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पेगासस प्रोजेक्ट: फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की भी जासूसी हो रही थी?

जानिए अब किसकी जासूसी की बात सामने आई है.

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पैगासस जासूसी मामले में शिकार के रूप में फ्रांस के राष्ट्रपति का भी नाम सामने आया है. फोटो- IndiaToday
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3 अगस्त 2021 (Updated: 3 अगस्त 2021, 16:51 IST)
Updated: 3 अगस्त 2021 16:51 IST
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हाई स्कूल टाइम के दो दोस्त. एक सुपर सीक्रेट इंटेलिज़ेंस यूनिट. करीब 5,000 लोगों की एक बेहद गोपनीय टास्क फ़ोर्स. इन सबका दुनिया के सबसे विस्तृत जासूसी स्कैंडल पेगासस से क्या ताल्लुक है? पेगासस स्कैंडल, जिसमें भारत समेत कई देशों की सरकारों पर आरोप हैं. इसी पेगासस से जुड़ी एक आधिकारिक पुष्टि अब फ्रांस के खुफ़िया विभाग ने की है. ये पहली मर्तबा है, जब किसी देश की खुफ़िया एजेंसी ने अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों द्वारा दी गई रिपोर्ट- दी पेगासस प्रोजेक्ट- के दावों का समर्थन किया है. क्या है ये पूरा मामला, विस्तार से बताते हैं. 1930 में भी होती थी जासूसी बिफ़ोर-इज़रायल दौर की बात है. 1930 का दशक था. तब इज़रायल का अस्तित्व नहीं था. उसकी जगह था, समूचा फिलिस्तीन. जिसपर कंट्रोल था ब्रिटेन का. इस दौर तक आते-आते इज़रायल के गठन की कोशिशें तेज़ हो गई थीं. यहूदियों और अरबों के बीच हिंसा होती रहती थी. इसी दौर में यहूदियों ने एक संगठन बनाया. नाम रखा- शिन मेम टू. इस संगठन का काम था, अरबों की जासूसी करना. वो यहूदियों के खिलाफ़ किस तरह की कार्रवाई प्लान कर रहे हैं, ये पता लगाना. इसके लिए शिन मेम टू के लोग अरबों के फ़ोन लाइन्स में बगिंग करते और चुपके से उनकी बातें सुनते.
मई 1948 में इज़रायल का गठन हुआ. इज़रायल के सामने अब अपना अस्तित्व बचाकर रखने की चुनौती थी. वो चारों तरफ़ दुश्मनों से घिरा था. ऐसे में सर्वाइवल के लिए इज़रायल का सबसे बड़ा सहारा था, एक ताकतवर सेना. जो युद्ध में इज़रायल को जीत दिलाए. मगर सेना से भी ज़्यादा बड़ी भूमिका थी, इंटेलिज़ेंस सर्विसेज़ की. जो दुश्मन की हर गतिविधि, हर प्लानिंग का पहले से ही पता लगाकर अपना डिफ़ेंस तैयार कर सकें. इसके लिए इज़रायल का सबसे बड़ा औज़ार था, यूनिट 515. क्या थी यूनिट 515? ये IDF, यानी इज़रायल डिफ़ेंस फ़ोर्सेज़ की मुख्य मिलिटरी इंटेलिज़ेंस बॉडी थी. इसे समझिए इज़रायल की पूरी ख़ुफिया व्यवस्था का बैकबोन. इनका काम था, दुश्मन के बारे में पूरी मालूमात करना. दुश्मन के अंदरख़ानों की बातचीत सुनना. उनके फ़ोन कॉल्स में सेंधमारी करना. प्रॉटेक्टेड दूरसंचार माध्यमों से प्रेषित कोड्स को क्रैक करना. वगैरह वगैरह. कहा जाता था कि इस यूनिट के लोग इतने क़ाबिल होते हैं कि वो खांसी सुनकर बता देते थे कि फलां आदमी कहां की बोली बोलता है, कहां का रहने वाला है.
1956 में इज़रायल और अरब देशों के बीच दूसरा युद्ध हुआ. इस दौर में यूनिट 515 का नाम बदलकर हो गया, यूनिट 848. अपने पूर्ववर्तियों की तरह यूनिट 848 का भी जिम्मा था कि वो दुश्मनों की हर मूवमेंट पर नज़र रखे. अडवांस में पता लगा ले कि वो क्या करने वाले हैं. मगर अक्टूबर 1973 में जब इज़िप्ट और सीरिया ने इज़रायल पर औचक हमला किया, तो यूनिट 848 को इसकी कोई भनक तक नहीं लग सकी. यूनिट को सबसे बड़ा झटका लगा 7 अक्टूबर, 1973 को. यानी, यॉम केपोर वॉर के दूसरे रोज़. किस तरह का झटका था ये? उन दिनों यूनिट 848 में एक सीनियर इंटेलिज़ेंस ऑफ़िसर था, एमोस लेविनबर्ग. युद्ध के दूसरे दिन एमोस सीरियन सेना के हाथ लग गया. एमोस के पास इज़रायल की इंटेलिज़ेंस और मिलिटरी से जुड़ी गोपनीय जानकारियां थीं. सीरियन्स ने उसे क़ैद करके ख़ूब टॉर्चर किया. उन्होंने एमोस को यकीन दिला दिया कि अरब देश युद्ध जीत गए हैं. इज़रायल का नामो-निशान ख़त्म हो गया है.
एमोस ने डेस्परेशन में आकर इज़रायल के सारे सीक्रेट्स खोल दिए. उसने सीरियन्स को बता दिया कि इज़रायल किस तरह सीरियन मिलिटरी की सिक्यॉर ट्रांसमिशन लाइन्स में सेंधमारी करता है. किस तरह इज़रायल के लोग लिसनिंग डिवाइसेज़ की मदद से सीरियन लीडरशिप की तमाम बातचीत रिकॉर्ड करते हैं.
एमोस द्वारा सीरिया को दी गई जानकारियां यूनिट 848 समेत पूरे इज़रायली खुफ़िया व्यवस्था के लिए बेहद डैमेज़िंग साबित हुईं. इससे उबरने के लिए इज़रायल को अपने इंटेलिज़ेंस सिस्टम में बड़ा बदलाव करना पड़ा. उन्हें अपने कामकाज का तरीका बदलना पड़ा. इसी बदलाव के क्रम में यूनिट 848 की भी पहचान बदली. इसे नया नाम मिला, यूनिट 8200. क्या है यूनिट 8200 की कहानी? कहते हैं कि यूनिट को नाम मिला है, इसके सीक्रेट पोस्ट बॉक्स पर लिखी संख्या से. ये बॉक्सेज़ कुछ सीक्रेट लोकेशन्स पर लगे हैं. यूनिट के लोग इन्हीं लोकेशन्स से ऑपरेट करते हैं. ये वो सैनिक हैं, जिन्होंने कभी किसी की बंदूक का सामना नहीं किया. किसी कॉम्बैट ऑपरेशन में हिस्सा नहीं लिया. बस पावरफुल कंप्यूटर्स और हेडफ़ोन्स से लैस होकर ये इज़रायल की डिफ़ेंस लाइन संभालते हैं. इनका काम है, साइबर सिक्यॉरिटी क्रैक करने के लिए लेटेस्ट टेक्नॉलजी इजाद करना. जानकारियां हासिल करने के ऐसे हाईटेक तरीके खोजना कि कोई भी संचार व्यवस्था, कोई भी कम्युनिकेशन्स तकनीक भेदी जा सके.
अपनी कंप्यूटर स्क्रीन्स के आगे बैठे-बैठे ये दूसरे देशों की सरकारों, राजनैतिक संस्थाओं, अंतरराष्ट्रीय संगठनों, विदेशी कंपनियों और प्राइवेट इंडिविज़ुअल्स जैसे अपने टारगेट्स को मॉनिटर करते हैं. फ़ोन कॉल्स, ईमेल्स, मिलटरी केबल्स, सिक्योर्ड कम्यूनिकेशन लाइन्स, सैटेलाइट ट्रांमिशन्स, इनमें सेंध लगाते हैं. इस अति विशाल स्नूपिंग एक्सरसाइज़ से जमा की गई जानकारियों को प्रॉसेस किया जाता है. ज़रूरी जानकारियां इज़रायल की समूची इंटेलिज़ेंस और सिक्यॉरिटी नेटवर्क के साथ साझा की जाती हैं.
चाहे इज़रायली आर्म्ड फोर्सेज़ हों. या मोसाद के कोवर्ट ऑपरेशन्स. सबके केंद्र में है, यूनिट 8200. यही यूनिट इज़रायल की सारी सैन्य और खुफ़िया कामयाबियों का बैकबोन है. कहते हैं कि इज़रायल के पास जितनी ख़ुफिया जानकारियां आती हैं, उसका करीब 90 पर्सेंट हिस्सा यूनिट 8200 मुहैया कराता है. इज़रायल का कोई भी ऐसा बड़ा ऑपरेशन नहीं, जिसमें यूनिट 8200 शामिल न हो. जानकार इसे दुनिया का बेस्ट मिलिटरी इंटेलिज़ेंस सेटअप कहते हैं.
इस यूनिट 8200 की एक और ख़ासियत है. ये इज़रायल की स्टार्ट-अप कम्युनिटी का एक बड़ा फाउंटेनहेड है. इस यूनिट में काम कर चुके दर्जनों लोगों ने यूनिट से अलग होने के बाद अपनी कंपनी, अपना स्टार्ट-अप शुरू किया. फ़ोर्ब्स के मुताबिक, इस तरह की एक हज़ार से ज़्यादा साइबर और टेक कंपनियां हैं. क्या ऐसे हुई NSO की शुरुआत? इसके अलावा कुछ कंपनियां ऐसी भी हैं, जिन्होंने यूनिट 8200 के ग्रेजुएट्स द्वारा विकसित की गई टेक्नॉलजी से प्रेरणा पाई. उस तकनीक का इस्तेमाल करके एक नया आइडिया बनाया और सर्विसेज़ बेचने लगे. ऐसी ही एक कंपनी का नाम है, NSO. इस कंपनी की शुरुआत की थी, हाई स्कूल जमाने से बेस्ट फ्रेंड रहे दो लड़कों ने. इनके नाम थे- शालेव हुलियो और ओमरी लावी. शालेव और ओमरी, दोनों इज़रायल के रहने वाले थे. उन्हें कंप्यूटर्स में दिलचस्पी थी. ऑनलाइन चैटिंग करना और विडियो गेम्स खेलना बहुत पसंद था. इन दोनों ने साथ मिलकर बिज़नस की कोशिश की. मगर शुरुआती आइडियाज़ ज़्यादा चले नहीं.
फिर इन दोनों का ध्यान गया, मोबाइल फोन्स की तरफ़. अपराधी मोबाइल्स के ज़रिये लॉ-एनफोर्समेंट एजेंसियों को छकाना सीख रहे थे. ऐसे में शालेव हुलियो को आइडिया आया कि अगर ऐसा सॉफ़्टवेअर बनाया जाए, जिसकी मदद से एजेंसियां किसी भी मोबाइल पर कंट्रोल कर सकें, तो ये गेम-चेंजर साबित हो सकता है. इसी आइडिया के तहत शालेव और ओमरी की कंपनी NSO ने एक सिस्टम विकसित किया. इसके इस्तेमाल से सेलफोन फर्म्स दूर बैठकर ग्राहकों के डिवाइस की मेंटेनेस देख सकती थीं. रिमोट एक्सेस के सहारे ग्राहक के मोबाइल का मेंटेनेंस संभाल सकती थीं.
Pegasus 2 पेगासस प्रोजेक्ट को लेकर तमाम तरह की चर्चाएं अभी भी हो रही हैं. फोटो- आजतक
टीम व्यूअर या एनीडेस्क इस्तेमाल किया है कभी? इन दोनों सॉफ्टवेयर की मदद से ऑफ़िस के IT डिपार्टमेंट वाले लोग अपनी सीट पर बैठे-बैठे स्टाफ़ के लैपटॉप या कंप्यूटर की ख़राबी चेक कर देते थे. कुछ इसी तरह की सेवा NSO भी दे रहा था. न्यू यॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस शुरुआती प्रॉडेक्ट के लिए NSO ने जिस तकनीक की मदद ली, वो टेक्नॉलजी यूनिट 8200 के ग्रैजुएट्स ने ही विकसित की थी.
इस वक़्त तक स्मार्टफ़ोन्स भी आ गए थे. टेक कंपनियां ग्राहकों को सुरक्षित से सुरक्षित संवाद के विकल्प देने में जुटी थीं. इनक्रिप्टेड कम्युनिकेशन्स पर काम हो रहा था. इनक्रिप्टेड मतलब, मूल जानकारी या संवाद को ख़ास तरह के कोड्स की शक्ल दे देना. ताकि केवल ऑथोराइज़्ड लोग ही ऑरिजनल जानकारी देख सकें. कोई हैक करके पढ़ना चाहे, तो कुछ पढ़ और समझ ही न पाए. ख़ुफिया एजेंसियां इन इनक्रिप्टेड कम्युनिकेशन्स को लेकर काफी परेशान थीं. उन्हें आशंका थी कि आतंकवादी और अपराधी भी इस सुरक्षित संवाद तकनीक का इस्तेमाल करेंगे. वो इस नई तकनीक की काट तैयार करना चाहते थे.
NSO ने इस मार्केट को समझा. उन्होंने इसकी काट भी ऑफ़र की. क्या थी ये काट? काट ये थी कि कम्युनिकेशन्स के ऐंड पॉइंट्स, यानी जिन मोबाइल्स के मार्फ़त संवाद हुआ है, उन्हें हैक करना. और, इनक्रिप्टेड डेटा को डिक्रिप्ट करना. पश्चिमी ख़ुफिया एजेंसियों ने इसमें दिलचस्पी दिखाई. और इसी डिमांड-सप्लाई के तहत 2011 में NSO ने विकसित किया, एक मोबाइल सर्वेलांस टूल. पेगासस नाम के पीछे की कहानी प्राचीन ग्रीक माइथॉलज़ी में एक उड़ने वाला दिव्य घोड़ा है. धवल सफ़ेद शरीर. और पीठ के दोनों किनारों से जुड़े दो बड़े ख़ूबसूरत पंख. वो समंदर के देवता पोसिडोन का पुत्र माना जाता है. इसी दिव्य घोड़े के नाम पर NSO ने अपने टूल का नाम रखा- पेगासस. ये एक टूल कई ऐसे काम कर सकता था, जो अब तक नामुमकिन समझे जाते थे. मसलन, स्मार्टफोन्स में सेंध लगाना. चुपचाप स्मार्टफ़ोन्स से डेटा चुराना. फ़ोन कॉल, मेसेज़, ईमेल्स, कॉन्टैक्ट लिस्ट, लोकेशन सब को क्रैक कर सकता था पेगासस. ये फेसबुक और वॉट्सऐप जैसे ऐप्स के माध्यम से भेजी गई जानकारियों को भी हैक कर लेता था. ये पेगासस टेक्नॉलज़ी दूर बैठकर आपके मोबाइल की मालिक बन जाती थी. वो फ़ोन के साथ जो चाहे करती. आप पर चौबीस घंटे निगाह रखती. ये सब होता और आपको पता भी नहीं चलता.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, NSO के इस प्रॉडक्ट का पहला ख़रीदार था, मेक्सिको. उसकी सरकार ने अपने यहां सक्रिय ड्रग कार्टल्स से निपटने के लिए इस तकनीक में दिलचस्पी दिखाई. NSO ने करीब 111 करोड़ रुपए की कीमत पर मेक्सिकन गवर्नमेंट को पेगासस बेचा. इसके अलावा, टारगेट्स की हर गतिविधि को मॉनिटर करते रहने के लिए मेक्सिको ने लगभग 571 करोड़ रुपए की अतिरिक्त राशि चुकाई NSO को.
मेक्सिको को इसका फ़ायदा भी मिला. 2019 में जब ड्रग माफ़िया अल चापो को न्यू यॉर्क में उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई, तब मेक्सिकन अधिकारियों ने इस कामयाबी का श्रेय पेगासस को दिया. जल्द ही और भी सरकारों ने NSO से पेगासस ख़रीदना शुरू किया. इसकी मदद से आतंकवादी संगठनों को क्रैक करने में मदद मिली. ऑर्गनाइज़्ड क्राइम नेटवर्क्स के खिलाफ़ जांच में सहायता मिली. स्याह पक्ष भी जुड़े हैं NSO से मगर ये सक्सेस स्टोरीज़, ये गौरवनामा...पेगासस का इकलौता हासिल नहीं है. इसके कई स्याह पक्ष भी हैं. जैसे, सरकारों द्वारा आम नागरिकों की जासूसी करवाया जाना. पत्रकारों, जजों, सिविल सोसायटी के लोगों की जासूसी करवाना. विपक्षी नेताओं की स्नूपिंग करना. इसके माध्यम से जासूसी करके अपने विरोधियों और आलोचकों की हर मूवमेंट ट्रैक करना और उन्हें ठिकाने लगाना. अपने विरोधियों की नितांत निजी जानकारियां हैक करके उसे लीक करना, उनकी सार्वजनिक छवि बिगाड़ना. यहां तक कि विदेशी नेताओं, राष्ट्राध्यक्षों और दूसरे देशों के डेलिगेट्स की जासूसी करवाना.
यानी पेगासस का इस्तेमाल अपराधियों और आतंकवादियों तक सीमित नहीं था. ये केवल राष्ट्रीय और आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का साधन नहीं था. ये लोकतांत्रिक मूल्यों को मारने, तानाशाही चलाने और बुनियादी मानवाधिकारों की हत्या करने का उपकरण भी था. दी पेगासस प्रोजेक्ट अब सवाल है कि हम ये सारी चीजें आज क्यों बता रहे हैं? इसकी वजह है, दी पेगासस प्रोजेक्ट. आपने पिछले दिनों इसके बारे में पढ़ा-सुना होगा. इसकी शुरुआत हुई, एक लीक हुई लिस्ट से. इस लिस्ट में 50 हज़ार मोबाइल नंबर थे. फॉरबिडन स्टोरीज़ नाम के पैरिस स्थित एक NGO और ऐमनेस्टी इंटरनैशनल को ये लिस्ट मिली. माना जा रहा है कि ये लिस्ट इज़रायली फ़र्म NSO के क्लाइंट्स ने तैयार कराईं. वो क्लाइंट्स, जिन्हें NSO ने पेगासस बेचा था.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, उन्हीं क्लाइंट्स ने 'पीपल ऑफ़ इंट्रेस्ट' के तौर पर कुछ लोगों को चिह्नित किया. ऐसे ही 50 हज़ार चिह्नित नामों की वो कथित लिस्ट लीक होकर फॉरबिडन स्टोरीज़ और ऐमनेस्टी इंटरनैशनल के हाथ लगी. उन्होंने इसे मीडिया के साथ साझा किया. इसी के आधार पर 17 चुनिंदा मीडिया आउटलेट्स ने एक विस्तृत इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसका नाम था- दी पेगासस प्रोजेक्ट. NSO का दावा है कि वो केवल सरकारों को ही पेगासस बेचता है. इसका मतलब, वो कथित लिस्ट भी पेगासस खरीदने वाली सरकारों ने तैयार करवाई.
मगर इस पेगासस प्रोजेक्ट के खुलासे पर इज़रायल और NSO समेत ज़्यादातर आरोपी सरकारों का बर्ताव खारिज़ करने वाला था. जिनपर आरोप थे, उनमें से ज़्यादातर आरोपों को नकारते दिखे. लेकिन अब एक देश से आरोपों पर मुहर लगने की ख़बर आई है. ये देश है, फ्रांस. पेगासस प्रोजेक्ट की लीक हुई लिस्ट में फ्रेंच राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों समेत 14 फ्रेंच मंत्रियों का नाम था. इसके अलावा, इस सूची में कुछ फ्रेंच पत्रकारों के भी नाम थे. इस प्रकरण पर फ्रांस में कई जांचें जांच बिठाई गईं. बीते रोज़ इसी जांच से जुड़ा एक बड़ा अपडेट आया.
फ्रांस में चल रही जांच से जुड़ी एक एजेंसी है, इनफॉर्मेशन सिस्टम्स सिक्यॉरिटी. ये एक राष्ट्रीय एजेंसी है. फ्रेंच भाषा में इस एजेंसी के इनिशियल्स हैं, ANSSI. इसके जांचकर्ताओं ने तीन फ्रेंच पत्रकारों के फ़ोन में पेगासस स्पाईवेअर मिलने की पुष्टि की है. इन तीन पत्रकारों में से एक फ्रांस के इंटरनैशनल टेलिविज़न स्टेशन 'फ्रांस 24' में काम करने वाले एक वरिष्ठ सदस्य हैं. एजेंसी एक्सपर्ट्स ने इनके फ़ोन की गहन जांच की. इससे पता चला कि फ्रांस 24 के इन पत्रकार का फ़ोन तीन बार टारगेट किया गया. पहली बार, मई 2019 में. दूसरी बार, सितंबर 2020 में. और तीसरी बार, जनवरी 2021 में.
इनके अलावा बाकी दो पत्रकार 'मीडियापार्ट' नाम की एक फ्रेंच इन्वैस्टिगेटिव वेबसाइट से जुड़े हैं. ANSSI ने बताया कि उन्हें इन तीनों पत्रकारों के फ़ोन में पेगासस के डिज़िटल अवशेष मिले हैं. ANSSI ने ये फाइंडिंग पैरिस पब्लिक प्रॉसिक्यूटर्स ऑफ़िस को भेज दी है. यही ऑफ़िस जांच की निगरानी कर रहा है. ये पहली दफ़ा है जब किसी देश की स्वतंत्र और आधिकारिक जांच अथॉरिटी ने 'दी पेगासस प्रोजेक्ट' में बताई गई चीजों को कन्फ़र्म किया हो. ऑफ़िशली इसपर मुहर लगाई हो.
'दी पेगासस प्रोजेक्ट' को कइयों ने फर्ज़ी कहकर खारिज़ करने की कोशिश की. इसे झूठा और काल्पनिक बताया. कइयों ने कहा, लिस्ट में नाम होने का मतलब ये नहीं है कि जासूसी हुई ही. इसीलिए फ्रेंच अथॉरिटीज़ की जांच में मिली ताज़ा जानकारी बेहद अहम है. इससे साबित होता है कि पेगासस का इस्तेमाल करके किसी-न-किसी ने तो इन तीन पत्रकारों को टारगेट किया. फॉरबिडन स्टोरीज़ के मुताबिक, पेगासस खरीदने वाली सरकारों ने दुनिया में कम-से-कम 180 पत्रकारों को चिह्नित किया था. इन्हें 'पर्सन ऑफ़ इंट्रेस्ट' की सूची में डाला था. अब फ्रांस से आई ख़बर की रोशनी में इन 180 में से कम-से-कम तीन नामों की तो पुष्टि हो ही गई है.
NSO का दावा है कि उसके किसी क्लाइंट ने इमैनुएल मैक्रों को कभी टारगेट नहीं किया. कभी उनकी स्नूपिंग नहीं की. लेकिन मैक्रों का नाम उस लीक हुई लिस्ट में है. इसी लिस्ट में शामिल तीन फ्रेंच पत्रकारों के फ़ोन में पेगासस से टारगेट किए जाने के सबूत मिले हैं. इस साक्ष्य की पुष्टि फ्रेंच एजेंसी ने की है. ये फैक्ट NSO के दावे को कमज़ोर करता है. अगर ये मान भी लें कि लिस्ट के सभी 50 हज़ार नामों को टारगेट नहीं किया गया, तब भी इतना तो कन्फर्म हो ही चुका है कि इस सूची के कुछ लोग टारगेट हुए. कौन लोग टारगेट हुए. कुल कितने लोग टारगेट हुए. ये जानकारियां तो निष्पक्ष जांच से ही मालूम चल सकेंगी. इसीलिए ज़रूरी है कि जांच हो और पूरी निष्पक्षता से हो.

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