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अश्लील गानों के लिए बदनाम भोजपुरी में ऐसा गीत आया है, जो रुला देगा

ये गाना भोजपुरी को 'देवर-भाभी' और 'लहंगा-चोली' से निकाल कर, भिखारी ठाकुर और शारदा सिन्हा की परंपरा तक ले जाएगा.

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फोटो: पीटीआई | नेहा सिंह, फेसबुक
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लल्लनटॉप
21 अप्रैल 2020 (Updated: 21 अप्रैल 2020, 01:40 PM IST) कॉमेंट्स
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himanshu singhयह लेख दी लल्लनटॉप के लिये हिमांशु सिंह ने लिखा है. हिमांशु दिल्ली में रहते हैं और सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं और प्रतिष्ठित करेंट अफेयर्स टुडे पत्रिका में वरिष्ठ संपादक भी रह चुके हैं. समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ विविध विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं. अभी हिमांशु ने लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों और भोजपुरी को लेकर लिखा है. आप भी पढ़िए.
भोजपुरी' शब्द सुनते ही बहुतों के चेहरे पर शरारती मुस्कान तैरने लगती है. बात अगर भोजपुरी गानों की हो जाए, तो लोग आंखों ही आंखों में अपने जैसा एक और साथी तलाशने लग जाते हैं. कि साथ मिलकर ठहाका लगा सकें. दोष दरअसल उनका नहीं है. उत्तर प्रदेश और बिहार के जिन हिस्सों में भोजपुरी का बोलबाला है, वे क्षेत्र शुरुआत से ही जटिल पारंपरिक समाज रहे हैं, जहां जाति-व्यवस्था अपने सबसे मजबूत रूपों में विद्यमान रही है. ऐसे में उनकी यौन-आकांक्षाओं पर हमेशा कठोर पाबंदी लगी रही, ताकि जाति-व्यवस्था कहीं से भी प्रभावित न होने पाए. पर लगभग तीस साल पहले देश में मुक्त अर्थव्यवस्था और ग्लोबलाइजेशन की मजबूत दस्तक के साथ ही ये वर्जनाएं अनेक तरीकों से कमजोर पड़ने लगीं. भोजपुरी सिनेमा और संगीत पर इसका भरपूर असर पड़ा, जिससे भिखारी ठाकुर और शारदा सिन्हा के सरल, मधुर और सात्विक लोकगीतों वाला भोजपुरी संगीत 'परधान की रहरिया' में जा पड़ा और 'भउजी' छाप गानों ने इसकी पहचान को हाईजैक कर लिया. खुली अर्थव्यवस्था ने तकनीक मुहैया कराई और व्यक्तिगत कुंठाएं कला और संगीत के रास्ते विस्तार पाने लगीं. देवर-भाभी के आपसी संवाद पान की दुकानों पर पूरी आवाज़ में बजने लगे और भोजपुरी संगीत कुछ ही सालों में अश्लीलता का पर्याय बन गया. सालों तक ये यूं ही जारी रहा और भोजपुरी 'चोलिया के हूक' में फंसी रही. पर...

हर किस्से का एक इखतिताम होता है हज़ार लिख दे कोई फतह ज़र्रे-ज़र्रे पर शिकस्त का भी एक मुकाम होता है

तो ये दौर असल भोजपुरी संस्कृति, भाषा और संगीत से प्रेम करने वालों के लिए वाकयी कष्टकारी रहा. पर बदलाव की हवा अब चल चुकी है. यहां समझने की बात है कि लोक-कला वो नहीं है, जो लोक की आड़ में अपनी रोटियां सेंकी जाएं और लोक की संस्कृति विकृत हो. बल्कि लोककला तो वो है, जो लोक के पक्ष को कला के माध्यम से फलक तक ले जाए, और लोक की छवि को बेहतर बनाते हुए उसे समृद्ध करे. ऐसे में जो व्यक्ति अपनी कला के माध्यम से ये करने का बीड़ा उठाता है, वही असली लोक-कलाकार है. कहीं सुना था कि शे'र और शायरी कविताओं की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली होते हैं, क्योंकि शे'र कहे जाते हैं और कविताएं पढ़ी जाती हैं. कही हुई, चीज़ पढ़ी हुई चीज से ज्यादा ताकतवर होती ही है. ऐसे में, अगर कोई व्यक्ति लोक की बात, मजबूत तरीके से अपनी कोमल भदेस आवाज़ में सटीक शब्दों के साथ गाकर कहे, तो वो व्यक्ति न सिर्फ लोकगायक है, बल्कि लोकनायक भी है. अब जरा एक नज़र इसपर डालिये-

कारखाना बंद होई गइले हमार पिया घरे न अइलें हो

दिल्ली शहरिया में पिया के नौकरिया भोरे ले सांझ होइ गइले हमार पिया घरे न अइलें हो

धूप-अन्हरिया में चलेले डगरिया छपरा-आरा के दुलरुआ हमार पिया घरे न अइलें हो

कारखाना बन्द होई गइले हमार पिया घरे न अइलें हो

ललकी पगरिया उजर पहिनें धोती लमहर-छरहर बलमुआ हमार पिया घरे न अइलें हो

अइसन होवे टोना कि झर जाए कोरोना नून-रोटी आफत भइले हमार पिया घरे न अइलें हो!

ये गीत कोरोना महामारी के चलते महानगरों में फंसे मजदूरों की व्यथा कह रहा है. जिसे अभी हाल ही में अपने भोजपुरी गीतों की वजह से चर्चा में आईं भोजपुरी गीतकार और लोकगायिका नेहा सिंह राठौर ने लिखा और गाया है.
ऐसे में ये गीत भोजपुरी गीत-संगीत के एक अन्य पहलू को उजागर करता है, जिसमें लोकहितवादी भावना लगातार बनी हुई है. कुछ ही समय में इस गाने को लाखों लोग देख चुके हैं और खूब पसंद कर रहे हैं.
नेहा सिंह राठौर के ही कुछ गीतों को दो मिलियन से ज्यादा व्यूज़ मिल चुके हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि भोजपुरी गीतों की अश्लीलता भोजपुरी गीत-गायन परंपरा का स्वाभाविक गुण न होकर एक थोपा हुआ कल्चर है.
आज नेहा जैसे लोक-कलाकार दोबारा असली भोजपुरी गीत-संगीत को उसकी जड़ों से जोड़ने में लगे हुए हैं. ऐसे लोग ही भोजपुरी के असल नायक हैं, जो भोजपुरी को 'देवर-भाभी संवाद' और 'परधान की रहरिया' से निकाल कर वापस भिखारी ठाकुर और शारदा सिन्हा की परंपरा से जोड़ेंगे. यही लोकनायक भोजपुरी गीतों को भोजपुरी के उन कपूतों से निजात दिलाएंगे, जिन्होंने भोजपुरी को बदनाम करके रख दिया, और जिनपर ये कहावत एकदम सटीक है-

कुल्हाड़ी में लकड़ी का दस्ता न होता तो लकड़ी के कटने का रस्ता न होता

उम्मीद है भोजपुरी गीत-संगीत जल्दी ही अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस पा जाएगा, जो बीते कुछ दशकों से धूमिल हो रही है, और जिसके चलते शेष भारत में भोजपुरी अश्लीलता और मजाक की विषयवस्तु समझी जा रही है. पूरी उम्मीद है कि नेहा जैसे लोकगायक ही एक दिन भोजपुरी को राजभाषा का दर्जा भी दिलवाएंगे.
विडियो- भिखारी ठाकुर की टीम में रहे रामचंद्र मांझी का लौंडा नाच देखिए

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