." "सरकार किसकी माई-बाप है?" आदमी ने पूछा "जनता की." हकलाते हुए हवलदार बोला. "ये आदमी क्या तुम्हे कहीं का राजा लग रहा है?" हवलदार चुप. "अपने माई-बाप की ज़मीन पे नहीं सोएगा, तो क्या सोवियत रूस जाएगा समाजवाद की तलाश में?" "भाषण तो ऐसे दे रहे हो जैसे पंडित नेहरू हो." "नहीं - नहीं! बन्दा तो दो टके का लेख़क है." "अच्छा! बेरोज़गार-बेरोज़गार मौसेरे भाई." "आपको पता है आप किस से बात कर रहे हैं?" गोल मटोल से चेहरे वाला लड़का तैश में बोला "कौन है ये?" "ज़रुरत ना पड़े तो कोई नहीं." आदमी बुदबुदाया. "शैलेन्द्र दा! आप क्यूँ इसके मुँह लग रहे हैं?" लड़का धीमे से बोला. "कौन? शैलेन्द्र? गीत...गीतकार शैलेन्द्र?" हवलदार अटक-अटक के बोला. "जी हाँ." लड़का ठसक से बोला. "अरे! बहुत बड़ी ग़लती हो गई हजूर." हवलदार गिड़गिड़ाया. "हजूर कह के गाली मत दो भाई, गले लग के इस भले आदमी से माफ़ी माँग लो." शैलेन्द्र सिगरेट का कश लेता हुआ तंज़ में बोले. मैं बातचीत की शुरुआत से लेकर अब तक सन्न था. सबकुछ किसी किस्से की तरह मेरे सामने घट रहा था. हवलदार मेरे गले लगा और शैलेन्द्र से हाथ मिला के जाने लगा. तभी उसे कुछ सूझा और अपनी जेब से एक रुपए का नोट निकाल के उसने उस पर शैलेन्द्र से दस्तख़त करने की दरख़्वास्त की. नोट अपने हाथ में लेकर शैलेन्द्र ने उसे घूर के देखा. "इसकी क़ीमत जानते हो?" शैलेन्द्र कुछ रूखेपन से बोले. "जी!" हवलदार को लगा, उससे फिर कोई ग़लती हो गई है. "मेरे दस्तख़त के बाद ये महज़ एक काग़ज़ का टुकड़ा रह जाएगा." रूखापन ज़रा गर्म हो चुका था. "क्या बात कर रहें हैं आप? इसकी कीमत बढ़ जाएगी अगर आप इस पर दस्तख़त कर दें." हवालदार मुस्कुराया जैसे उसने कोई सही बात कह दी हो. "इसे किसी ज़रूरतमंद को दे दीजिएगा. मैं आपके लिए इस कागज़ को ज़ाया कर देता हूँ." शैलेन्द्र ने अपनी डायरी के एक कागज़ पर एक ख़ूबसूरत दस्तख़त किया और हवलदार को नोट के साथ दे दिया. हवलदार मुस्कुराते हुए, बिना कुछ बोले वहाँ से चल दिया. मैं अभी भी वहीं का वहीं आधा जागा, आधा सोया खड़ा था. शैलेन्द्र मेरी तरफ़ मुड़े. "क्या करते हो?" बड़े ही शांत स्वर में पूछा उन्होंने. "कुछ नहीं." हारी सी मुस्कराहट में मैंने जवाब दिया. "मतलब देश का बहुमत हो." लड़का मुस्कुराकर बोला. "जी? जी!" "कुछ खाया है सुबह से." शैलेन्द्र ने मेरा हाल भाँपकर कहा. मैं कुछ बोल नहीं पाया. "शर्माओं मत. ये शहर शर्माने वालों को सबसे पहले मारता है." शैलेन्द्र ने जैसे मुझसे कहते हुए ख़ुद से ये बात कही थी. "दादा! आप कम शर्मीले हैं?" लड़का मुस्कुराकर बोला. "बीमारी कोई फ़क्र करने की चीज़ तो नहीं है ना!" शैलेन्द्र तंज़ के साथ बोले, फिर सिगरेट फेंकीं और मेरी तरफ देखकर कहा, "कहीं जाना नहीं हो तो हमारे साथ आओ, लौटते वक़्त कहीं कुछ खाकर ही विदा लेंगे." "जी! मैं आपको परेशान नहीं करना चाहता." मैं इजाज़त लेने के अंदाज़ बोलते हुए निकलने लगा. "इसीलिए कह रहा हूँ साथ आओ, वरना ना जाने कितने दिन ख्यालों में आकर परेशान करते रहोगे." थोड़ी ऊँची और हक़ भरी आवाज़ में उन्होंने कहा और ये कहते ही शैलेन्द्र मेरी चुप्पी को हामी मानकर लड़के के साथ आगे बढ़ गए. मैं चुपचाप उनके पीछे-पीछे चल दिया. शैलेन्द्र ने आगे जाकर बैठने की एक उम्दा जगह चुनी. आसपास डंडों पर जाल पड़े हुए थे और एक उल्टी नाव के नीचे कोई मुझसा दिखने वाला शख़्स सो रहा था. लहरें उस महान आदमी के पैर छू-छूकर वापस लौट रहीं थी. पानी के अलावा कोई दूसरी आवाज़ वहाँ मौजूद नहीं थी. हम तीनों चुपचाप ना जाने किस के इंतज़ार में बैठे थे. तभी लड़का बड़ी मजबूरी भरी आवाज़ में बोला "दादा. बाबा मेरा पीछा नहीं छोड़ने वाले और मैं आपका. लिख भी डालिए." "तुम्हें क्या लग रहा है कि मैं काम टाल रहा हूँ?" तंज़ भरी आवाज़ में शैलेन्द्र ने कहा. "जी नहीं!" लड़के ने सकपका के जवाब दिया. मुझे शैलेन्द्र का जवाब देने का लहज़ा ठीक नहीं लगा. अब भाई! मुझे ये नहीं पता कि उनका मसला किस तरह का था लेकिन इतने बड़े लोगों का फ़र्ज़ बनता है कि जो उनसे कमज़ोर हो उनसे कुछ ध्यान रख के नरमी से पेश आएँ. "क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात." आप सोचने लगे ना कि जिस भले आदमी ने मेरा इतना साथ दिया, मैं उसकी ही नुक्ताचीनी करने पे उतर आया. तो देवी जी या श्रीमान, आप जो भी हैं मुझे माफ़ कीजिएगा मैं तो ऐसा ही हूँ. मैं तो हर काम के आधार पर अपना या किसी दूसरे का आंकलन करता हूँ. कोई भी मेरे लिए इतना पवित्र नहीं है कि मैं उस पर उँगली ही ना उठा पाऊँ. ख़ैर! आपको समझाते हुए मैं अपने झूठे तज़किरे से भटक रहा हूँ. झूठ और सच में यही अंतर है कि झूठ बहुत लम्बे समय तक याद नहीं रहता और उसकी तफ़सीली में बहुत अंतर आ जाता है. हाँ! तो मैं कहाँ था? हमारे इधर उधर, डंडों पे बंधी रस्सियों पे मछली पकड़ने के जाल पड़े हुए थे और वहाँ से कुछ दूरी पर एक उल्टी पड़ी नाव के पास एक चना जोर गरम वाला सो रहा था. लहरें उसके पैर छू-छूकर वापस लौट रहीं थी, मानो उसकी दिन भर की थकान को पाँव दबाकर दूर करना चाहती हों. पानी के अलावा कोई दूसरी आवाज़ वहाँ मौजूद नहीं थी. शैलेन्द्र सिगरेट पे सिगरेट फूँके जा रहे थे. लड़का रेत पर कुछ उकेर रहा था और सिलसिलेवार ढंग से शैलेंद्र की सिगरेटों के टूटने का इंतज़ार कर रहा था. शैलेंद्र साहब अपनी ही धुन में थे और लग रहा था, आज की रात वो ऐसे ही गुज़ारने वाले थे. तभी लड़के ने हिम्मत की और भारी आवाज़ में बोला, "दादा. आपको तो पता है कि जब तक आप मुझे लिखकर नहीं देंगे, मुझे बाबा के इस काम से और आपको मुझसे मुक्ति नहीं मिलने वाली. लिख भी डालिए ना दादा." "एक बात बताओ! तुम्हें क्या लग रहा है कि मैं ये काम टाल रहा हूँ?" तंज़ भरी आवाज़ में शैलेन्द्र ने कहा. "जी नहीं!" लड़के ने सकपका के जवाब दिया. "बात ये है पंचम कि...एक ख़्याल है. जो ज़बान पे आ आकर लौट रहा है." "क्या ख़्याल है?" उम्मीद भरी आवाज़ में लड़के ने पूछा. जिसे अभी-अभी पंचम जैसा अजीबो-गरीब नाम मिला था. "बड़ा बकवास ख़्याल है." शैलेन्द्र ने मुस्कुराते हुए कहा. पंचम, मेरे और शैलेन्द्र के साथ हँस दिया. "आपके दिमाग़ में कैसे कोई बकवास ख़्याल आ सकता है?" मैंने हिम्मत कर के ज़बान खोली. शैलेन्द्र मुस्कुराए, जेब से सिगरेट का डब्बा निकाला और मुँह में सिगरेट रखी. फिर कुछ सोचकर उसे उँगलियों पर संभाला और कहा "क्यूँ? आप मुझे इंसान नहीं समझते?" और ये कहते हुए माचिस की तीली डब्बी पर मारी और ताज़ा लपट से सिगरेट का सिरा सुलगा लिया. "समंदर से कभी नकली मोती निकला करते हैं" मैंने जैसे किसी हक़ से कहा. "क्या काम आता है जो अब तक नहीं मिला?" शैलेन्द्र ने जैसे कुछ भाँपते हुए पूछा. "फ़िल्मों में लिखने आया था" ना जाने कितनी हिम्मत लेकर कहा था मैंने. "क्या लिखने?" "गीत" "मेरी रोटी मारने?" मैं हिचकिचाया "नहीं मेरा मतलब..." "फिर शरमाए! सटायर था. समझते हो?" "जी" मैंने जवाब दिया "कल ही निकोलाई गोगोल का नाटक गवर्मेंट इंस्पेक्टर पढ़ के ख़त्म किया है" "शाबास! तुम तो बेरोज़गार के साथ समझदार भी मालूम होते हो।" मैं फ़क्र में मुस्कुराया. "ख़ुश होने की बात नहीं है, बड़ा घातक मिश्रण है. सेहत और जेब दोनों के लिए हानिकारक." मेरी कॉटन कलफ़ वाली कड़क मुस्कान, जार्जेट की तरह लटक गई. "अरे! सटायर था." वो मुस्कुराए और धुँआ छोड़ के आसमान को देखने लगे "तुमने सुना पंचम, ख्रुश्चेव ने क्या कहा?" "नहीं दादा." "कहता है, दुनियाभर के नेता एक जैसे होते हैं, वो पुल बनाने का वादा करते हैं, चाहे वहाँ नदीं हो या ना हो." हम सब हँसे. "आपको पता है बाबा ने क्या कहा?" लड़का तंज़ पर ज़ोर देते हुए बोला "क्या कहा?" "शैलेन्द्र घमंडी हो गया है." "तुम्हारे बाबा से बड़ा घमंडी है कोई इस शहर में? उन्हें लगता है कि वो कुछ भी धुन बनाएंगे और मैं उसमे अपने शब्द ठूंस दूँगा. वो गीतकार को कुछ समझते ही नहीं है. मुझसे ज़्यादा दिन ये सब नहीं हो पाएगा." मुझे इस जवाब की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी. पंचम भी रुआंसा सा हो गया था. उसे भी शायद अंदाज़ा नहीं था कि शैलेंद्र ऐसा जवाब देंगे. मुझे ये तो नहीं पता था कि पंचम के बाबा कौन थे लेकिन समझ आ गया था कि वो कोई संगीतकार थे और उम्र में बड़े भी. मेरा मन कह रहा था कि चुप बैठ लेकिन पता नहीं मुझमे कहाँ से इतनी हिम्मत आई कि मैंने कह दिया "शैलेन्द्र साहब! क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इस दुनिया में सबको ही अपना घमंड कम लगता है?" मैंने हिम्मत कर के पूछा. "आपको ऐसा नहीं लगता कि इस देश में सबको सलाह देने की बहुत बुरी आदत है." मैं भी सकपका के चुप रह गया. "माफ़ कीजिएगा. आज मूड कुछ ठीक नहीं है. पहले उस हवलदार की क्लास ले ली, फिर पंचम की और अब तुम्हारी." बड़े शांती भरे स्वर में शैलेन्द्र ने कहा. "जी कोई बात नहीं." "जानते हो ये लड़का कौन है?" शैलेन्द्र ने पंचम को देखते हुए मुझसे पूछा मैंने अंदाज़ा लगाने की कोशिश की लेकिन फिर हारकर कहा "नहीं" "लोगों के लिए तो सिर्फ़ बर्मन दा का बेटा है" मैंने बात काटी "आरडी बर्मन" उन्होंने मुझे बीच में काटा "हाँ! लेकिन मेरे लिए ये आने वाले वक्त का संगीतकार है. जिसका अपना नाम होगा. राहुल देव बर्मन." "क्या दादा. बाबा को तो लगता ही नहीं कि मैं अभी तैयार हूँ." लड़का मुरझाए स्वर में बोला. "उन्हें तो मेरे लिखने पर भी शक होता है।" मुस्कुराते हुए बोले शैलेन्द्र "तभी तुम्हे भेज रहे हैं." "दादा उन्हें आपकी लिखाई पर शक नहीं, विजय आनंद की फ़िल्म की तारीख ख़त्म होने का डर है. अभी ये एक ही गाना बचा है और उसके लिखे जाने तक मैं आपको नहीं छोड़ूँगा." शैलेन्द्र ने पंचम को देखा और फिर आसमान को ताकने लगे. हमारे बीच फिर वही सन्नाटा पसरा था. मैं समंदर, चाँद, पंचम और रह रहकर शैलेन्द्र को देख रहा था. शैलेन्द्र की आँखों को देखकर मैं बाकी सब चीज़ें उनमे देख सकता था. कितना कुछ था उन आँखों में. थके हुए योद्धा के जीवन के अंतिम पल तक लड़ने के साहस का नमक था उन आँखों में. "होंगे राजे-राजकुँवर हम बिगड़े दिल शहज़ादे." मैं गुनगुनाया. "हम सिंघासन बैठे जब-जब किए इरादे." पंचम मेरे पीछे-पीछे बुदबुदाया. "कैसे लिख लेते हैं आप इतना सरल और इतना जादुई?" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा. "ठीकठाक लिख लेता हूँ." "जी? ठीकठाक?" "ठीकठाक भी नहीं?" "आप जादूगर हैं." मैंने बिना सोचे दिल से कहा. "जादूगर तो झूठ को सच दिखाता है." "नहीं! मेरा वो मतलब नहीं था. आप का लिखा सुनकर लगता है जैसे हमने अपनी ही बात किसी और के मुँह से सुनी हो." "अच्छा बोल लेते हो. लिखते कैसा हो?" "ठीक-ठाक." "संगीतकारों को भी यही कहते हो? तभी शायद काम नहीं मिला." शैलेन्द्र हँसते हुए बोले. "जी. उनसे तो कभी मिलना हुआ नहीं." "ये बैठा है ना तुम्हारे सामने एक. सुनाओ इसे कुछ." "अभी?" "नहीं तो फिर कब?" पंचम मेरे मज़े लेने के स्वर में बोला. "बुरा ना मानें तो दो पंक्तियाँ सुनाता हूँ." शैलेन्द्र कुछ समझे नहीं. "बुरा मानने वाली क्या बात है इसमें?" "दरअसल, मैं आपको बहुत मानता हूँ. आपको पढ़-सुनकर ही गीतकार बनने का ख़्याल मन में उपजा था." शैलेन्द्र नर्म सी आँखों से शर्माते हुए नीचे देखने लगे. "आप की ही तर्ज़ पर दो पंक्तियाँ लिखी है. आप इजाज़त दें तो सुनाऊँ." शायद किसी और मौके पर वो सुनना टाल जाते लेकिन मेरा हौसला बढ़ाने के लिए उन्होंने शर्म भरी मुस्कान समेटते हुए मुझे इशारे में इजाज़त दी. मैंने हिम्मत बाँधते हुए कहा, "इश्क़ के हिस्से ज़मीं थी इतनी, कोई ना पाए नाप." "इश्क़ के हिस्से ज़मीं थी इतनी, कोई ना पाए नाप." पंचम ने बँगाली लहज़े में दोहराया "इश्क़ के हिस्से ज़मीं थी इतनी कोई ना पाए नाप, लिखा-पढ़ी में लुट गया लेकिन इश्क़ अंगूठाछाप." "अच्छा है." पंचम ने कहा शैलेन्द्र चुप रहे. फिर बोले "बढ़िया लिखते हो, कल मेरे घर अपनी बाकी कविताओं और गीतों के साथ आओ. वहाँ से तुम्हे किसी निर्माता के पास ले चलूँगा." मैं सकपका गया. एक गीतकार दूसरे गीतकार को कैसे मौका दे सकता है? वो भी अपने ही निर्माताओं के साथ काम करने का मौका देना. मैं वहाँ होता तो शायद मैं भी ऐसा ना कर पाता. "अरे चिंता मत करो. मैंने अपने घर से अलग एक जगह ली है अपने लिखने के लिए. जब भी लिखने का मन हो वहाँ चले जाता हूँ. वहाँ मेरे कुछ दोस्त भी ठहरे हुए हैं, तुम भी आ जाओगे तो मुझ पर कोई आसमान नहीं टूटेगा." मैं अभी भी तैयार नहीं हो पा रहा था. मैं जैसे कि कह चुका हूँ कि मैं कोई संत नहीं था लेकिन पिछले आधे-एक घंटे से मुझमे ना जाने कैसे इतनी अच्छाइयाँ जाग उठी थी. मुझ जैसे बेघर-बेरोज़गार को घर और रोज़गार एक साथ मिल रहा था और मैं सोच रहा था? मैं आपको तो क्या ख़ुद को भी इस बात का जवाब नहीं दे पा रहा था. "सोचो मत, सोचने की सारी ज़िम्मेदारी आज मेरे पास है. ये मेरा नहीं, सचिन दा का आदेश है. राजा साहेब का. तुम्हें पता है कि सचिन दा, त्रिपुरा की सल्तनत के वारिस हैं?" "क्या बात कर रहे हैं?" मैंने आश्चर्य से पूछा. "हाँ! वो चाहते तो राजा हो सकते थे लेकिन सब छोड़ के उन्होंने संगीत चुना." "क्यूँ?" "क्यूँ? सही नहीं किया? राजा होते तो लोग उनका भय के कारण सम्मान कर रहे होते. संगीतकार बने तो लोग आज उन्हें दिल से मोहब्बत करते हैं."घर से भागते वक्त ऐसा लगा था जैसे सारे निर्माता फूल लिए हुए दादर स्टेशन पे मेरे चरण पखारने का इंतज़ार कर रहे होंगे. यहाँ आते ही हकीकत समझ आई और हक़ीक़त से लड़ना भी सीख लिया. वैसे मेरे लिए झूठ बोलना, बदबू भरी जगह में साँस लेने की तरह था. मन मुँह तो सिकोड़ता था लेकिन अगर ना लेता तो मर जाता. साँस लेना ऐसी क्रिया है जिसे आप करते हुए ये याद नहीं रखते की आप उसके लिए कोशिश कर रहे हों. तो कोशिश सिर्फ़ मैं ज़िंदा रहने की करता था और उसके लिए मैंने मजदूरी करने और भीख माँगने से लेकर एक दफ़ा जेब काटने तक का काम कर लिया था.
"हाँ शायद! अब ये भी तो बात है ना कि जब इतने सारे रास्ते हों कि सब एक दूसरे में मिल जाएँ तो वो मैदान से लगने लगते हैं. और आदमी किस रास्ते जाए उसे समझ नहीं आता. जैसे खाली रेगिस्तान में कोई बच्चा रास्ता भूल जाए या जैसे इस खुले आसमान में ये चाँद. ऐसा लग रहा है कि जैसे कि भटक गया हो." ये कहकर शैलेन्द्र एक बार फिर ख़ामोशी में डूब गए. बड़ी देर तक चाँद को तकते रहे. फिर कुछ सोचने लगे और माचिस का डब्बा पंचम के हाथ में थमा दिया. ना पंचम कुछ समझा ना मैं. "इस पर गाने की धुन बजाओ." पंचम ने सुना और आँखों में किसी उम्मीद की चमक लेकर, माचिस पर ताल बजाकर गाने लगा. शैलेन्द्र ने डायरी निकाली और फिर आसमान को देखने लगे. आसमान बिलकुल ख़ाली था. बादल का एक कतरा भी नहीं था. सिर्फ़ एक पूरा चाँद था. शैलेन्द्र ने धुन बजाते हुए पंचम को इशारा किया, पंचम रुक गया. शैलेन्द्र ने कहा "आसमान खुला है, चाँद बिल्कुल ही खो गया है... हम्म्म." और शैलेन्द्र की कलम कागज़ पर थिरकने लगी. "गाओ पंचम, खोया-खोया चाँद खुला आसमान" फिर शैलेन्द्र ने पंचम को शरारत से मुस्कुराते हुए देखा और आगे लिखते हुए बोले "आँखों में सारी रात जाएगी, तुमको भी कैसे नींद आएगी." पंचम गाने लगे और शैलन्द्र की कलम अंतरे की तरफ़ दौड़ने लगी. मेरे देखते-देखते शैलेन्द्र ने, अपनी डायरी में चार अंतरे लिख डाले. मैंने उस रात वहाँ बैठे हुए, उन जादुई अल्फ़ाज़ों को अपनी आँखों से शैलेन्द्र की डायरी में उतरते हुए देखा. गीत ख़त्म होने के बाद, हम वहाँ से चले. शैलेन्द्र ने अपना पता देते हुए, कल मिलने के वादे के साथ, मुझसे गले मिलकर और फिर हाथ मिलाकर विदा ली. पंचम भी गले मिलकर गए लेकिन उन्होंने देखा नहीं कि कब शैलेन्द्र ने हाथ मिलाते-मिलाते मेरे हाथों में रूपए थमा दिए. जाते-जाते शैलेन्द्र पीछे मुड़कर बोले "तुम्हारी पंक्तियाँ बढ़िया थी, बस उसमे 'लेकिन' की जगह 'साला' लगा दो, मज़ा दूना हो जाएगा." मैं बड़बड़ाया, "इश्क़ के हिस्से ज़मीं थी इतनी कोई ना पाए नाप, लिखा पढ़ी में लुट गया साला इश्क़ अंगूठाछाप." "वाह" मैंने अपनी ही पंक्तियों को आश्चर्य में पढ़ा. शैलेन्द्र और पंचम वहाँ से निकल गए. अगली सुबह मैंने शैलेन्द्र के दिए रुपयों से, बड़े दिनों बाद पेटभर के और मनभर के खाना खाया. फिर बाकी बचे पैसों से ट्रेन टिकट कटाकर ये सोचते हुए घर लौट आया, कि इस जनम में तो मैं इसके आसपास का भी गीत नहीं लिख सकता. जब तक शैलेन्द्र है, मैं गीतकार बनने की ज़हमत नहीं उठा सकता. शायद अगले जनम में ये कोशिश की जा सकती है. सच मानिए इसमें शैलेन्द्र के उधार का रत्तीभर बोझ नहीं था. ये जादू था उन बोलों का"सच कह रहे हैं आप. हम सब ज़िंदगीभर अपने जीवन के मतलब को खोजने के लिए ही भटकते रहते हैं. सम्राट अशोक भी शान्ति की तलाश में बौद्ध भिक्षु बना. शायद उसे उससे भी ज़्यादा शान्ति जूते सिलने में मिलती लेकिन हम बहुत डरपोक लोग हैं. अगर भौतिकवाद की ऊँचाई से डर जाएँ तो सीधे धर्म की शरण लेते हैं. इसी दुनिया की किसी सच्चाई में अपने जीवन का मतलब ढूँढ़ना एक थका देने वाली प्रक्रिया लगती है हमको."
खोया-खोया चाँद खुला आसमानआँखों में सारी रात जाएगी, तुमको भी कैसे नींद आएंगी, ओ हो ...खोया-खोया चांद ...मस्ती भरी, हवा जो चलीखिल-खिल गई, ये दिल की कलीमन की गली में है खलबलीकि उनको तो बुलाओ, ओ हो ...खोया-खोया चांद ...तारे चले, नज़ारे चलेसंग-संग मेरे वो सारे चलेचारों तरफ़ इशारे चलेकिसी के तो हो जाओ, ओ हो ...खोया-खोया चांद ...ऐसी ही रात, भीगी सी रातहाथों में हाथ, होते वो साथकह लेते उनसे दिल की ये बातअब तो ना सताओ, ओ हो ...खोया-खोया चांद ...हम मिट चले, जिनके लियेबिन कुछ कहे, वो चुप-चुप रहेकोई ज़रा ये उनसे कहेन ऐसे आजमाओ, ओ हो ...खोया-खोया चांद ...
और जैसा मैंने कहा है की तारीख़ों से मेरा तअल्लुक़ कड़वा सा ही रहा है, ना मैंने उन्हें कभी याद रखा, ना उन्होंने मुझे.