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नेपाल में तीन साल के भीतर ही संसद क्यों भंग करनी पड़ी?

अब तो नए चुनाव की घोषणा भी हो गई है.

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20 दिसंबर की सुबह नेपाल के प्रधानमंत्री ओली की बुलाई कैबिनेट मीटिंग की तस्वीर. मीटिंग में ओली के सारे मंत्री पहुंचे तक नहीं. इसी के तुरंत बाद संसद भंग करने की सिफारिश कर दी गई. (फोटो- ANI)
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अभिषेक त्रिपाठी
20 दिसंबर 2020 (Updated: 20 दिसंबर 2020, 02:37 PM IST) कॉमेंट्स
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20 दिसंबर, दिन रविवार. सुबह के दस बजे का समय. नेपाल में कैबिनेट की बैठक शुरू होती है. पूछा जाता है तो पता चलता है कि साब, प्रधानमंत्री जी ने बैठक बुलाई है. प्रधानमंत्री केपी शर्मा ने. बैठक ख़त्म होते ही ओली पहुंचते हैं राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से मिलने और देश की संसद भंग करने की सिफ़ारिश कर देते हैं. दोपहर पूरी बीत भी नहीं पाई थी कि राष्ट्रपति ने ये सिफारिश मंजूर कर ली. नेपाल की संसद भंग हो गई. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (UML) की सरकार अब वहां नहीं रही. नए चुनावों की तारीख़ भी दे दी गई. 30 अप्रैल से 10 मई 2021 के बीच दो चरणों में नेपाल में चुनाव होंगे, नई सरकार बनेगी. 20 तारीख़ की शाम ढलते-ढलते ओली के सात मंत्रियों ने इस्तीफा भी दे दिया. क्यों गिरी सरकार? कारण को बयानों से समझिए. सबसे पहले बयान आता है नेपाल के ऊर्जा मंत्री बर्शमान पुन का.
“पीएम ओली की बुलाई बैठक में मंत्रियों ने संसद भंग करने का प्रस्ताव दिया था, जिसे तत्काल राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया.”
पुन ने ये भी कहा कि पार्टी में दरार पड़ रही थी. फिर आता है सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता नारायणकाजी श्रेष्ठ का बयान.
“हां, फैसला जल्दबाजी में लेना पड़ा. क्योंकि आज सुबह जब कैबिनेट मीटिंग बुलाई गई तो सारे मंत्री नहीं पहुंचे. ये लोकतांत्रिक नियमों के ख़िलाफ है, देश को पीछे ले जाने वाला काम है. इसलिए संसद भंग करने की सिफारिश की गई.”
अब जानिए कि सत्ताधारी पार्टी की ही केंद्रीय समिति के सदस्य बिश्नु रिजाल ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से क्या कहा –
“प्रधानमंत्री ने संसदीय दल, केंद्रीय समिति और पार्टी सचिवालय में बहुमत खो दिया है. उन्होंने पार्टी में मौजूदा स्थिति का हल निकाले बिना संसद भंग करने का फैसला लिया है.”
सरकार संकट में थी इन बयानों से एक बात तो स्पष्ट हो रही है. ओली सरकार के भीतर सब कुछ चंगा नहीं था. पार्टी के ज़्यादातर नेता ओली के खिलाफ हो चुके हैं. ओली के इस्तीफे की मांग लगातार बढ़ रही थी. पिछले महीने ओली का विरोध कर रहे नौ नेताओं ने बंद कमरे में मीटिंग की थी. इनमें से छह ने प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगा था. ओली को CPN (UML) और CPN (माओवादी) ने मिलकर 2018 में प्रधानमंत्री बनाया था. एकीकृत दल के अध्यक्ष बने ओली और उपाध्यक्ष बने CPN (माओवादी) के नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड. लेकिन हाल ही में प्रचंड की अगुआई में विरोधी खेमे ने ओली को 19 पेज का प्रस्ताव सौंप दिया. इसमें सरकार के कामकाज और पार्टी विरोधी नीतियों पर सवाल उठाए गए थे. ओली पर भ्रष्टाचार में शामिल होने और मनमाने ढंग से सरकार चलाने के आरोप लगे. भारत-नेपाल के बीच सीमा विवाद में भी प्रचंड और तमाम अन्य वरिष्ठ नेताओं ने ओली के फैसलों पर सवाल उठाए. अध्यादेश पर बवाल नेपाल का ये राजनीतिक संकट और गहरा गया ओली सरकार के एक अध्यादेश से. संवैधानिक परिषद अधिनियम से संबंधित अध्यादेश, जिसे 15 दिसंबर को राष्ट्रपति से स्वीकृत कराया गया था. ओली पर इस अध्यादेश को वापस लेने का भारी दबाव था. इसके तहत उन्हें पूर्ण कोरम के बिना केवल तीन सदस्यों की उपस्थिति में संवैधानिक परिषद की बैठक बुलाने और निर्णय लेने का अधिकार मिलता है. नेपाल के विपक्षी दल नेपाली कांग्रेस के साथ-साथ प्रचंड की तरफ से भी ओली पर दबाव था कि ये अध्यादेश वापस लिया जाए. कथित तौर पर 20 दिसंबर की सुबह भी प्रचंड प्रधानमंत्री आवास पहुंचे. इसी अध्यादेश पर बात करने के लिए. ओली ने कहा कि वे आज इस पर कोई फैसला ले लेंगे. प्रचंड वहां से लौट आए और चंद घंटों के भीतर ही उन्हें और देश-दुनिया को पता चला कि ओली ने संसद भंग करने की सिफारिश कर दी है. नेपाली संसद की स्थिति नेपाल में पिछले आम चुनाव 2017-18 में हुए थे, जो कि काफी अहम थे. इस नाते क्योंकि राजशाही ख़त्म होने के बाद पहले आम चुनाव थे. 65 फीसदी लोगों ने वोट किया. वहां 275 सीटों की प्रतिनिधि सभा (जैसे हमारे यहां लोकसभा) है. बहुमत के लिए चाहिए होती हैं 138 सीट. चुनाव में CPN (UML) ने जीतीं 121 सीट और CPN (माओवादी) ने जीतीं 53 सीट. इन दोनों ने मिलकर सरकार बनाई. ओली बने पीएम. नेपाली कांग्रेस 63 सीट के साथ विपक्ष में बैठी. दो साल बाद ही अब संसद को भंग कर दिया गया है.

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